स्वामी
विवेकानंद
जिन महान विभूतियों ने युग युग में जन्म लेकर
मानवजाति के कल्याण हेतु कार्य किये हैं, उनके बचपन
को यदि देखा जाए तो उनका बचपन असाधारण कार्यो का एहसास कर ही देता है। बचपन से ही
माँ के मुख से रामायण एवं महाभारत की कहानियाँ सुनना नरेन्द्रनाथ(स्वामी जी के
बचपन का नाम) को बहुत अच्छा लगता था। रामयण सुनते सुनते बालक नरेन्द्र का सरल
शिशुह्रदय भक्तिरस से परिपूर्ण हो जाता था।
रामायण से ही जुङी एक घटना एवं उनके बहादुरी
के किस्से, आप सबसे share करना चाहते
है। वैसे भी जन्मदिन पर हम सभी अपने बचपन को याद कर ही लेते हैं तो, युगपुरुष स्वामी विवेकानंद जी के बचपन के स्मरण को याद करके उनकी 150वीं जयंती को यादगार बना सकते हैं।
नरेन्द्रनाथ को, श्रीरामचन्द्र जी के कार्य में अपने जीवन को अर्पित कर देने वाले वीरभक्त
हनुमान के अलौकिक कार्यों की कथाएं सुनना बहुत ही अच्छा लगता था। उन्होने अपनी
माँ(भुवनेश्वरी देवी) से सुना था कि हनुमान जी अमर हैं, वे अभी भी जीवित हैं। ये बात उनके मन में इस तरह बैठ गई थी कि एक दिन जब वे
पंण्डित जी से सुने कि हनुमान जी को केला बहुत पसंद है, तो उनका बालमन अपने आप को रोक न सका और पंण्डित जी से पूछ ही लिये कि, क्या हनुमान जी को केले के बगीचे में देख सकता हुँ। पंण्डित जी उनका बचपना
समझकर हाँ कर दिये। अब नरेन्द्रनाथ को कहाँ चैन वो तुरंत केले के बगीचे में चले
गये। एक केले के पेङ के नीचे बैठकर हनुमान जी की प्रतिक्षा करने लगे। काफी समय बीत
गया, पर हनुमान जी नही आए। अन्त में लाचार होकर
आधिक रात बीतने पर निराश हो घर लौट गए। उन्होने सारी घटना अपनी माँ को बताई और
पूछा कि हनुमान जी वहाँ क्यों नही आए। बालक के मन को अविश्वास का आघात न लगे
इसलिये माँ ने कहा “तुम दुःख न करो, संभव है आज हनुमान जी, श्रीराम जी के काम से कहीं दूसरी जगह गयें
हों, किसी और दिन मिल जाएंगे।“ । माँ के मुख से आशाभरी बाते सुनकर बालक नरेन्द्र का मन शान्त हो गया। किन्तु
हनुमान जी के प्रति उनका श्रद्धाभव कभी भी कम नही हुआ। ये कहना अतिश्योक्ति न होगा
कि बालक नरेन्द्र के चरित्र में जो भी महान और सुन्दर था, वह सब उनकी सुशिक्षित तथा उच्च विचारशील माता की शिक्षा एवं प्रयत्नो का ही
परिणाम था। बच्चों में किसी भी प्रकार की हीनता न आए इस विषय में वे सदा सर्तक
रहती थीं।
बचपन में ही भय किसे कहते हैं, यह नरेन्द्र नही जानते थे। जब उनकी उम्र छः वर्ष की थी, उस समय वो अपने साथियों के साथ ‘चङक’ का मेला देखने गये। मिट्टी की बनी महादेव की कुछ मूर्तीयां खरीद कर लौट रहे थे
कि इसी बीच एक छोटा सा लङका दल से अलग होकर फुटपाथ के रास्ते चला गया। ठीक उसी समय
सामने से गाङी आते देख वो बालक घबङा गया। अनहोनी की आशंका से पथिकगंणों के मुख से
चित्कार निकल गई, शोर सुनकर नरेन्द्र की नजर उस बच्चे पर पङी।
वे सारी परिस्थिति एक पल में ही समझ गए और क्षणंभर का विलंब किये महादेव की मूर्ती
को किनारे फेंक बालक की तरफ तेजी से लपके और लगभग घोङे के पैर के नीचे से बालक को
घसीट कर बाहर निकाल लाए। इसमें संदेह नही यदि एक पल की भी देरी होती तो बालक की
हड्डीयाँ चूर-चूर हो जाती। छोटे से बालक की बहादूरी और त्वरित प्रतिक्रिया को देख
उपस्थित सभी लोग मुक्त ह्रदय से प्रशंसा करने लगे और निर्भीक बालक को आनंदविभोर
होकर आर्शिवाद देने लगे। जब माँ को ये बात पता चली तो, वह नरेन्द्र को गोद में उठाकर रुद्ध कंठ से बोलीं “बेटा, इसी भांती सदैव मनुष्य की तरह काम करना”। नरेन्द्र की महिमा और उज्जवल कीर्ती बंगाल के इतिहास में ही नही अपितु पूरे
भारत के लिये एक गौरवमय पृष्ठ है।
किशोरावस्था में भी उनके प्रत्येक कार्य में
उनकी बुद्धी का परिचय मिलता है। एक बार मेट्रोपोलिटिन इन्स्टीटयूशन में पढते समय
नरेन्द्र को ये पता चला कि एक पूराने माननीय शिक्षक काम से अवकाश ग्रहण कर रहे
हैं। अतएव कुछ उत्साही मित्रों के साथ मिलकर बिदाई का अभिनंदन करने के लिये तैयारी
करने लगे। यह निश्चय हुआ कि आगामी पुरस्कार वितरण की सभा में वे शिक्षक महोदय का
अभिनंदन करेंगे। देशविख्यात सुवक्ता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी इस सभा का नेतृत्व कर रहे
थे। उनके सामने खङे होकर भाषण देने के बारे में सभी विद्यार्थी संकोच कर रहे थे।
आखिर अंत में सभी के अनुरोध पर नरेन्द्रनाथ भाषण देने को तैयार हो गये। नरेन्द्र, सभामंच पर खङें होकर आधे घंटे तक अपने स्वाभाविक सुमधुर कण्ठ से अंग्रेजी में
शिक्षक महोदय के गुणों का वर्णन किये। अंत में जब वे छात्रों के क्षोभ एवं दुःख की
बात कहकर बैठे, तो प्रख्यात वक्ता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी खङे
होकर हार्दिक संतोष प्रकट करते हुए नरेन्द्र के भाषण की अत्यधिक प्रशंसा किये।
किशोर बालक के लिये सुविख्यात वक्ता सुरेन्द्रनाथ जी के सामने भाषण देना असाधारण
दृढता एवं आत्मनिर्भता को परिलाक्षित करता है।
मित्रों, उनकी कही
बात याद आ रही है कि, “विश्व में अधिकांश लोग इसलिये असफल हो जाते
हैं, कि उनमें समय पर साहस का संचार नही हो पाता
और वे भयभीत हो उटते हैं।“ उपरोक्त प्रसंग स्वामी जी की शिक्षा को
सत्यापित करता है। उनकी सभी शिक्षाएं , उनके अपने
अनुभव एवं जीवन में किये कार्यों का जिवंत उदाहरण है।
माता-पिता की स्नेहमय, गोद में नरेन्द्रनाथ का शैशव और किशोर जीवन आंनद और खेलकूद में व्यतीत हुआ था।
उनका बाल्यजीवन अलौकिक एवं विशिष्ट था। अपनी तीक्षण विद्याबुद्धी, प्रबल आत्मनिष्ठा और ज्ञान प्राप्ती का तीव्र प्रवाह लिये स्वामी जी का
बाल्काल व्यतीत हुआ था। उनका जीवन आतुलनीय है। त्याग से पवित्र, चरित्र से उन्नत एवं मात-पिता के प्रति विषेष श्रद्धा का भाव और समाज के प्रति
निःस्वार्थ भाव से किया गया कार्य स्वामी जी के जीवन का अभिन्न अंग है। स्वामी
विवेकानंद जी का जीवन हम सभी के लिये एक जिवंत पाठशाला है।
Friends, स्वामी विवेकानंद जी की सभी शिक्षाएं आदरणीय
हैं। स्वामी जी की कुछ शिक्षाओं के साथ, जो मुझे
बहुत शक्ति देती हैं, उन्ही के साथ कलम को विराम देते हैं।
“मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है।”
“Richness is not earning more,
Spending more or saving more ,
Richness is when you need no more.”
Spending more or saving more ,
Richness is when you need no more.”
“उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना
प्राप्त हो जाये।”
“Everything is easy, when you are busy,
But, nothing is easy, when you are lazy.”
But, nothing is easy, when you are lazy.”
जय भारत
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