Swami Vivekananda
युगपुरुष विवेकानंद जी का एक पत्र जिसमें उन्होंने भारतीय संस्कृति और धर्म का जन-जन में संचार करने के लिये युवाओं का आह्वान किया है। स्वामीजी
ने अपने अल्प जीवन में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र और प्रगतिशील समाज की परिकल्पना की
थी। स्वामी जी ये पत्र 19 नवम्बर 1894 को
न्युयार्क से भारत के श्रीयुत,
आलासिंगा, पेरुमल आदि भक्तों को लिखे थे। ये पत्र उनकी भावनाओं-मान्यतओं और जीवन दर्शन
का स्पष्ट प्रमाण है।
मित्रों, उस पत्र का
कुछ अंश आप सभी से share कर रहे हैं।
हे वीर हद्रय युवकों,
यह बङे संतोष की बात है कि, अब तक हमारा कार्य बिना रोक टोक के उन्नती ही करता चला आ रहा है। इसमें हमें
सफलता मिलेगी, और किसी बात की आवश्यता नही है, आवश्यकता है केवल प्रेम,
अकपटता और
धैर्य की। इहलोक और परलोक में यही बात सत्य है। यदि कोई कहे कि देह के विनाश के
पिछे और कुछ नही रहा तो भी उसे ये मानना ही पङेगा कि स्वार्थपरता ही यर्थात मृत्यु
है।
परोपकार ही जीवन है, परोपकार न करना ही मृत्यु है। ऐ बच्चों, सबके लिये
तुम्हारे हद्रय में दर्द हो- गरीब, मूर्ख, पददलित मनुष्यों के दुख का तुम अनुभव करो, समवेदना से
तुम्हारा हद्रय भरा हो। यदि कुछ भी संशय हो तो सबकुछ ईश्वर के समक्ष कहदो, तुरन्त ही तुम्हे शक्ति,
सहायता और
अदम्य साहस का आभास होगा। गत दस वर्षो से मैं अपना मूलमंत्र घोषित करता आया हुँ-
प्रयत्न करते रहो। और अब भी मैं कहता हुँ कि अकिंचन प्रयत्न करते चलो। जब चारो ओर
अंधकार ही अंधकार था तब भी मैं प्रयत्न करने को कहता था, अब तो कुछ प्रकाश नजर आ रहा है। अतः अब भी यह कहुँगा कि प्रयत्न करते रहो।
वत्स, उरोमा अनंत नछत्र रचित आकाश की ओर भयभीत
दृष्टी से मत देखो, वह हमें कुचल डालेगा। धीरज धरो, फिर तुम देखोगे कि कई धंटो में वह सब का सब तुम्हारे पैरों तले आगया है। धीरज
धरो, न धन से काम होता है, न यश काम आता है, न विद्या; प्रेम से ही
सबकुछ होता है। चरित्र ही, कठिनाइयों की संगीन दिवारें तोङ कर अपना
रास्ता बना लेता है।
अब हमारे सामने यह समस्या है- स्वाधीनता के
बिना किसी प्रकार की उन्नती संभव नही है। हमारे पूर्वजों ने धार्मिक चिंता में
हमें स्वाधीनता दी थी और उसी से हमें आश्चर्यजनक बल मिला है, पर उन्होने समाज के पैर बङी-बङी जंजीरों से जकङ दिये और उसके फलस्वरूप हमारा
समाज, थोङे शब्दों में यदि कहें तो ये भयंकर और
पैशौचिक हो गया है। दूसरों को हानि न पहुँचाते हुए, मनुष्य को
विचार और उसे व्यक्त करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिये एवं उसे खान-पान, पोशाक, पहनावा, विवाह-शादि
हर एक बात में स्वाधीनता मिलनी चाहिये।
भारत को उठना होगा, शिक्षा का विस्तार करना होगा,
स्वहित की
बुराइयों को ऐसा धक्का देना होगा कि वह टकराती हुई अटलांटिक महासागर में जा गिरे।
ब्राह्मण हो या सन्यासी, किसी की भी बुराई को क्षमा नही मिलनी चाहिये।
अत्याचारों का नामोनिशान न रहे,
सभी को अन्न
अधिक सुलभ हो।
किन्तु, ये व्यवस्था
धीरे-धीरे लानी होगी- अपने धर्म पर अधिक जोर देकर और समाज को स्वाधीनता देकर यह
करना होगा। प्राचीन धर्म से पौरोहित्य की बुराईयों को हटा दो, तभी तुम्हे संसार का सबसे अच्छा धर्म मिल पायेगा। भारत का धर्म लेकर एक
यूरोपिय समाज गढ सकते हो। मुझे विश्वास है कि यह संभव है और एक दिन ऐसा जरूर होगा।
एक ऐसे उपनिवेश की स्थापना करो जहाँ सद्विचार वाले लोग रहें, फिर यही मुठ्ठी भर लोग सारे संसार में अपने विचार फैला देंगे। इसके लिये धन की
आवश्यकता है सही, पर धन आ ही जाएगा। इस बीच में एक मुख्य
केन्द्र बनाओ और भारतभर में उसकी शाखाएं खोलते जाओ। कभी भी किसी मूर्खता-प्रसूत
कु-संस्कारों को सहारा न देना। रामामुज ने सबको समान समझकर मुक्ति में सबका समान
अधिकार घोषित किया था, वैसे ही समाज को पुनः गठित करने की कोशिश
करो। उत्साह से हद्रय भर लो और सब जगह फैल जाओ।
नेतृत्व करते समय सबके दास बनो, निस्वार्थ रहो कभी भी एक मित्र के पिछे निन्दा करते न सुनो। धैर्य रखो तभी
सफलता तुम्हारे हाँथ आयेगी। काम करो, काम करो
औरों के हित के लिये काम करना ही जीवन का लक्षण है। हाँ! एक बात पर सतर्क रहना, दूसरों पर अपना रौब जमाने की कोशिश न करना। दूसरों की भलाई में काम करना ही
जीवन है।
मैं चाहता हुँ कि हममे किसी प्रकार की कपटता, कोई दुरंगी चाल न रहे, कोई दुष्टता न रहे। मैं सदैव प्रभु पर निर्भर
रहा हुँ- सत्य पर निर्भर रहा हुँ जो की दिन के प्रकाश की तरह उज्जवल है। मरते समय
मेरी विवेक बुद्धी पर ये धब्बा न रहे कि मैने नाम या यश पाने के लिये ये कार्य
किया। दुराचार की गंध या बदनियती का नाम भी न रहने पाए। किसी प्रकार का टाल मटोल
या छिपे तौर पर बदमाशी या गुप्त शब्द हममे न रहें। गुरू का विषेष कृपापात्र होने
का दावा भी न करें। यहाँ तक कि हममें कोई गुरु भी न रहे।
साहसी बच्चों, आगे बढो-
चाहे धन आए या न आए, आदमी मिलें या न मिलें, तुम्हारे पास प्रेम है। क्या तुम्हे ईश्वर पर भरोसा है ? बस आगे बढो, तुम्हे कोई नही रोक सकेगा। सतर्क रहो। जो कुछ
असत्य है, उसे पास न फटकने दो। सत्य पर दृण रहो तभी हम
सफल होंगे शायद थोङा अधिक समय लगे पर हम सफल होंगे। इस तरह काम करते जाओ कि मानो
मैं कभी था ही नही। इस तरह काम करो कि तुम पर ही सारा काम निर्भर है। भविष्य की
सदी तुम्हारी ओर देख रही है- भारत का भविष्य तुम पर निर्भर है। काम करते रहो.
तुम लोगों को मेरा आर्शिवाद इति—-
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मित्रों, ये कहना
अतिश्योक्ती न होगी कि आज के परिवेश में स्वामी विवेकानंद जी द्वारा दिये संदेश को
जन-जन तक पहुँचाना अतिआवश्यक है। इंसानियत और सदभावना की अलख हर दिल में जगाना
हैं। आज अरबों की आबादी वाले भारत में भले ही स्वामी जी को मानने वाले कुछ हजार ही
हों, पर ये नही भूलना चाहिये कि एक अकेला सूरज
पूरी दुनिया को रौशन करता है। एक-एक बूंद से ही सागर बन जाता है।
अतः मित्रों, युवादिवस के
उपलक्ष्य पर ये प्रंण करें कि,
स्वामी जी
के संदेश को विश्वास के साथ निर्भय होकर आत्मसात करते हुए जन-जन की आवाज बनाना है।
“उठो, जागो और तब तक रुको नही जब तक मंजिल प्राप्त
न हो जाये।“
“मानव सेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है।”
आओ हम सब मिलकर स्वामी जी का-
वंदन करें, अभिनंदन
करें,
सद्हद्रय से शत्-शत् नमन करें।
जय भारत
इसी के साथ मैं आप आप सभी पाठकों को नववर्ष की
हार्दिक बधाई देना चाहूंगी ।
“पंख शक्तीपूर्ण हों,
हर दिन नई
उङान हो।
स्वपन जो भी देख लें, सहज ही स्वीकार हो।
सुख- समृद्धि से भरपूर, नव वर्ष का उपहार हो।”
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