The Divine Power of
Thought
आपके
विचारों में होती है दिव्य-शक्ति
हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों के वचनामृत हैं कि
हमारे विचारों में एक दिव्य-शक्ति हुआ करती है| यही कारण है
कि यह असाधारण और अलौकिक शक्ति हमारे संपूर्ण व्यक्तित्व की परिचायिका है| अक्सर लोगों को कहते सुना है कि जैसा हम सोचते हैं वैसे ही हम बनते हैं पर
कभी-कभी हम किसी अन्य व्यक्ति की विचारधारा से इतना अधिक प्रभावित हो जाते हैं कि
हमारा व्यक्तित्व मात्र उसी व्यक्ति का प्रतिबिम्ब बन कर रह जाता है और कभी-कभी
इसके विपरीत कोई अन्य भी हमारे विचारों से अत्यधिक प्रभावित हो जाता है |सच तो यह है कि हममें से कोई भी पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो कर विचार नहीं कर
सकता क्योंकि हम अपने जीवन का प्रत्येक क्षण किसी न किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थिति अथवा परिस्थिति से प्रभावित हो कर ही
व्यतीत करते हैं जिसके परिणाम स्वरुप हमारे विचारों का उद्गम या निर्माण होता है |
वस्तुतः, हमारे विचारों में निहित वह दिव्य-शक्ति जो
किसी भी विचार के हमारे मन में उदय होते ही उस विचार को कार्य रूप में परिणत करने
के लिए तत्पर हो जाती है,वह है हमारे मन की संकल्प शक्ति | जब भी हमारे मन में कोई इच्छा उदय होती है या कोई विचार व्यक्त होता है तो यही
संकल्प शक्ति पूरी ईमानदारी और स्वामिभक्ति के साथ मन के द्वारा दिये जाने वाले
आदेश को पूरा करने के लिये तैयार हो जाती है | लेकिन
अफ़सोस ! उसी क्षण हमारे अंतःकरण की सतह पर किसी दूसरी इच्छा की लहर विकल्प के रूप में आ खड़ी होती है और हमारे मन की
वह संकल्प शक्ति अपना पहला काम अधूरा छोड़कर ,दूसरा आदेश
पूरा करने में लग जाती है और यह चक्र चलता ही रहता है तथा हमारी यह दिव्य शक्ति
लट्टू की तरह केवल घूमती ही रह जाती है | इस तरह पूर्ण सामर्थ्यवान तथा शक्तिमान होने के बावज़ूद भी हमारी यह संकल्प शक्ति
हमारे संशयात्मक आदेश तथा विरोधी इच्छाओं के एक साथ उठ खड़े होने के कारण सफलता
पूर्वक अपना कार्य नहीं कर पाती |इस तरह मानव-मन की
संकल्प शक्ति की यह दुर्दशा होती है |
दरअसल,हम अपने
अज्ञान के कारण ही अपनी इस दिव्य शक्ति को कमज़ोर करते हैं |यदि हम केवल एक ही विचार को केन्द्र बनाकर मन में कोई इच्छा करें, उसमें आने वाली विरोधी इच्छाओं या विचारों पर नियंत्रण करें तो हमारी वह इच्छा
ज़रूर पूरी होती है |भगवान श्रीकृष्ण ने भी
श्रीमद्भगवद्गीता में ,अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है –
‘संशयात्मा विनश्यति’
अर्थात् मतिभ्रम व्यक्ति विनष्ट हो जाया करता
है|वस्तुतः, समाहित या
एकाग्र-चित्त ही हमारे मन की गतिशीलता को स्थिर करता है और उचित मार्ग पर चलने के
लिए दिशा-निर्देश करता है| तभी तो फलीभूत इच्छाओं के अनुरूप ही हमारा
व्यक्तित्व ढलता है|उदहारण के लिए-आज यदि कोई व्यक्ति ए़क सफल
वैज्ञानिक है तो ज़रूर उसने एक वैज्ञानिक होने की इच्छा को सदैव बल दिया होगा |अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रता का भाव बनाये रखकर ,उसे सम्पूर्ण करने के लिए विश्वास और ईमानदारी से प्रयास किए होंगे तथा
बीच-बीच में विरोधी इच्छाओं के उदय से मानसिक-संतुलन को बिगड़ने नहीं दिया होगा |
अंततः,यही कहना
चाहती हूँ कि अपने सामान्य जीवन में भी, जब कभी हमें
कोई साधारण सी भी अनुभूति,दिव्य-अनुभूति, सुखानुभूति
या सौन्दर्यानुभूति होती है तो उसे हम किसी न किसी प्रकार समाज में व्यक्त करना चाहते
हैं, किसी को बताना चाहते हैं या किसी के साथ अपने
विचारों को बाँटना चाहते हैं तभी तो विभिन्न विषयों पर ज्ञान-विज्ञान के अनेक
ग्रंथों के
साथ-साथ
प्रत्येक भाषा में कवि भी दिखाई देते हैं |दूसरे,यह भी तो हम चाहते हैं कि हमारी इच्छाएं पूरी होती रहें, तो बस हमें इतना ही तो करना है कि अपनी इस दिव्य-शक्ति, अपने मन की संकल्प शक्ति को एकाग्रता एवं स्वतंत्रता से काम करने दें अर्थात्
अपनी ढेर सारी विरोधी इच्छाओं और अपने अनगिनत संशयों के भार से उसे मुक्त रखते हुए, हम एक समय में एक ही सद्-विचार पर केंद्रित होना सीख लें ताकि
हमारे विचारों की सकारात्मक ऊर्जा सर्वत्र फैलती रहे और हमारी इच्छाएँ भी
फलती-फूलती रहें और हम, यथाम्भव दूसरों को भी फलते-फूलते देखकर फूले
न समायें |
——————————————————
यदि आपके पास English या Hindi में कोई article,
news; inspirational story या जानकारी है जो आप हमारे साथ share करना चाहते हैं तो कृपया उसे अपनी फोटो के साथ E-mail करें. हमारी Id है: facingverity@gmail.com.पसंद आने पर
हम उसे आपके नाम और फोटो के साथ यहाँ PUBLISH करेंगे. Thanks!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें