महान विचारो का संग्रह 3
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संसार की चिंता में पढ़ना तुम्हारा काम नहीं है, बल्कि जो सम्मुख
आये, उसे भगवद रूप मानकर उसके अनुरूप उसकी सेवा
करो।
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संसार के सारे दु:ख चित्त की मूर्खता के कारण
होते हैं। जितनी मूर्खता ताकतवर उतना ही दुःख मज़बूत, जितनी मूर्खता कम उतना ही दुःख कम। मूर्खता हटी तो समझो दुःख छू-मंतर हो
जायेगी।
·
संसार का सबसे बड़ानेता है - सूर्य। वह आजीवन
व्रतशील तपस्वी की तरह निरंतर नियमित रूप से अपने सेवा कार्य में संलग्न रहता है।
·
संसार कार्यों से, कर्मों के परिणामों से चलता है।
·
संसार का सबसे बड़ा दीवालिया वह है, जिसने उत्साह खो दिया।
·
संसार में हर वस्तु में अच्छे और बुरे दो
पहलू हैं, जो अच्छा पहलू देखते हैं वे अच्छाई और
जिन्हें केवल बुरा पहलू देखना आता है वह बुराई संग्रह करते हैं।
·
संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर
विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कत्र्तव्य पालन करने में है।
·
संसार में रहने का सच्चा तत्त्वज्ञान यही है
कि प्रतिदिन एक बार खिलखिलाकर जरूर हँसना चाहिए।
·
संसार में केवल मित्रता ही एक ऐसी चीज है
जिसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में दो मत नहीं है।
·
सारा संसार ऐसा नहीं हो सकता, जैसा आप सोचते हैं, अतः समझौतावादी बनो।
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सात्त्विक स्वभाव सोने जैसा होता है, लेकिन सोने को आकृति देने के लिये थोड़ा - सा पीतल मिलाने कि जरुरत होती है।
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सन्यासी स्वरुप बनाने से अहंकार बढ़ता है, कपडे मत रंगवाओ, मन को रंगों तथा भीतर से सन्यासी की तरह रहो।
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सन्यास डरना नहीं सिखाता।
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संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है
कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती
है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए
धीरे - धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना।
·
सच्चा दान वही है, जिसका प्रचार न किया जाए।
·
सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्ची मित्रता और भी दुर्लभ है।
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सच्चे नेता आध्यात्मिक सिद्धियों द्वारा आत्म
विश्वास फैलाते हैं। वही फैलकर अपना प्रभाव मुहल्ला, ग्राम, शहर, प्रांत और देश भर में व्याप्त हो जाता है।
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सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ
प्रयत्न कभी निष्फल नहीं जाता।
·
सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता और सौजन्य जैसे गुणों के बिना कोई मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो
सकता।
·
समाज में कुछ लोग ताकत इस्तेमाल कर दोषी
व्यक्तियों को बचा लेते हैं,
जिससे दोषी
व्यक्ति तो दोष से बच निकलता है और निर्दोष व्यक्ति क़ानून की गिरफ्त में आ जाता
है। इसे नैतिक पतन का तकाजा ही कहा जायेगा।
·
समाज सुधार सुशिक्षितों का अनिवार्य
धर्म-कत्र्तव्य है।
·
समाज का मार्गदर्शन करना एक गुरुतर दायित्व
है, जिसका निर्वाह कर कोई नहीं कर सकता।
·
सामाजिक और धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को
नैतिकता एवं अनैतिकता का पाठ पढ़ाती है।
·
सामाजिक, राष्ट्रीय एवं
अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो विकृतियाँ, विपन्नताएँ
दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे कहीं आकाश से नहीं टपकी हैं, वरन् हमारे अग्रणी, बुद्धिजीवी एवं प्रतिभा सम्पन्न लोगों की
भावनात्मक विकृतियों ने उन्हें उत्पन्न किया है।
·
सैकड़ों गुण रहित और मूर्ख पुत्रों के बजाय
एक गुणवान और विद्वान पुत्र होना अच्छा है; क्योंकि रात्रि
के समय हज़ारों तारों की उपेक्षा एक चन्द्रमा से ही प्रकाश फैलता है।
·
सत्य भावना का सबसे बड़ा धर्म है।
·
सत्य, प्रेम और न्याय
को आचरण में प्रमुख स्थान देने वाला नर ही नारायण को अति प्रिय है।
·
सत्य बोलने तक सीमित नहीं, वह चिंतन और कर्म का प्रकार है, जिसके साथ ऊंचा
उद्देश्य अनिवार्य जुड़ा होता है।
·
सत्य का पालन ही राजाओं का दया प्रधान सनातन
अचार था। राज्य सत्य स्वरुप था और सत्य में लोक प्रतिष्ठित था।
·
सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य से
उत्तम कुछ भी नहीं हैं और जूठ से बढ़कर तीव्रतर पाप इस जगत में दूसरा नहीं है।
·
सत्य बोलते समय हमारे शरीर पर कोई दबाव नहीं
पड़ता, लेकिन झूठ बोलने पर हमारे शरीर पर अनेक
प्रकार का दबाव पड़ता है, इसलिए कहा जाता है कि सत्य के लिये एक हाँ और
झूठ के लिये हज़ारों बहाने ढूँढने पड़ते हैं।
·
सत्य परायण मनुष्य किसी से घृणा नहीं करता
है।
·
सत्य एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है, जो देश, काल, पात्र अथवा
परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती।
·
सत्य ही वह सार्वकालिक और सार्वदेशिक तथ्य है, जो सूर्य के समान हर स्थान पर समान रूप से चमकता रहता है।
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सत्य का मतलब सच बोलना भर नहीं, वरन् विवेक, कत्र्तव्य, सदाचरण, परमार्थ जैसी सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं से भरा हुआ जीवन जीना है।
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सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय, मान-अपमान, निंदा-स्तुति, ये द्वन्द निरंतर एक साथ जगत में रहते हैं और ये हमारे जीवन का एक हिस्सा होते
हैं, दोनों में भगवान को देखें।
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सुख-दुःख जीवन के दो पहलू हैं, धूप व छांव की तरह।
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सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए।
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सुख बाहर से नहीं भीतर से आता है।
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सुखों का मानसिक त्याग करना ही सच्चा सुख है
जब तक व्यक्ति लौकिक सुखों के आधीन रहता है, तब तक उसे अलौकिक
सुख की प्राप्ति नहीं हों सकती,
क्योंकि सुखों
का शारीरिक त्याग तो आसान काम है,
लेकिन मानसिक
त्याग अति कठिन है।
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स्वर्ग व नरक कोई भौगोलिक स्थिति नहीं हैं, बल्कि एक
मनोस्थिति है। जैसा सोचोगे, वैसा ही पाओगे।
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स्वर्ग और मुक्ति का द्वार मनुष्य का हृदय ही
है।
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'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता
उनमें सर्वप्रमुख है।
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स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन् दृष्टिकोण है।
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स्वर्ग में जाकर गुलामी बनने की अपेक्षा नर्क
में जाकर राजा बनना बेहतर है।
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सभ्यता एवं संस्कृति में जितना अंतर है, उतना ही अंतर उपासना और धर्म में है।
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सदा, सहज व सरल रहने
से आतंरिक खुशी मिलती है।
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सब कर्मों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिए; क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है। यह अविद्या का नाश करती है और इससे मुक्ति
प्राप्त होती है।
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सब ने सही जाग्रत् आत्माओं में से जो जीवन्त
हों, वे आपत्तिकालीन समय को समझें और व्यामोह के
दायरे से निकलकर बाहर आएँ। उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है।
·
सब जीवों के प्रति मंगल कामना धर्म का प्रमुख
ध्येय है।
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सब कुछ होने पर भी यदि मनुष्य के पास
स्वास्थ्य नहीं, तो समझो उसके पास कुछ है ही नहीं।
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सबसे बड़ा दीन दुर्बल वह है, जिसका अपने ऊपर नियंत्रण नहीं।
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सबसे धनी वह नहीं है जिसके पास सब कुछ है, बल्कि वह है जिसकी आवश्यकताएं न्यूनतम हैं।
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सारे काम अपने आप होते रहेंगे, फिर भी आप कार्य करते रहें। निरंतर कार्य करते रहें, पर उसमें ज़रा भी आसक्त न हों। आप बस कार्य करते रहें, यह सोचकर कि अब हम जा रहें हैं बस, अब जा रहे हैं।
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समय मूल्यवान है, इसे व्यर्थ नष्ट न करो। आप समय देकर धन पैदा
कर रखते हैं और संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन स्मरण रहे - सब कुछ देकर भी समय प्राप्त नहीं कर सकते अथवा गए समय को
वापिस नहीं ला सकते।
·
समय को नियमितता के बंधनों में बाँधा जाना
चाहिए।
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समय उस मनुष्य का विनाश कर देता है, जो उसे नष्ट करता रहता है।
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समय महान चिकित्सक है।
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समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता।
·
समय की कद्र करो। प्रत्येक दिवस एक जीवन है।
एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओ। जिन्दगी की सच्ची कीमत हमारे वक़्त का एक-एक क्षण ठीक
उपयोग करने में है।
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समय का सुदपयोग ही उन्नति का मूलमंत्र है।
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संघर्ष ही जीवन है। संघर्ष से बचे रह सकना
किसी के लिए भी संभव नहीं।
·
सेवा का मार्ग ज्ञान, तप, योग आदि के मार्ग से भी ऊँचा है।
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स्वार्थ, अहंकार और
लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।
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स्वार्थ और अभिमान का त्याग करने से साधुता
आती है।
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सत्कर्म की प्रेरणा देने से बढ़कर और कोई
पुण्य हो ही नहीं सकता।
·
सद्गुणों के विकास में किया हुआ कोई भी
त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता।
·
सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से जिनका
जीवन जितना ओतप्रोत है, वह ईश्वर के उतना ही निकट है।
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सारी शक्तियाँ लोभ, मोह और अहंता के लिए वासना,
तृष्णा और
प्रदर्शन के लिए नहीं खपनी चाहिए।
·
समान भाव से आत्मीयता पूर्वक कर्तव्य -कर्मों
का पालन किया जाना मनुष्य का धर्म है।
·
सत्कर्मों का आत्मसात होना ही उपासना, साधना और आराधना का सारभूत तत्व है।
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सद्विचार तब तक मधुर कल्पना भर बने रहते हैं, जब तक उन्हें कार्य रूप में परिणत नहीं किया जाय।
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सदविचार ही सद्व्यवहार का मूल है।
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सफल नेतृत्व के लिए मिलनसारी, सहानुभूति और कृतज्ञता जैसे दिव्य गुणों की अतीव आवश्यकता है।
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सफल नेता की शिवत्व भावना-सबका भला 'बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय'
से प्रेरित होती
है।
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सफलता अत्यधिक परिश्रम चाहती है।
·
सफलता प्राप्त करने की प्रक्रिया कभी समाप्त
नहीं होती और असफलता कभी अंतिम नहीं होती।
·
सफलता का एक दरवाजा बंद होता है तो दूसरा खुल
जाता हैं लेकिन अक्सर हम बंद दरवाजे की ओर देखते हैं और उस दरवाजे को देखते ही
नहीं जो हमारे लिए खुला रहता है।
·
सफलता-असफलता का विचार कभी मत सोचे, निष्काम भाव से अपने कर्मयुद्ध में डटे रहें अर्जुन की तरह आप सफल प्रतियोगी
अवश्य बनेंगे।
·
स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है।
·
संकल्प जीवन की उत्कृष्टता का मंत्र है, उसका प्रयोग मनुष्य जीवन के गुण विकास के लिए होना चाहिए।
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संकल्प ही मनुष्य का बल है।
·
सदा चेहरे पर प्रसन्नता व मुस्कान रखो।
दूसरों को प्रसन्नता दो, तुम्हें प्रसन्नता मिलेगी।
·
स्वधर्म में अवस्थित रहकर स्वकर्म से
परमात्मा की पूजा करते हुए तुम्हें समाधि व सिद्धि मिलेगी।
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सज्जन व कर्मशील व्यक्ति तो यह जानता है, कि शब्दों की अपेक्षा कर्म अधिक ज़ोर से बोलते हैं। अत: वह अपने शुभकर्म में
ही निमग्न रहता है।
·
सज्जनों की कोई भी साधना कठिनाइयों में से
होकर निकलने पर ही पूर्ण होती है।
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सज्जनता ऐसी विधा है जो वचन से तो कम; किन्तु व्यवहार से अधिक परखी जाती है।
·
सज्जनता और मधुर व्यवहार मनुष्यता की पहली
शर्ता है।
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सत्संग और प्रवचनों का - स्वाध्याय और
सुदपदेशों का तभी कुछ मूल्य है,
जब उनके अनुसार
कार्य करने की प्रेरणा मिले। अन्यथा यह सब भी कोरी बुद्धिमत्ता मात्र है।
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साधना एक पराक्रम है, संघर्ष है, जो अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करना होता
है।
·
समर्पण का अर्थ है - पूर्णरूपेण प्रभु को
हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा, प्रेरणाओं के
प्रति सदैव जागरूक रहना और जीवन के प्रतयेक क्षण में उसे परिणत करते रहना।
·
समर्पण का अर्थ है - मन अपना विचार इष्ट के, ह्रदय अपना भावनाएँ इष्ट की और आपा अपना किन्तु
कर्तव्य समग्र रूप से इष्ट का।
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सम्भव की सीमा जानने का केवल एक ही तरीका है।
असम्भव से भी आगे निकल जाना।
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सत्कार्य करके मिलने वाली खुशी से बढ़कर और
कोई खुशी नहीं होती।
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सीखना दो प्रकार से होता है, पहला अध्ययन करके और दूसरा बुद्धिमानों से संगत करके।
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सबसे महान धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना।
·
सद्व्यवहार में शक्ति है। जो सोचता है कि
मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति
का सच्चा पथिक है।
·
सलाह सबकी सुनो पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा
साहस और विवेक समर्थन करे।
·
सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।
·
सत्प्रयत्न कभी निरर्थक नहीं होते।
·
सादगी सबसे बड़ा फैशन है।
·
'स्वाध्यान्मा
प्रमद:' अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद न करें।
·
सम्मान पद में नहीं, मनुष्यता में है।
·
सबकी मंगल कामना करो, इससे आपका भी मंगल होगा।
·
स्वाध्याय एक अनिवार्य दैनिक धर्म कत्र्तव्य
है।
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स्वाध्याय को साधना का एक अनिवार्य अंग मानकर
अपने आवश्यक नित्य कर्मों में स्थान दें।
·
स्वाध्याय एक वैसी ही आत्मिक आवश्यकता है
जैसे शरीर के लिए भोजन।
·
स्वार्थपरता की कलंक कालिमा से जिन्होंने
अपना चेहरा पोत लिया है, वे असुर है।
·
सूर्य प्रतिदिन निकलता है और डूबते हुए आयु
का एक दिन छीन ले जाता है, पर माया-मोह में डूबे मनुष्य समझते नहीं कि
उन्हें यह बहुमूल्य जीवन क्यों मिला ?
·
सबके सुख में ही हमारा सुख सन्निहित है।
·
सेवा से बढ़कर पुण्य-परमार्थ इस संसार में और
कुछ नहीं हो सकता।
·
सेवा में बड़ी शक्ति है। उससे भगवान भी वश
में हो सकते हैं।
·
स्वयं उत्कृष्ट बनने और दूसरों को उत्कृष्ट
बनाने का कार्य आत्म कल्याण का एकमात्र उपाय है।
·
स्वयं प्रकाशित दीप को भी प्रकाश के लिए तेल
और बत्ती का जतन करना पड़ता है बुद्धिमान भी अपने विकास के लिए निरंतर यत्न करते
हैं।
·
सतोगुणी भोजन से ही मन की सात्विकता स्थिर
रहती है।
·
समस्त हिंसा, द्वेष, बैर और विरोध की भीषण लपटें दया का संस्पर्श पाकर शान्त हो जाती हैं।
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साहस ही एकमात्र ऐसा साथी है, जिसको साथ लेकर मनुष्य एकाकी भी दुर्गम दीखने वाले पथ पर चल पड़ते एवं लक्ष्य
तक जा पहुँचने में समर्थ हो सकता है।
·
साहस और हिम्मत से खतरों में भी आगे बढ़िये।
जोखित उठाये बिना जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं पाई जा सकती।
·
सुख बाँटने की वस्तु है और दु:खे बँटा लेने
की। इसी आधार पर आंतरिक उल्लास और अन्यान्यों का सद्भाव प्राप्त होता है। महानता
इसी आधार पर उपलब्ध होती है।
·
सहानुभूति मनुष्य के ह्रदय में निवास करने वाली वह कोमलता है, जिसका निर्माण
संवेदना, दया, प्रेम तथा करुणा
के सम्मिश्रण से होता है।
·
सन्मार्ग का राजपथ कभी भी न छोड़े।
·
स्वच्छता सभ्यता का प्रथम सोपान है।
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स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है।
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साधना का अर्थ है - कठिनाइयों से संघर्ष करते
हुए भी सत्प्रयास जारी रखना।
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सर्दी-गर्मी, भय-अनुराग, सम्पती अथवा दरिद्रता ये जिसके कार्यो मे बाधा नहीं डालते वही ज्ञानवान
(विवेकशील) कहलाता है।
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सभी मन्त्रों से महामंत्र है - कर्म मंत्र, कर्म करते हुए भजन करते रहना ही प्रभु की सच्ची भक्ति है।
·
संयम की शक्ति जीवं में सुरभि व सुगंध भर
देती है।
म
·
मनुष्य को उत्तम शिक्षा अच्चा स्वभाव, धर्म, योगाभ्यास और विज्ञान का सार्थक ग्रहण करके जीवन में सफलता प्राप्त करनी
चाहिए।
·
मनुष्य का मन कछुए की भाँति होना चाहिए, जो बाहर की चोटें सहते हुए भी अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ता और धीरे-धीरे मंजिल
पर पहुँच जाता है।
·
मनुष्य की सफलता के पीछे मुख्यता उसकी सोच, शैली एवं जीने का नज़रिया होता है।
·
मनुष्य अपने अंदर की बुराई पर ध्यान नहीं
देता और दूसरों की उतनी ही बुराई की आलोचना करता है, अपने पाप का तो
बड़ा नगर बसाता है और दूसरे का छोटा गाँव भी ज़रा-सा सहन नहीं कर सकता है।
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मनुष्य का जीवन तीन मुख्य तत्वों का समागम है
- शरीर, विचार एवं मन।
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मनुष्य जीवन का पूरा विकास ग़लत स्थानों, ग़लत विचारों और ग़लत दृष्टिकोणों से मन और शरीर को बचाकर उचित मार्ग पर आरूढ़
कराने से होता है।
·
मनुष्य के भावों में प्रबल रचना शक्ति है, वे अपनी दुनिया आप बसा लेते हैं।
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मनुष्य बुद्धिमानी का गर्व करता है, पर किस काम की वह बुद्धिमानी-जिससे जीवन की साधारण कला हँस-खेल कर जीने की
प्रक्रिया भी हाथ न आए।
·
मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, वह उनका निर्माता, नियंत्रणकर्ता और स्वामी है।
·
मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-विज्ञान
की जानकारी हुए बिना यह संभव नहीं है कि मनुष्य दुष्कर्मों का परित्याग करे।
·
मनुष्य की संकल्प शक्ति संसार का सबसे बड़ा
चमत्कार है।
·
मनुष्य जन्म सरल है, पर मनुष्यता कठिन प्रयत्न करके कमानी पड़ती है।
·
मनुष्य एक भटका हुआ देवता है। सही दिशा पर चल
सके, तो उससे बढ़कर श्रेष्ठ और कोई नहीं।
·
मनुष्य दु:खी, निराशा, चिंतित, उदिग्न बैठा रहता हो तो समझना चाहिए सही
सोचने की विधि से अपरिचित होने का ही यह परिणाम है। - वाङ्गमय
·
मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है; परन्तु इनके परिणामों में चुनाव की कोई सुविधा नहीं।
·
मनुष्य परिस्थितियों का ग़ुलाम नहीं, अपने भाग्य का निर्माता और विधाता है।
·
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।
·
मनुष्य उपाधियों से नहीं, श्रेष्ठ कार्यों से सज्जन बनता है।
·
मनुष्य का अपने आपसे बढ़कर न कोई शत्रु है, न मित्र।
·
मनुष्य को एक ही प्रकार की उन्नति से संतुष्ट
न होकर जीवन की सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए। केवल एक ही दिशा में उन्नति के
लिए अत्यधिक प्रयत्न करना और अन्य दिशाओं की उपेक्षा करना और उनकी ओर से उदासीन
रहना उचित नहीं है।
·
मनुष्यता सबसे अधिक मूल्यवान है। उसकी रक्षा
करना प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का परम कर्तव्य है।
·
मां है मोहब्बत का नाम, मां से बिछुड़कर चैन कहाँ।
·
माँ का जीवन बलिदान का, त्याग का जीवन है। उसका बदला कोई भी पुत्र नहीं चुका सकता चाहे वह भूमंडल का
स्वामी ही क्यों न हो।
·
माँ-बेटी का रिश्ता इतना अनूठा, इतना अलग होता है कि उसकी व्याख्या करना मुश्किल है, इस रिश्ते से सदैव पहली बारिश की फुहारों-सी ताजगी रहती है, तभी तो माँ के साथ बिताया हर क्षण होता है अमिट, अलग उनके साथ
गुज़ारा हर पल शानदार होता है।
·
माता-पिता के चरणों में चारों धाम हैं। माता-पिता इस धरती के भगवान हैं।
·
माता-पिता का बच्चों के प्रति, आचार्य का शिष्यों के प्रति,
राष्ट्रभक्त का
मातृभूमि के प्रति ही सच्चा प्रेम है।
·
'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव' की संस्कृति अपनाओ!
·
मृत्यु दो बार नहीं आती और जब आने को होती है, उससे पहले भी नहीं आती है।
·
महान प्यार और महान उपलब्धियों के खतरे भी
महान होते हैं।
·
महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिये बहुत कष्ट
सहना पड़ता है, जो तप के समान होता है; क्योंकि ऊंचाई पर स्थिर रह पाना आसान काम नहीं है।
·
मानसिक शांति के लिये मन-शुद्धी, श्वास-शुद्धी एवं इन्द्रिय-शुद्धी का होना अति आवश्यक है।
·
मन की शांति के लिये अंदरूनी संघर्ष को बंद करना
ज़रूरी है, जब तक अंदरूनी युद्ध चलता रहेगा, शांति नहीं मिल सकती।
·
मन का नियन्त्रण मनुष्य का एक आवश्यक
कत्र्तव्य है।
·
मन-बुद्धि की भाषा है - मैं, मेरी, इसके बिना बाहर के जगत का कोई व्यवहार नहीं
चलेगा, अगर अंदर स्वयं को जगा लिया तो भीतर
तेरा-तेरा शुरू होने से व्यक्ति परम शांति प्राप्त कर लेता है।
·
मरते वे हैं, जो शरीर के सुख
और इन्द्रीय वासनाओं की तृप्ति के लिए रात-दिन खपते रहते हैं।
·
मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार भरे रहते
हैं वस्तुत: उसका संग्रह ही सच्ची परिस्थिति है। उसी के प्रभाव से जीवन की दिशाएँ
बनती और मुड़ती रहती हैं।
·
महात्मा वह है, जिसके सामान्य
शरीर में असामान्य आत्मा निवास करती है।
·
मानव जीवन की सफलता का श्रेय जिस महानता पर
निर्भर है, उसे एक शब्द में धार्मिकता कह सकते हैं।
·
मानवता की सेवा से बढ़कर और कोई बड़ा काम नहीं हो सकता।
·
मांसाहार मानवता को त्यागकर ही किया जा सकता
है।
·
मेहनत, हिम्मत और लगन
से कल्पना साकार होती है।
·
मुस्कान प्रेम की भाषा है।
·
मैं परमात्मा का प्रतिनिधि हूँ।
·
मैं माँ भारती का अमृतपुत्र हूँ, 'माता भूमि: पुत्रोहं प्रथिव्या:'।
·
मैं पहले माँ भारती का पुत्र हूँ, बाद में सन्यासी, ग्रहस्थ, नेता, अभिनेता, कर्मचारी, अधिकारी या
व्यापारी हूँ।
·
मैं सदा प्रभु में हूँ, मेरा प्रभु सदा मुझमें है।
·
मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मैंने इस पवित्र भूमि
व देश में जन्म लिया है।
·
मैं अपने जीवन पुष्प से माँ भारती की आराधना
करुँगा।
·
मैं पुरुषार्थवादी, राष्ट्रवादी, मानवतावादी व अध्यात्मवादी हूँ।
·
मैं मात्र एक व्यक्ति नहीं, अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र व देश की सभ्यता व संस्कृति की अभिव्यक्ति हूँ।
·
मेरे भीतर संकल्प की अग्नि निरंतर
प्रज्ज्वलित है। मेरे जीवन का पथ सदा प्रकाशमान है।
·
मेरे पूर्वज, मेरे स्वाभिमान
हैं।
·
मेरे मस्तिष्क में ब्रह्माण्ड सा तेज़, मेधा, प्रज्ञा व विवेक है।
·
मनोविकार भले ही छोटे हों या बड़े, यह शत्रु के समान हैं और प्रताड़ना के ही योग्य हैं।
·
मनोविकारों से परेशान, दु:खी, चिंतित मनुष्य के लिए उनके दु:ख-दर्द के समय
श्रेष्ठ पुस्तकें ही सहारा है।
·
महानता के विकास में अहंकार सबसे घातक शत्रु
है।
·
महानता का गुण न तो किसी के लिए सुरक्षित है
और न प्रतिबंधित। जो चाहे अपनी शुभेच्छाओं से उसे प्राप्त कर सकता है।
·
महापुरुषों का ग्रंथ सबसे बड़ा सत्संग है।
·
मात्र हवन, धूपबत्ती और जप
की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया मेंं कहीं नहीं है।
·
मजदूर के दो हाथ जो अर्जित कर सकते हैं वह
मालिक अपनी पूरी संपत्ति द्वारा भी प्राप्त नहीं कर सकता।
·
मेरा निराशावाद इतना सघन है कि मुझे
निराशावादियों की मंशा पर भी संदेह होता है।
·
मूर्ख व्यक्ति दूसरे को मूर्ख बनाने की चेष्टा
करके आसानी से अपनी मूर्खता सिद्ध कर देते हैं।
द
·
दुनिया में आलस्य को पोषण देने जैसा दूसरा
भयंकर पाप नहीं है।
·
दुनिया में भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक
चमकता हुआ हीरा है।
·
दुनिया में सफलता एक चीज़ के बदले में मिलती
है और वह है आदमी की उत्कृष्ट व्यक्तित्व।
·
दूसरों की निन्दा और त्रूटियाँ सुनने में
अपना समय नष्ट मत करो।
·
दूसरों की निन्दा करके किसी को कुछ नहीं मिला, जिसने अपने को सुधारा उसने बहुत कुछ पाया।
·
दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिए पसन्द नहीं।
·
दूसरों के साथ सदैव नम्रता, मधुरता, सज्जनता, उदारता एवं
सहृदयता का व्यवहार करें।
·
दूसरों के जैसे बनने के प्रयास में अपना
निजीपन नष्ट मत करो।
·
दूसरों की सबसे बड़ी सहायता यही की जा सकती
है कि उनके सोचने में जो त्रुटि है, उसे सुधार दिया
जाए।
·
दूसरों से प्रेम करना अपने आप से प्रेम करना है।
·
दूसरों को पीड़ा न देना ही मानव धर्म है।
·
दूसरों पर भरोसा लादे मत बैठे रहो। अपनी ही
हिम्मत पर खड़ा रह सकना और आगे बढ़् सकना संभव हो सकता है। सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।
·
दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं
को ही पाप का भागी बनना पड़ता है।
·
दुष्कर्मों के बढ़ जाने पर सच्चाई निष्क्रिय
हो जाती है, जिसके परिणाम स्वरुप वह राहत के बदले
प्रतिक्रया करना शुरू कर देती है।
·
दुष्कर्म स्वत: ही एक अभिशाप है, जो कर्ता को भस्म किये बिना नहीं रहता।
·
दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना
सच्चे क्षमा है।
·
दुःख देने वाले और हृदय को जलाने वाले बहुत
से पुत्रों से क्या लाभ? कुल को सहारा देने वाला एक पुत्र ही श्रेष्ठ
होता है।
·
दु:ख का मूल है पाप। पाप का परिणाम है-पतन, दु:ख, कष्ट, कलह और विषाद।
यह सब अनीति के अवश्यंभावी परिणाम हैं।
·
दिन में अधूरी इच्छा को व्यक्ति रात को
स्वप्न के रूप में देखता है,
इसलिए जितना मन
अशांत होगा, उतने ही अधिक स्वप्न आते हैं।
·
दो प्रकार की प्रेरणा होती है- एक बाहरी व
दूसरी अंतर प्रेरणा, आतंरिक प्रेरणा बहुत महत्त्वपूर्ण होती है; क्योंकि वह स्वयं की निर्मात्री होती है।
·
दो याद रखने योग्य हैं-एक कर्त्तव्य और दूसरा
मरण।
·
दान की वृत्ति दीपक की ज्योति के समान होनी
चाहिए, जो समीप से अधिक प्रकाश देती है और ऐसे दानी
अमरपद को प्राप्त करते हैं।
·
दरिद्रता कोई दैवी प्रकोप नहीं, उसे आलस्य, प्रमाद, अपव्यय एवं
दुर्गुणों के एकत्रीकरण का प्रतिफल ही करना चाहिए।
·
दिल खोलकर हँसना और मुस्कराते रहना चित्त को
प्रफुल्लित रखने की एक अचूक औषधि है।
·
दीनता वस्तुत: मानसिक हीनता का ही प्रतिफल
है।
·
दुष्ट चिंतन आग में खेलने की तरह है।
·
दैवी शक्तियों के अवतरण के लिए पहली शर्त है
- साधक की पात्रता, पवित्रता और प्रामाणिकता।
·
देवमानव वे हैं, जो आदर्शों के क्रियान्वयन की योजना बनाते और सुविधा की ललक-लिप्सा को
अस्वीकार करके युगधर्म के निर्वाह की काँटों भरी राह पर एकाकी चल पड़ते हैं।
·
दरिद्रता पैसे की कमी का नाम नहीं है, वरन् मनुष्य की कृपणता का नाम दरिद्रता है।
·
दुष्टता वस्तुत: पह्ले दर्जे की कायरता का ही
नाम है। उसमें जो आतंक दिखता है वह प्रतिरोध के अभाव से ही पनपता है। घर के बच्चें
भी जाग पड़े तो बलवान चोर के पैर उखड़ते देर नहीं लगती। स्वाध्याय से योग की
उपासना करे और योग से स्वाध्याय का अभ्यास करें। स्वाध्याय की सम्पत्ति से
परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
·
दया का दान लड़खड़ाते पैरा में नई शक्ति देना, निराश हृदय में जागृति की नई प्रेरणा फूँकना, गिरे हुए को
उठाने की सामथ्र्य प्रदान करना एवं अंधकार में भटके हुए को प्रकाश देना।
·
दृढ़ता हो, ज़िद्द नहीं।
बहादुरी हो, जल्दबाज़ी नहीं। दया हो, कमज़ोरी नहीं।
·
दृष्टिकोण की श्रेष्ठता ही वस्तुत: मानव जीवन
की श्रेष्ठता है।
·
दृढ़ आत्मविश्वास ही सफलता की एकमात्र कुंजी
है।
प
·
परमात्मा वास्तविक स्वरुप को न मानकर उसकी
कथित पूजा करना अथवा अपात्र को दान देना, ऐसे कर्म क्रमश:
कोई कर्म-फल प्राप्त नहीं कराते,
बल्कि पाप का
भागी बनाते हैं।
·
परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के समान अपने स्वयं के गुण, कर्म व स्वभावों
को समयानुसार धारण करना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है।
·
परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है।
चाहे उसका रंग वर्ण, कुल और गोत्र कुछ भी क्यों न हो।
·
परमात्मा जिसे जीवन में कोई विशेष
अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है,
उसकी बहुत-सी
सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है।
·
परमात्मा की सच्ची पूजा सद्व्यवहार है।
·
पिता सिखाते हैं पैरों पर संतुलन बनाकर व
ऊंगली थाम कर चलना, पर माँ सिखाती है सभी के साथ संतुलन बनाकर
दुनिया के साथ चलना, तभी वह अलग है, महान है।
·
पाप आत्मा का शत्रु है और सद्गुण आत्मा का
मित्र।
·
पाप अपने साथ रोग, शोक, पतन और संकट भी
लेकर आता है।
·
पाप की एक शाखा है - असावधानी।
·
पापों का नाश प्रायश्चित करने और इससे सदा
बचने के संकल्प से होता है।
·
पढ़ना एक गुण, चिंतन दो गुना, आचरण चौगुना करना चाहिए।
·
परोपकारी, निष्कामी और
सत्यवादी यानी निर्भय होकर मन,
वचन व कर्म से
सत्य का आचरण करने वाला देव है।
·
प्रेम करने का मतलब सम-व्यवहार ज़रूरी नहीं, बल्कि समभाव होना चाहिए,
जिसके लिये
घोड़े की लगाम की भाँति व्यवहार में ढील देना पड़ती है और कभी खींचना भी ज़रूरी हो
जाता है।
·
पूर्वजों के गुणों का अनुसरण करना ही उन्हें
सच्ची श्रद्धांजलि देना है।
·
पांच वर्ष की आयु तक पुत्र को प्यार करना
चाहिए। इसके बाद दस वर्ष तक इस पर निगरानी राखी जानी चाहिए और ग़लती करने पर उसे
दण्ड भी दिया जा सकता है, परन्तु सोलह वर्ष की आयु के बाद उससे मित्रता
कर एक मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए।
·
पूरी दुनिया में 350 धर्म हैं, हर धर्म का मूल तत्व एक ही है, परन्तु आज लोगों का धर्म की उपेक्षा
अपने-अपने भजन व पंथ से अधिक लगाव है।
·
परमार्थ मानव जीवन का सच्चा स्वार्थ है।
·
परोपकार से बढ़कर और निरापत दूसरा कोई धर्म
नहीं।
·
परावलम्बी जीवित तो रहते हैं, पर मृत तुल्य ही।
·
प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं बरसती, वह अंदर से जागती है और उसे जगाने के लिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त है।
·
पुण्य की जय-पाप की भी जय ऐसा समदर्शन तो
व्यक्ति को दार्शनिक भूल-भुलैयों में उलझा कर संसार का सर्वनाश ही कर देगा।
·
प्रतिभावान् व्यक्तित्व अर्जित कर लेना, धनाध्यक्ष बनने की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है।
·
पादरी, मौलवी और महंत
भी जब तक एक तरह की बात नहीं कहते, तो दो
व्यक्तियों में एकमत की आशा की ही कैसे जाए?
·
पग-पग पर शिक्षक मौजूद हैं, पर आज सीखना कौन चाहता है?
·
प्रकृतित: हर मनुष्य अपने आप में सुयोग्य एवं
समर्थ है।
·
प्रस्तुत उलझनें और दुष्प्रवृत्तियाँ कहीं
आसमान से नहीं टपकीं। वे मनुष्य की अपनी बोयी, उगाई और बढ़ाई
हुई हैं।
·
पूरी तरह तैरने का नाम तीर्थ है। एक मात्र
पानी में डुबकी लगाना ही तीर्थस्नान नहीं।
·
प्रचंड वायु में भी पहाड़ विचलित नहीं होते।
·
प्रसन्नता स्वास्थ्य देती है, विषाद रोग देते हैं।
·
प्रसन्न करने का उपाय है, स्वयं प्रसन्न रहना।
·
प्रत्येक अच्छा कार्य पहले असम्भव नज़र आता
है।
·
प्रकृति के सब काम धीरे-धीरे होते हैं।
·
प्रकृति के अनुकूल चलें, स्वस्थ रहें।
·
प्रकृति जानवरों तक को अपने मित्र पहचानने की
सूझ-बूझ दे देती है।
·
प्रत्येक जीव की आत्मा में मेरा परमात्मा
विराजमान है।
·
पराक्रमशीलता, राष्ट्रवादिता, पारदर्शिता, दूरदर्शिता, आध्यात्मिक, मानवता एवं विनयशीलता मेरी कार्यशैली के आदर्श हैं।
·
पवित्र विचार-प्रवाह ही जीवन है तथा
विचार-प्रवाह का विघटन ही मृत्यु है।
·
पवित्र विचार प्रवाह ही मधुर व प्रभावशाली
वाणी का मूल स्रोत है।
·
प्रेम, वासना नहीं
उपासना है। वासना का उत्कर्ष प्रेम की हत्या है, प्रेम समर्पण
एवं विश्वास की परकाष्ठा है।
·
प्रखर और सजीव आध्यात्मिकता वह है, जिसमें अपने आपका निर्माण दुनिया वालों की अँधी भेड़चाल के अनुकरण से नहीं, वरन् स्वतंत्र विवेक के आधार पर कर सकना संभव हो सके।
·
प्रगति के लिए संघर्ष करो। अनीति को रोकने के
लिए संघर्ष करो और इसलिए भी संघर्ष करो कि संघर्ष के कारणों का अन्त हो सके।
·
पढ़ने का लाभ तभी है जब उसे व्यवहार में लाया
जाए।
·
परोपकार से बढ़कर और निरापद दूसरा कोई धर्म
नहीं।
·
प्रशंसा और प्रतिष्ठा वही सच्ची है, जो उत्कृष्ट कार्य करने के लिए प्राप्त हो।
·
प्रसुप्त देवत्व का जागरण ही सबसे बड़ी ईश्वर
पूजा है।
·
प्रतिकूल परिस्थितियों करके ही दूसरों को
सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।
·
प्रतिकूल परिस्थिति में भी हम अधीर न हों।
·
परिश्रम ही स्वस्थ जीवन का मूलमंत्र है।
·
परिवार एक छोटा समाज एवं छोटा राष्ट्र है।
उसकी सुव्यवस्था एवं शालीनता उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी बड़े रूप में समूचे
राष्ट्र की।
·
परिजन हमारे लिए भगवान की प्रतिकृति हैं और
उनसे अधिकाधिक गहरा प्रेम प्रसंग बनाए रखने की उत्कंठा उमड़ती रहती है। इस वेदना
के पीछे भी एक ऐसा दिव्य आनंद झाँकता है इसे भक्तियोग के मर्मज्ञ ही जान सकते हैं।
·
प्रगतिशील जीवन केवल वे ही जी सकते हैं, जिनने हृदय में कोमलता, मस्तिष्क में तीष्णता, रक्त में उष्णता और स्वभाव में दृढ़ता का समुतिच समावेश कर लिया है।
·
परमार्थ के बदले यदि हमको कुछ मूल्य मिले, चाहे वह पैसे के रूप में प्रभाव, प्रभुत्व व
पद-प्रतिष्ठा के रूप में तो वह सच्चा परमार्थ नहीं है। इसे कत्र्तव्य पालन कह सकते
हैं।
·
पराये धन के प्रति लोभ पैदा करना अपनी हानि
करना है।
·
पेट और मस्तिष्क स्वास्थ्य की गाड़ी को ठीक
प्रकार चलाने वाले दो पहिए हैं। इनमें से एक बिगड़ गया तो दूसरा भी बेकार ही बना
रहेगा।
·
पुण्य-परमार्थ का कोई अवसर टालना नहीं चाहिए; क्योंकि अगले क्षण यह देह रहे या न रहे क्या ठिकाना।
·
पराधीनता समाज के समस्त मौलिक निमयों के
विरुद्ध है।
·
पति को कभी कभी अँधा और कभी कभी बहरा होना
चाहिए।
·
प्रत्येक मनुष्य को जीवन में केवल अपने भाग्य
की परिक्षा का अवसर मिलता हे। वही भविष्य का निर्णय कर देता है।
·
प्रत्येक अच्छा कार्य पहले असंभव नजर आता है।
·
पड़े पड़े तो अच्छे से अच्छे फौलाद में भी
जंग लग जाता है, निष्क्रिय हो जाने से, सारी दैवीय शक्तियां स्वत: मनुष्य का साथ छोड़ देतीं हैं।
·
प्रति पल का उपयोग करने वाले कभी भी पराजित
नहीं हो सकते, समय का हर क्षण का उपयोग मनुष्य को विलक्षण
और अदभुत बना देता है।
·
प्रवीण व्यक्ति वही होता हें जो हर प्रकार की
परिस्थितियों में दक्षता से काम कर सके।
व
·
व्रतों से सत्य सर्वोपरि है।
·
विधा, बुद्धि और ज्ञान
को जितना खर्च करो, उतना ही बढ़ते हैं।
·
वह सत्य नहीं जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया
युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिसमें मनुष्य का हित होता हो, वही सत्य है।
·
वह स्थान मंदिर है, जहाँ पुस्तकों के रूप में मूक; किन्तु ज्ञान की
चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं।
·
वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है।
·
वही सबसे तेज़ चलता है, जो अकेला चलता है।
·
वही जीवति है, जिसका मस्तिक ठण्डा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है।
·
वे माता-पिता धन्य हैं, जो अपनी संतान के लिए उत्तम पुस्तकों का एक संग्रह छोड़ जाते हैं।
·
व्यक्ति का चिंतन और चरित्र इतना ढीला हो गया
है कि स्वार्थ के लिए अनर्थ करने में व्यक्ति चूकता नहीं।
·
व्यक्ति दौलत से नहीं, ज्ञान से अमीर होता है।
·
वर्ण, आश्रम आदि की जो
विशेषता है, वह दूसरों की सेवा करने के लिए है, अभिमान करने के लिए नहीं।
·
विवेकशील व्यक्ति उचित अनुचित पर विचार करता
है और अनुचित को किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं करता।
·
व्यक्तित्व की अपनी वाणी है, जो जीभ या कलम का इस्तेमाल किये बिना भी लोगों के अंतराल को छूती है।
·
वह मनुष्य विवेकवान् है, जो भविष्य से न तो आशा रखता है और न भयभीत ही होता है।
·
विपरीत प्रतिकूलताएँ नेता के आत्म विश्वास को
चमका देती हैं।
·
विपरीत दिशा में कभी न घबराएं, बल्कि पक्की ईंट की तरह मज़बूत बनना चाहिय और जीवन की हर चुनौती को परीक्षा
एवं तपस्या समझकर निरंतर आगे बढना चाहिए।
·
विवेक बहादुरी का उत्तम अंश है।
·
विवेक और पुरुषार्थ जिसके साथी हैं, वही प्रकाश प्राप्त करेंगे।
·
विश्वास से आश्चर्य-जनक प्रोत्साहन मिलता है।
·
विचार शहादत, कुर्बानी, शक्ति, शौर्य, साहस व
स्वाभिमान है। विचार आग व तूफ़ान है, साथ ही शान्ति व
सन्तुष्टी का पैगाम है।
·
विचार ही सम्पूर्ण खुशियों का आधार हैं।
·
विचारों की अपवित्रता ही हिंसा, अपराध, क्रूरता, शोषण, अन्याय, अधर्म और भ्रष्टाचार का कारण है।
·
विचारों की पवित्रता ही नैतिकता है।
·
विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक
रसायन है।
·
विचारों का ही परिणाम है - हमारा सम्पूर्ण
जीवन। विचार ही बीज है, जीवनरुपी इस व्रक्ष का।
·
विचारों को कार्यरूप देना ही सफलता का रहस्य
है।
·
विचारवान व संस्कारवान ही अमीर व महान है तथा
विचारहीन ही कंगाल व दरिद्र है।
·
विचारशीलता ही मनुष्यता और विचारहीनता ही
पशुता है।
·
वैचारिक दरिद्रता ही देश के दुःख, अभाव पीड़ा व अवनति का कारण है। वैचारिक दृढ़ता ही देश की सुख-समृद्धि व विकास
का मूल मंत्र है।
·
विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं
रह सकता। - वाङ्गमय
·
विद्या वह अच्छी, जिसके पढ़ने से बैर द्वेष भूल जाएँ। जो विद्वान बैर द्वेष रखता है, यह जैसा पढ़ा, वैसा न पढ़ा।
·
वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं - स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण।
·
विषयों, व्यसनों और
विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है।
·
वत मत करो, जिसके लिए पीछे
पछताना पड़े।
·
व्यसनों के वश में होकर अपनी महत्ता को खो
बैठे वह मूर्ख है।
·
वृद्धावस्था बीमारी नहीं, विधि का विधान
है, इस दौरान सक्रिय रहें।
·
वाणी नहीं, आचरण एवं
व्यक्तित्व ही प्रभावशाली उपदेश है
·
व्यक्तिगत स्वार्थों का उत्सर्ग सामाजिक
प्रगति के लिए करने की परम्परा जब तक प्रचलित न होगी, तब तक कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों में सामथ्र्यवान् नहीं बन सकता है। -वाङ्गमय
·
वासना और तृष्णा की कीचड़ से जिन्होंने अपना
उद्धार कर लिया और आदर्शों के लिए जीवित रहने का जिन्होंने व्रत धारण कर लिया वही
जीवन मुक्त है।
·
व्यक्तिवाद के प्रति उपेक्षा और समूहवाद के
प्रति निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों का समाज ही समुन्नत होता है।
·
विपत्ति से असली हानि उसकी उपस्थिति से नहीं
होती, जब मन:स्थिति उससे लोहा लेने में असमर्थता
प्रकट करती है तभी व्यक्ति टूटता है और हानि सहता है।
·
विपन्नता की स्थिति में धैर्य न छोड़ना
मानसिक संतुलन नष्ट न होने देना,
आशा पुरुषार्थ
को न छोड़ना, आस्तिकता अर्थात् ईश्वर विश्वास का प्रथम
चिन्ह है।
·
वहाँ मत देखो जहाँ आप गिरे। वहाँ देखो जहाँ
से आप फिसले।
·
विद्वत्ता युवकों को संयमी बनाती है। यह
बुढ़ापे का सहारा है, निर्धनता में धन है, और धनवानों के लिए आभूषण है।
य
·
यदि तुम फूल चाहते हो तो जल से पौधों को
सींचना भी सीखो।
·
यदि कोई दूसरों की जिन्दगी को खुशहाल बनाता
है तो उसकी जिन्दगी अपने आप खुशहाल बन जाती है।
·
यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की
निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों
को सुनना भी महान पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा।
·
यदि व्यक्ति के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह
नैतिकता से भटकता नहीं है।
·
यदि पुत्र विद्वान और माता-पिता की सेवा करने
वाला न हो तो उसका धरती पर जन्म लेना व्यर्थ है।
·
यदि ज़्यादा पैसा कमाना हाथ की बात नहीं तो
कम खर्च करना तो हाथ की बात है;
क्योंकि खर्चीला
जीवन बनाना अपनी स्वतन्त्रता को खोना है।
·
यदि सज्जनो के मार्ग पर पुरा नहीं चला जा
सकता तो थोडा ही चले। सन्मार्ग पर चलने वाला पुरूष नष्ट नहीं होता।
·
यदि आपको मरने का डर है, तो इसका यही अर्थ है, की आप जीवन के महत्त्व को ही नहीं समझते।
·
यदि आपको कोई कार्य कठिन लगता है तो इसका
अर्थ है कि आप उस कार्य को गलत तरीके से कर रहे हैं।
·
यदि बचपन व माँ की कोख की याद रहे, तो हम कभी भी माँ-बाप के कृतघ्न नहीं हो सकते। अपमान की ऊचाईयाँ छूने के बाद
भी अतीत की याद व्यक्ति के ज़मीन से पैर नहीं उखड़ने देती।
·
यदि मनुष्य कुछ सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है।
·
यदि उपयोगी और महत्वपूर्ण बन कर विश्व में
सम्मानित रहना है तो सबके काम के बनो और सदा सक्रिय रहो।
·
यह सच है कि सच्चाई को अपनाना बहुत अच्छी बात
है, लेकिन किसी सच से दूसरे का नुकसान होता हो तो, ऐसा सच बोलते समय सौ बार सोच लेना चाहिए।
·
यह संसार कर्म की कसौटी है। यहाँ मनुष्य की
पहचान उसके कर्मों से होती है।
·
यह आपत्तिकालीन समय है। आपत्ति धर्म का अर्थ
है-सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए
मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है।
·
युग निर्माण योजना का लक्ष्य है - शुचिता, पवित्रता, सच्चरित्रता, समता, उदारता, सहकारिता उत्पन्न करना। - वाङ्गमय
·
युग निर्माण योजना का आरम्भ दूसरों को उपदेश
देने से नहीं, वरन् अपने मन को समझाने से शुरू होगा।
·
यज्ञ, दान और तप से
त्याग करने योग्य कर्म ही नहीं,
अपितु अनिवार्य
कर्त्तव्य कर्म भी हैं; क्योंकि यज्ञ, दान व तप
बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले हैं।
·
यथार्थ को समझना ही सत्य है। इसी को विवेक
कहते हैं।
·
योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो,
वह बहुत अधिक
महत्त्वपूर्ण है।
·
योग्यता आपको सफलता की ऊँचाई तक पहुँचा सकती
है किन्तु चरित्र आपको उस ऊँचाई पर बनाये रखती है।
·
या तो हाथीवाले से मित्रता न करो, या फिर ऐसा मकान बनवाओ जहां उसका हाथी आकर खड़ा हो सके।
ब
·
बुद्धिमान बनने का तरीका यह है कि आज हम
जितना जानते हैं, भविष्य में उससे अधिक जानने के लिए
प्रयत्नशील रहें।
·
बुद्धिमान वह है, जो किसी को ग़लतियों से हानि होते देखकर अपनी ग़लतियाँ सुधार लेता है।
·
बड़प्पन बड़े आदमियों के संपर्क से नहीं, अपने गुण, कर्म और स्वभाव की निर्मलता से मिला करता है।
·
बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है।
·
बड़प्पन सादगी और शालीनता में है।
·
बाहर मैं, मेरा और अंदर तू, तेरा, तेरी के भाव के साथ जीने का आभास जिसे हो गया, वह उसके जीवन की एक महान व उत्तम प्राप्ति है।
·
बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता।
·
बिना सेवा के चित्त शुद्धि नहीं होती और
चित्तशुद्धि के बिना परमात्मतत्व की अनुभूति नहीं होती।
·
बिना अनुभव के कोरा शाब्दिक ज्ञान अंधा है।
·
बहुमूल्य समय का सदुपयोग करने की कला जिसे आ
गई उसने सफलता का रहस्य समझ लिया।
·
बहुमूल्य वर्तमान का सदुपयोग कीजिए।
·
बच्चे की प्रथम पाठशाला उसकी माता की गोद में
होती है।
·
ब्रह्म विद्या मनुष्य को ब्रह्म - परमात्मा
के चरणों में बिठा देती है और चित्त की मूर्खता छुडवा देती है।
·
बुरी मंत्रणा से राजा, विषयों की आसक्ति से योगी,
स्वाध्याय न
करने से विद्वान, अधिक प्यार से पुत्र, दुष्टों की संगती से चरित्र,
प्रदेश में रहने
से प्रेम, अन्याय से ऐश्वर्य, प्रेम न होने से मित्रता तथा प्रमोद से धन नष्ट हो जाता है; अतः बुद्धिमान अपना सभी प्रकार का धन संभालकर रखता है, बुरे समय का हमें हमेशा ध्यान रहता है।
·
बुराई मनुष्य के बुरे कर्मों की नहीं, वरन् बुरे विचारों की देन होती है।
·
बुराई के अवसर दिन में सौ बार आते हैं तो
भलाई के साल में एकाध बार।
·
बहुमत की आवाज़ न्याय का द्योतक नहीं है।
·
बाह्य जगत में प्रसिद्धि की तीव्र लालसा का
अर्थ है-तुम्हें आन्तरिक सम्रध्द व शान्ति उपलब्ध नहीं हो पाई है।
·
बुढ़ापा आयु नहीं, विचारों का परिणाम है।
·
बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है।
·
बातचीत का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह होता है
कि ध्यानपूर्वक यह सुना जाए कि कहा क्या जा रहा है।
श
·
शुभ कार्यों को कल के लिए मत टालिए, क्योंकि कल कभी आता नहीं।
·
शुभ कार्यों के लिए हर दिन शुभ और अशुभ
कार्यों के लिए हर दिना अशुभ है।
·
शक्ति उनमें होती है, जिनकी कथनी और करनी एक हो,
जो प्रतिपादन
करें, उनके पीछे मन, वचन और कर्म का
त्रिविध समावेश हो।
·
शालीनता बिना मूल्य मिलती है, पर उससे सब कुछ ख़रीदा जा सकता है।
·
शत्रु की घात विफल हो सकती है, किन्तु आस्तीन के साँप बने मित्र की घात विफल नहीं होती।
·
शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार
की आवश्यकता होती है। इसलिए अंग्रेज़ी और संस्कृत का अध्ययन मन लगाकर करो।
·
शरीर स्वस्थ और निरोग हो, तो ही व्यक्ति दिनचर्या का पालन विधिवत कर सकता है, दैनिक कार्य और श्रम कर सकता है।
·
शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने
आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया,
उससे बढ़कर
अभागा एवं दुबुद्धि और कौन हो सकता है?
·
शिक्षा का स्थान स्कूल हो सकते हैं, पर दीक्षा का स्थान तो घर ही है।
·
शिक्षक राष्ट्र मंदिर के कुशल शिल्पी हैं।
·
शिक्षक नई पीढ़ी के निर्माता होत हैं।
·
शूरता है सभी परिस्थितियों में परम सत्य के
लिए डटे रह सकना, विरोध में भी उसकी घोषण करना और जब कभी
आवश्यकता हो तो उसके लिए युद्ध करना।
ज्ञ
·
ज्ञान मूर्खता छुडवाता है और परमात्मा का सुख
देता है। यही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है।
·
ज्ञान अक्षय है। उसकी प्राप्ति मनुष्य शय्या
तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिए।
·
ज्ञान ही धन और ज्ञान ही जीवन है। उसके लिए
किया गया कोई भी बलिदान व्यर्थ नहीं जाता।
·
ज्ञान और आचरण में बोध और विवेक में जो
सामञ्जस्य पैदा कर सके उसे ही विद्या कहते हैं।
·
ज्ञान के नेत्र हमें अपनी दुर्बलता से परिचित
कराने आते हैं। जब तक इंद्रियों में सुख दीखता है, तब तक आँखों पर
पर्दा हुआ मानना चाहिए।
·
ज्ञान से एकता पैदा होती है और अज्ञान से
संकट।
·
ज्ञान का अर्थ मात्र जानना नहीं, वैसा हो जाना है।
·
ज्ञान का अर्थ है - जानने की शक्ति। सच को झूठ को सच से पृथक् करने वाली जो विवेक
बुद्धि है- उसी का नाम ज्ञान है।
·
ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना
चाहिए।
·
ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों में और
कोई दान नहीं।
·
ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान
बनता है।
·
ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए।
·
ज्ञान का जितना भाग व्यवहार में लाया जा सके
वही सार्थक है, अन्यथा वह गधे पर लदे बोझ के समान है।
·
ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही है।
·
ज्ञान और आचरण में जो सामंजस्य पैदा कर सके, उसे ही विद्या कहते हैं।
·
ज्ञान मुक्त करता है, पर ज्ञान का अभिमान नरकों में ले जाता है।
·
ज्ञानयोगी की तरह सोचें, कर्मयोगी की तरह पुरुषार्थ करें और भक्तियोगी की तरह सहृदयता उभारें।
·
ज्ञानीजन विद्या विनय युक्त ब्राम्हण तथा गौ
हाथी कुत्ते और चाण्डाल मे भी समदर्शी होते हैं।
न
·
न तो दरिद्रता में मोक्ष है और न सम्पन्नता
में, बंधन धनी हो या निर्धन दोनों ही स्थितियों
में ज्ञान से मोक्ष मिलता है।
·
न तो किसी तरह का कर्म करने से नष्ट हुई
वस्तु मिल सकती है, न चिंता से। कोई ऐसा दाता भी नहीं है, जो मनुष्य को विनष्ट वस्तु दे दे, विधाता के विधान
के अनुसार मनुष्य बारी-बारी से समय पर सब कुछ पा लेता है।
·
नेतृत्व पहले विशुद्ध रूप से सेवा का मार्ग
था। एक कष्ट साध्य कार्य जिसे थोड़े से सक्षम व्यक्ति ही कर पाते थे।
·
नेतृत्व ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है, क्योंकि वह प्रामाणिकता,
उदारता और
साहसिकता के बदले ख़रीदा जाता है।
·
नेतृत्व का अर्थ है वह वर्चस्व जिसके सहारे परिचितों
और अपरिचितों को अंकुश में रखा जा सके, अनुशासन में
चलाया जा सके।
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निश्चित रूप से ध्वंस सरल होता है और निर्माण
कठिन है।
·
नरक कोई स्थान नहीं, संकीर्ण स्वार्थपरता की और निकृष्ट दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया मात्र है।
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नेता शिक्षित और सुयोग्य ही नहीं, प्रखर संकल्प वाला भी होना चाहिए, जो अपनी कथनी और
करनी को एकरूप में रख सके।
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नास्तिकता ईश्वर की अस्वीकृति को नहीं, आदर्शों की अवहेलना को कहते हैं।
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निरंकुश स्वतंत्रता जहाँ बच्चों के विकास में
बाधा बनती है, वहीं कठोर अनुशासन भी उनकी प्रतिभा को कुंठित
करता है।
·
निष्काम कर्म, कर्म का अभाव
नहीं, कर्तृत्व के अहंकार का अभाव होता है।
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'न' के लिए अनुमति नहीं है।
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निन्दक दूसरों के आर-पार देखना पसन्द करता है, परन्तु खुद अपने आर-पार देखना नहीं चाहता।
·
नित्य गायत्री जप, उदित होते स्वर्णिम सविता का ध्यान, नित्य यज्ञ, अखण्ड दीप का सान्निध्य,
दिव्यनाद की
अवधारणा, आत्मदेव की साधना की दिव्य संगम स्थली है-
शांतिकुञ्ज गायत्री तीर्थ।
·
निरभिमानी धन्य है; क्योंकि उन्हीं के हृदय में ईश्वर का निवास होता है।
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निकृष्ट चिंतन एवं घृणित कर्तृत्व हमारी गौरव
गरिमा पर लगा हुआ कलंक है। - वाङ्गमय
·
नैतिकता, प्रतिष्ठाओं में
सबसे अधिक मूल्यवान् है।
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नर और नारी एक ही आत्मा के दो रूप है।
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नारी का असली श्रृंगार, सादा जीवन उच्च विचार।
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नाव स्वयं ही नदी पार नहीं करती। पीठ पर
अनेकों को भी लाद कर उतारती है। सन्त अपनी सेवा भावना का उपयोग इसी प्रकार किया
करते हैं।
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नौकर रखना बुरा है लेकिन मालिक रखना और भी
बुरा है।
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निराशापूर्ण विचार ही आपकी अवनति के कारण है।
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न्याय नहीं बल्कि त्याग और केवल त्याग ही
मित्रता का नियम है।
ह
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हर शाम में एक जीवन का समापन हो रहा है और हर
सवेरे में नए जीवन की शुरुआत होती है।
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हर व्यक्ति संवेदनशील होता है, पत्थर कोई नहीं होता; लेकिन सज्जन व्यक्ति पर बाहरी प्रभाव पानी की
लकीर की भाँति होता है।
·
हर व्यक्ति जाने या अनजाने में अपनी
परिस्थितियों का निर्माण आप करता है।
·
हर दिन वर्ष का सर्वोत्तम दिन है।
·
हर चीज़ बदलती है, नष्ट कोई चीज़ नहीं होती।
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हर मनुष्य का भाग्य उसकी मुट्ठी में है।
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हर वक्त, हर स्थिति में
मुस्कराते रहिये, निर्भय रहिये, कत्र्तव्य करते
रहिये और प्रसन्न रहिये।
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हमारा शरीर ईश्वर के मन्दिर के समान है, इसलिये इसे स्वस्थ रखना भी एक तरह की इश्वर - आराधना है।
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हीन से हीन प्राणी में भी एकाध गुण होते हैं।
उसी के आधार पर वह जीवन जी रहा है।
·
हमें अपने अभाव एवं स्वभाव दोनों को ही ठीक
करना चाहिए; क्योंकि ये दोनों ही उन्नति के रास्ते में
बाधक होते हैं।
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हमारे शरीर को नियमितता भाती है, लेकिन मन सदैव परिवर्तन चाहता है।
·
हमारे वचन चाहे कितने भी श्रेष्ठ क्यों न हों, परन्तु दुनिया हमें हमारे कर्मों के द्वारा पहचानती है।
·
हमारे सुख-दुःख का कारण दूसरे व्यक्ति या
परिस्थितियाँ नहीं अपितु हमारे अच्छे या बूरे विचार होते हैं।
·
हमारा जीना व दुनियाँ से जाना ही गौरवपूर्ण
होने चाहिए।
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हँसती-हँसाती जिन्दगी ही सार्थक है।
·
हम क्या करते हैं, इसका महत्त्व कम है; किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं इसका बहुत
महत्त्व है।
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हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने
और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें इसी में अपना व मानव
मात्र का कल्याण है।
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हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे। - वाङ्गमय
·
हम आमोद-प्रमोद मनाते चलें और आस-पास का समाज
आँसुओं से भीगता रहे, ऐसी हमारी हँसी-खुशी को धिक्कार है।
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हम मात्र प्रवचन से नहीं अपितु आचरण से
परिवर्तन करने की संस्कृति में विश्वास रखते हैं।
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हम किसी बड़ी खुशी के इन्तिजार में छोटी-छोटी
खुशियों को नजरअन्दाज कर देते हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि छोटी-छोटी खुशियाँ
ही मिलकर एक बड़ी खुशी बनती है। इसलिए छोटी-छोटी खुशियों का आनन्द लीजिए, बाद में जब आप उन्हें याद करेंगे तो वही आपको बड़ी खुशियाँ लगेंगी।
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हमारी कितने रातें सिसकते बीती हैं - कितनी
बार हम फूट-फूट कर रोये हैं इसे कोई कहाँ जानता है? लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं, कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता, समझा हैं। कोई उसे देख सका होता तो उसे
मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा
भर इस हड्डियों के ढ़ाँचे में बैठी बिलखती दिखाई पड़ती है।
·
हम स्वयं ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रियाकलाप अंदर और बाहर से उसी स्तर
के बनें जैसा हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं।
·
हे मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, कत्र्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग।
दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़।
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हाथी कभी भी अपने दाँत को ढोते हुए नहीं
थकता।
ध
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धर्म का मार्ग फूलों सेज नहीं,
इसमें बड़े-बड़े
कष्ट सहन करने पड़ते हैं।
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धर्म अंत:करण को प्रभावित और प्रशासित करता
है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है। - वाङ्गमय
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धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही
अवतार और उसके अनुयायियों का कत्र्तव्य है। इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उइानी पड़ती हो।
·
धर्म को आडम्बरयुक्त मत बनाओ, वरन् उसे अपने जीवन में धुला डालो। धर्मानुकूल ही सोचो और करो। शास्त्र की
उक्ति है कि रक्षा किया हुआ धर्म अपनी रक्षा करता है और धर्म को जो मारता है, धर्म उसे मार डालता है, इस तथ्य को।
·
धर्मवान् बनने का विशुद्ध अर्थ बुद्धिमान, दूरदर्शी, विवेकशील एवं सुरुचि सम्पन्न बनना ही है।
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धीरे बोल, जल्दी सोचों और
छोटे-से विवाद पर पुरानी दोस्ती कुर्बान मत करो।
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धन अच्छा सेवक भी है और बुरा मालिक भी।
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ध्यान-उपासना के द्वारा जब तुम ईश्वरीय
शक्तियों के संवाहक बन जाते हो,
तब तुम्हें निमित्त
बनाकर भागवत शक्ति कार्य कर रही होती है।
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धन अपना पराया नहीं देखता।
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धनवाद नहीं, चरित्रवान सुख
पाते हैं।
·
धैर्य, अनुद्वेग, साहस, प्रसन्नता, दृढ़ता और समता
की संतुलित स्थिति सदेव बनाये रखें।
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धरती पर स्वर्ग अवतरित करने का प्रारम्भ सफाई
और स्वच्छता से करें।
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ध्यान में रखकर ही अपने जीवन का नीति
निर्धारण किया जाना चाहिए।
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धन्य है वे जिन्होंने करने के लिए अपना काम
प्राप्त कर लिया है और वे उसमें लीन है। अब उन्हें किसी और वरदान की याचना नहीं
करना चाहिए।
भ
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भगवान से निराश कभी मत होना, संसार से आशा कभी मत करना; क्योंकि संसार स्वार्थी है। इसका नमूना तुम्हारा खुद शरीर है।
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भगवान की दण्ड संहिता में असामाजिक
प्रवृत्ति भी अपराध है।
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भगवान को घट-घट वासी और न्यायकारी मानकर
पापों से हर घड़ी बचते रहना ही सच्ची भक्ति है।
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भगवान को अनुशासन एवं सुव्यवस्थितपना बहुत
पसंद है। अतः उन्हें ऐसे लोग ही पसंद आते हैं, जो सुव्यवस्था व
अनुशासन को अपनाते हैं।
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भगवान प्रेम के भूखे हैं, पूजा के नहीं।
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भगवान सदा हमें हमारी क्षमता, पात्रता व श्रम से अधिक ही प्रदान करते हैं।
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भगवान जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं।
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भगवान के काम में लग जाने वाले कभी घाटे में
नहीं रह सकते।
·
भगवान की सच्ची पूजा सत्कर्मों में ही हो
सकती है।
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भगवान आदर्शों, श्रेष्ठताओं के
समूच्चय का नाम है। सिद्धान्तों के प्रति मनुष्य के जो त्याग और बलिदान है, वस्तुत: यही भगवान की भक्ति है।
·
भगवान भावना की उत्कृष्टता को ही प्यार करता
है और सर्वोत्तम सद्भावना का एकमात्र प्रमाण जनकल्याण के कार्यों में बढ़-चढ़कर
योगदान करना है।
·
भगवान का अवतार तो होता है, परन्तु वह निराकार होता है। उनकी वास्तविक शक्ति जाग्रत् आत्मा होती है, जो भगवान का संदेश प्राप्त करके अपना रोल अदा करती है।
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भाग्य को मनुष्य स्वयं बनाता है, ईश्वर नहीं।
·
भाग्य साहसी का साथ देता है।
·
भाग्य पर नहीं, चरित्र पर
निर्भर रहो।
·
भाग्य भरोसे बैठे रहने वाले आलसी सदा दीन-हीन
ही रहेंगे।
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भाग्यशाली होते हैं वे, जो अपने जीवन के संघर्ष के बीच एक मात्र सहारा परमात्मा को मानते हुए आगे
बढ़ते जाते हैं।
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भले बनकर तुम दूसरों की भलाई का कारण भी बन
जाते हो।
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भले ही आपका जन्म सामान्य हो, आपकी मृत्यु इतिहास बन सकती है।
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भीड़ में खोया हुआ इंसान खोज लिया जाता है, परन्तु विचारों की भीड़ के बीहड़ में भटकते हुए इंसान का पूरा जीवन अंधकारमय
हो जाता है।
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भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ
हीरा है।
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भूत लौटने वाला नहीं, भविष्य का कोई निश्चय नहीं;
सँभालने और
बनाने योग्य तो वर्तमान है।
·
भूत इतिहास होता है, भविष्य रहस्य होता है और वर्तमान ईश्वर का वरदान होता है।
ल
·
लोगों को चाहिए कि इस जगत में मनुष्यता धारण
कर उत्तम शिक्षा, अच्छा स्वभाव, धर्म, योग्याभ्यास और विज्ञान का सम्यक ग्रहण करके सुख का प्रयत्न करें, यही जीवन की सफलता है।
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लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा
देहान्त आज हो या एक युग मे,
तुम न्यायपथ से
कभी भ्रष्ट न हो।
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लोग क्या कहते हैं - इस पर ध्यान मत दो।
सिर्फ़ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बनपड़ा या
नहीं?
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लोकसेवी नया प्रजनन बंद कर सकें, जितना हो चुका उसी के निर्वाह की बात सोचें तो उतने भर से उन समस्याओं का आधा
समाधान हो सकता है जो पर्वत की तरह भारी और विशालकाय दीखती है।
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लोभ आपदा की खाई है संतोष आनन्द का कोष।
·
लज्जा से रहित व्यक्ति ही स्वार्थ के साधक
होते हैं।
·
लकीर के फ़कीर बनने से अच्छा है कि आत्महत्या
कर ली जाये, लीक लीक गाड़ी चले, लीक ही चलें कपूत । लीक छोड़ तीनों चलें शायर, सिंह, सपूत ।।
र
·
रोग का सूत्रपान मानव मन में होता है।
·
राष्ट्र निर्माण जागरूक बुद्धिजीवियों से ही
संभव है।
·
राष्ट्रोत्कर्ष हेतु संत समाज का योगदान
अपेक्षित है।
·
राष्ट्र को समृद्ध और शक्तिशाली बनाने के लिए
आदर्शवाद, नैतिकता, मानवता, परमार्थ, देश भक्ति एवं समाज निष्ठा की भावना की
जागृति नितान्त आवश्यक है।
·
राष्ट्रीय स्तर की व्यापक समस्याएँ नैतिक
दृष्टि धूमिल होने और निकृष्टता की मात्रा बढ़ जाने के कारण ही उत्पन्न होती है।
·
राष्ट्र के नव निर्माण में अनेकों घटकों का
योगदान होता है। प्रगति एवं उत्कर्ष के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास चलते और उसके
अनुरूप सफलता-असफलताएँ भी मिलती हैं।
·
राष्ट्रों, राज्यों और
जातियों के जीवन में आदिकाल से उल्लेखनीय धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्रान्तियाँ हुई हैं। उन परिस्थितियों में श्रेय भले
ही एक व्यक्ति या वर्ग को मार्गदर्शन को मिला हो, सच्ची बात यह
रही है कि बुद्धिजीवियों, विचारवान् व्यक्तियों ने उन क्रान्तियों को
पैदा किया, जन-जन तक फैलाया और सफल बनाया।
·
राष्ट्र का विकास, बिना आत्म बलिदान के नहीं हो सकता।
·
राग-द्वेष की भावना अगर प्रेम, सदाचार और कर्त्तव्य को महत्त्व दें तो, मन की सभी
समस्याओं का समाधान हो सकता है।
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राष्ट्र को बुराइयों से बचाये रखने का
उत्तरदायित्व पुरोहितों का है।
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राजा यदि लोभी है तो दरिद्र से दरिद्र है और
दरिद्र यदि दिल का उदार है तो राजा से भी सुखी है।
श्र
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श्रम और तितिक्षा से शरीर मज़बूत बनता है।
·
श्रेष्ठता रहना देवत्व के समीप रहना है।
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श्रद्धा की प्रेरणा है - श्रेष्ठता के प्रति
घनिष्ठता, तन्मयता एवं समर्पण की प्रवृतित। परमेश्वर के
प्रति इसी भाव संवेदना को विकसित करने का नमा है-भक्ति।
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श्रेष्ठ मार्ग पर क़दम बढ़ाने के लिए ईश्वर
विश्वास एक सुयोग्य साथी की तरह सहायक सिद्ध होता है।
त
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तुम सेवा करने के लिए आये हो, हुकूमत करने के लिए नहीं। जान लो कष्ट सहने और परिश्रम करने के लिए तुम बुलाये
गये हो, आलसी और वार्तालाप में समय नष्ट करने के लिए
नहीं।
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तीनों लोकों में प्रत्येक व्यक्ति सुख के
लिये दौड़ता फिरता है, दुखों के लिये बिल्कुल नहीं, किन्तु दुःख के दो स्रोत हैं-एक है देह के प्रति मैं का भाव और दूसरा संसार की
वस्तुओं के प्रति मेरेपन का भाव।
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तुम्हारा प्रत्येक छल सत्य के उस स्वच्छ
प्रकाश में एक बाधा है जिसे तुम्हारे द्वारा उसी प्रकार प्रकाशित होना चाहिए जैसे साफ
शीशे के द्वारा सूर्य का प्रकाश प्रकाशित होता है।
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तर्क से विज्ञान में वृद्धि होती है, कुतर्क से अज्ञान बढ़ता है और वितर्क से अध्यात्मिक ज्ञान बढ़ता है।
फ
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फूलों की तरह हँसते-मुस्कराते जीवन व्यतीत
करो।
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फल की सुरक्षा के लिये छिलका जितना जरूरी है, धर्म को जीवित रखने के लिये सम्प्रदाय भी उतना ही काम का है।
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फल के लिए प्रयत्न करो, परन्तु दुविधा में खड़े न रह जाओ। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जिसे खोज और प्रयत्न
से पूर्ण न कर सको।
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