बुधवार, 9 अप्रैल 2014

प्रेमचंद और अमर्त्य सेन



शंभुनाथ प्रेमचंद और अमर्त्य सेन दो भिन्न युगों के बुद्धिजीवी हैं। दोनों को साथ रख कर देखना कुछ विचित्र गेगा। फिर भी इस समानता की ओर दृष्टि जानी चाहिए कि दोनों ने अपने ेखन में भारत के गरीब और वंचित ोगों का प्रश्न उठाया है।
उपनिवेश में गरीब बढ़ रहे थे। आज राष्ट्र में भी उभरती अर्थव्यवस्था के बावजूद गरीबी रेखा के नीचे तीस करोड़ ोग हैं। ये बुरी दशाओं में जी रहे हैं। इनके हाात से रूबरू होने के बाद ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन की एक किताब आई है एन अनसर्टेन ग्ोरी: इंडिया ऐंड इट्स कंट्राडिक्शन्स। इन्होंने आर्थिक वृद्धि पर हो रही चर्चाओं के बीच विषमता और गरीबी के मुद्दों पर फोकस किया है। विस्मय हो सकता है कि इस पुस्तक में शिक्षा और स्वास्थ्य से वंचित और राजनीतिक चेतना से दूर गरीबों को ेकर गभग वही चिंताएं हैं, जो प्रेमचंद के ेखन में हैं।
प्रेमचंद (1880-1936) का साहित्य औपनिवेशिक समय का है। वे िखते हैं, अंग्रेजी राज में गरीबों, मजदूरों और किसानों की दशा जितनी खराब है और होती जा रही है, उतनी समाज के और किसी अंग की नहीं।.. रोग, प्ेग, हैजा, शीता उनके नौजवानों को हरी-भरी और हाती जवानी में दुनिया से उठाए िए चे जा रही है।.. माता के पास केवइतना वस्} है, जितने से वह घूंघट काढ़ सके, धोती चाहे ठेहुने तक ही क्यों न खिसक जाए। उनके पूरे कथा साहित्य में गरीब केंद्र में है।
प्रेमचंद ने ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन की तरह भारत के गरीब और वंचित ोगों के िए चिकित्सा और शिक्षा के मुद्दे उठाए। इस तरफ भी ध्यान खींचा कि उपनिवेशवाद गरीबों की संख्या बढ़ा रहा है। वे यह भी दिखाते हैं कि वंचित आखिरकार वंचित क्यों हैं। कई बार गता है कि उपर्युक्त पुस्तक में विकास और इससे वंचित ोगों के अंतर्विरोध पर फोकस दरअसभीतर से दी जा रही एक चेतावनी है।
वैश्वीकरण के झूे में पेंगे भरते हुए गरीबों पर बहस आज फैशन है। इस तरह के काम वैश्वीकरण के सेफ्टी वाल्व हैं।
इन स्थितियों में समझ जा सकता है कि प्रेमचंद का क्या महत्त्व है। उन्होंने 1919 में सवाकिया था, क्या यह शर्म की बात नहीं है कि जिस देश में नब्बे फीसद आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भाई का आंदो, खेती का कोई विद्या, किसानों की भाई का कोई व्यवस्थित प्रय} न हो। आपने सैकड़ों स्कूऔर कॉेज बनवाए, विश्वविद्यालय खोले और अनेक आंदोन चाए, मगर किसके िए? उनके इस सवामें गरीब किसान एक ठोस आकार ेता है।
दूसरी बात, उनका सवाराष्ट्रीय आंदोन के क्षमतावान हो रहे कणर्धारों से है, राष्ट्र से है। सोचो, किसके िए यह शिक्षा और ये आंदोन हैं। आज गरीबों के िए सिर्फ खाद्य सुरक्षा काफी है या इन्हें शिक्षा, चिकित्सा और जीने के िए स्वच्छ पर्यावरण भी चाहिए? यह सवाजितनी गंभीरता से अमर्त्य सेन उठाते हैं, प्रेमचंद भी उठाते हैं। उनके कई कथा-चरि} शिक्षा, स्वास्थ्य-सुविधाएं और पर्यावरण चेतना ेकर औपनिवेशिक मार से जर्जरित गांवों में जाते हैं, उनमें प्रेमशंकर (प्रेमाश्रम), अमरकांत (कमर्भूमि) और माती (गोदान) अन्यतम हैं। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इन सीमित कोशिशों से कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि यह बड़े विजन और सामाजिक दायित्व का मामा है।
प्रेमचंद ने 1909 में पिछड़े इाकों में अपने समय की आरंभिक शिक्षा का जो चि} खींचा है, वह आज भी थोड़े फर्क से कई जगहों पर दिख सकता है, एक पेड़ के नीचे जिसके इधर-उधर कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है और शायद वर्षों से झड़ नहीं दी गई, एक फटे- पुराने टाट पर बीस-पच्चीस ड़के बैठे ऊंघ रहे हैं। सामने एक टूटी हुई कुर्सी और पुरानी मेज है। उस पर जनाब मास्टर साहब बैठे हुए हैं। ड़के झूम-झूम कर पहाड़े रटे जा रहे हैं। शायद किसी के बदन पर साबुत कुर्ता न होगा।.. हमारी आरंभिक शिक्षा के सुधार और उन्नति के िए सबसे बड़ी जरूरत योग्य शिक्षकों की है। आज शिक्षक की योग्यता महत्त्वपूर्ण नहीं है। वह और कुछ करे, पढ़ाता कम है।
अमर्त्य सेन बुनियादी शिक्षा के उच्च मान पर उसी तरह बदेते हैं, जिस तरह प्रेमचंद देते थे। वे इस पर भी चिंता व्यक्त करते हैं कि इस समय विश्व के उच्च मान के टॉप के दो सौ विश्वविद्यायों में भारत का एक भी विश्वविद्याय नहीं है। हम जानते हैं, इस दशा में भी भारत में दंभ से भरे शिक्षाविदें और शिक्षा में कुत्सित राजनीति की कमी नहीं है। क्या ऐसे शिक्षा-संसार से मिे खुदगर्जी और काइयांपन के गुणों की वजह से ही आज की राजनीति ऊपर से खूब हॉट और भीतर से खोखी है? प्रेमचंद ने बार-बार कहा, यह शिक्षा शिक्षा नहीं है।
वैश्वीकरण के दौर में जिस तरह भारत के गरीबों के िए चिंताएं की जा रही हैं और राहत योजनाएं दिख रही हैं, वे नई जनतांत्रिक राजनीति के हरावजैसी ग सकती हैं, क्योंकि वैश्वीकरण को एक मानवीय चेहरा चाहिए। दरअस¶, जिस तरह औपनिवेशिक काका उदारीकरण आध्यात्मिक चेहरे के साथ था, आज का नवउदारीकर ण मानवीय चेहरे के साथ है।
उदारवादी रवींद्रनाथ की आध्यात्मिकता देखकर प्रेमचंद कुछ निराश-से थे, बुद्धि और आध्यात्मिकता की यह खींचतान वर्तमान आंदोन के रास्ते में भयानक रुकावट होगी और जब उसके समर्थक रवींद्रनाथ जैसे दूरदर्शी, गहरी नजर वाोग हैं, तो इस रुकावट को रास्ते से हटाना आसान साबित न होगा। यही बात वैश्वीकरण के मानवीय मुखौटे बनाने वाे बुद्धिजीवियों के बारे में कही जा सकती है। प्रेमचंद और अमर्त्य सेन दोनों ने यह मुद्दा उठाया है कि भारत में मध्यवर्गीय ोगों की संवेदना संकुचित क्यों है? दूसरे कई देशों की तुना में दिमागी खुापन कम है, सिर्फ इतनी बात नहीं है। प्रेमचंद मध्यवर्ग की तरह-तरह से असियत खोते हैं, वह झूठे आडंबर और बनावट की जिंदगी का, इस व्यावसायिक और औद्योगिक प्रतियोगिता का इतना प्रेमी हो गया है कि उसकी बुद्धि में सरजिंदगी का विचार आ ही नहीं सकता।.. काश ये विश्वविद्यालय न खुे होते; काश आज उनकी ईंट से ईंट बज जाती; तो हमारे देश में द्रोहियों की इतनी संख्या न होती।.. हमारा तजरबा तो यह है कि साक्षर होकर आदमी काइयां, बदनीयत, कानूनी और आसी हो जाता है। प्रेमचंद के कई पढ़े-िखे कथा-चरि} गरीब और वंचित ोगों के बीच सेवा के िए सक्रिय होते हैं। वे खुदगर्ज नहीं, सामाजिक हैं।
अमर्त्य सेन सरकारी कानून से एकमा} आशा न रख कर जनसक्रियता का मुद्दा उठाते हैं।
वे इस मामे में कहते हैं, एक तरफ राष्ट्र अभी तक करोड़ों ोगों के जीवन में न्यूनतम जनसुवि धाएं नहीं पहुंचा पाया है, दूसरी तरफ समाज का एीट और शिक्षित मध्यवर्ग निर्िप्त और सहनशीहै। कभी भ्रष्टाचार, ात्कार और हिंसा की घटना पर अचानक जन- आक्रोश दिख जाता हो, पर आमतौर पर यह वर्ग दूसरे पर अन्याय देख कर उत्तेजित नहीं होता और आत्मसेवा में डूबा रहता है।
पिछे साएक बार देश का आधे से ज्यादा हिस्सा देर तक अंधकार में डूब गया था। इसे ेकर महानगरों में गुस्सा सड़कों पर आ गया। क्या इसको ेकर कभी भद्र नागरिक समाज ने प्रदर्शन किया कि देश के तीस करोड़ ोग पूरे साही बिल्कुअंधकार में जीते हैं? जब तक अपना स्वार्थ नहीं है, मुंह में कोई आवाज नहीं है। आज पेट्रोडीजकी कीमत बढ़ने पर भौंहें तन जाती हैं। इस पर गुस्सा नहीं आता कि कृषकों को उपज की ागत नहीं मिपा रही है। एक विपत्ति और है, चीन और कोरिया का माभारतीय बाजार में आने से भारत में छोटे घरेू व्यवसायों की भयावह तबाही हुई है।
भारत कहीं समृद्ध हो रहा हो, पर वह कई जगहों पर उजड़ रहा है। ऊपर से मनोरंजन उद्योग रंगीन जीवन की चमकद मक दिखाता है।
प्रेमचंद अपने जमाने के मीडिया को भी संदर्भ बनाते हैं, जिनके पास न खाने को अन्न है और न पहनने को वस्}, वह ब्रॉडकास्टिंग सुन कर अपना मनोरंजन न करेंगे, तो कौन करेगा? उस जमाने में रेडियो के फिल्मी गाने खूब सुने जाते थे। प्रेमचंद ने अपने दौर के बारे में िखा था, यह समय राष्ट्र के निर्माण का समय है। क्या वतर्मान समय राष्ट्र के विघटन का है? क्या भारत में बढ़ती विषमता राष्ट्र की व्यर्थता का चिह्न् है? मध्यवर्ग को जहां असहिष्णु होना चाहिए, वहां वह निर्िप्त है और जहां सहिष्णु होना चाहिए वहां उसमें हिंसात्मक असहिष्णुता है।
ये प्रेमचंद हैं, जो शिक्षा और चिकित्सा के अावा सांस्कृतिक सुधार पर जोर देते हैं। वे मानसिकता बदने के िए कहते हैं। वे कट्टरवाद का विरोध करते हुए बड़े दुख से कहते हैं, अछूत, ित, हिंदू, ईसाई, सिख, जमींदार, व्यापारी, किसान, स्}ी और न जाने कितने विशेषाधिकारों के िए स्थान दिया जाएगा। राष्ट्र का अंत हो गया।.. मुसमान जिधर फायदा देखेंगे उधर जाएंगे। सभी दअपनी-अपनी रक्षा करेंगे। राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा?
क्या गता है कि यह राष्ट्र की वतर्मान दशा पर बयान नहीं है? प्रेमचंद के समय उपनिवेशवाद राष्ट्रीय भावना पर संकट पैदा कर रहा था। आज वह काम वैश्वीकरण कर रहा है।
साम्राज्य से राष्ट्र का बाहर निकना पहे से ज्यादा मुश्किहो उठा है। इसिए राष्ट्र के अंत का वैसा ही खतरा है, जैसा प्रेमचंद देख रहे थे।
अमर्त्य सेन वैश्वीकरण के समर्थन में बोते हुए भीतर से जो भी प्रश्न उठाते हैं, वे निश्चय ही महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी किताबें हैपी इंडिया की भारत-विरुदावियों से अग हैं।
स्वाभाविक है कि अमर्त्य सेन वैश्वीकरण में साम्राज्यवाद नहीं देखते। वे प्रेमचंद की तरह मध्यवर्ग को उसके अंतद्र्वंद्वों के साथ नहीं देखते। उसे काट कर सीधे कॉरपोरेट घरानों पर भरोसा करते हैं या वंचित वर्गों का पक्ष ेते हैं। वे गरीबों और वंचितों का पक्ष ेते हैं, क्योंकि भविष्य में कॉरपोरेट समाज के हितों पर खतरा आत्मिप्त और अंतविर्भाजित मध्यवर्गों से नहीं, गरीबों और वंचित ोगों से है।
कहा जा सकता है कि अमर्त्य सेन का सोच भय का अथर्शास्} है, स्वाधीनता का अथर्शास्} नहीं। वे विषमता और बौद्धिक पतन की वजहों में नहीं जाते। वे भारत छोड़ कर अंतत: अमेरिका के टॉप विश्वविद्यायों में पढ़ाने चे जाते हैं। वहीं बस जाते हैं। भारत अक्सर आते हुए भी ज्यादातर वहीं से भारत को देखते हैं। अमर्त्य सेन ने रवींद्रनाथ से अंतर्दृष्टि ी थी। पश्चिम से भौतिकता, भारत से आध्यात्मिकता एक पुराना बौद्धिक टॉनिक है। उसका नया रूप है - वैश्वीकरण चाहिए, वंचित वर्गों के िए मानवीय चिंताओं के साथ।
प्रेमचंद कभी विदेश नहीं जा सके। वे यूरोप के बड़े ेखकों और आइंस्टीन से नहीं मिसके। उन घटाओं से दूर रह कर उन्होंने भारत के गरीब और वंचित ोगों के बारे में जो सोचा, स्वप्न देखा और िखा, वह अमर्त्य सेन की चिंताओं से कहां कम है, मुङो समझना अभी बाकी है।
क्या हम प्रेमचंद के कथा साहित्य से आज की स्थितियों को समझने का विजन पा सकते हैं? इसने एक समय स्वाधीनता आंदोनों को प्रेरित किया था। इसकी वजह सिर्फ उनका ेखन नहीं है, उनका जीवन भी है। वे कभी साम्राज्यवादी आकर्षणों में नहीं फंसे। उन्होंने जो िखा, उसे जिया। उन्होंने साहित्य को अपने जीवन में ऊंचा स्थान दिया तो उसके िए सरकारी नौकरी, रायसाहबी और अवर महाराजा का दरबार भी छोड़ा।
उनकी कृतियां भारतीय पीड़ा, प्रतिरोध और ट्रेजडी का महान दस्तावेज हैं। उनका ेखन हिंदुस्तान के बनने की कहानी है।
प्रेमचंद ने 1909 में पिछड़े इाकों में अपने समय की आरंभिक शिक्षा का जो चित्र खींचा है, वह आज भी थोड़े फर्क से कई जगहों पर दिख सकता है, एक पेड़ के नीचे जिसके इधर-उधर कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है और शायद वर्षो से झड़ नहीं दी गई, एक फटे-पुराने टाट पर बीस-पच्चीस ड़के बैठे ऊंघ रहे हैं।
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Source – KalpatruExpress News Papper

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