प्रकाश
केदारनाथ सिंह हमारे समय के सबसे विश्वासनीय और संवादधर्मी कवियों में एक हैं।
वे समय के भूगोल को उसकी देशज स्थानीयता में दर्ज करने के कारण अलग से जाने जाते
हैं। बरास्ते इसी के वे कविता के विस्तृत भूगोल में प्रवेश करते हैं।
केदार जी का
काव्यानुभव अत्यंत सघन और पारदर्शी है। काव्यानुभव और अभिव्यंजना दोनों स्तरों
पर यह प्रांजलता दृष्टिगत होती है। यही कारण है कि पिछले लगभग छह दशकों से हिंदी
कविता की मुख्यधारा में उनकी अनिवार्य उपस्थिति बरकरार रही है। उनकी काव्य
यात्रा कविता संग्रह ‘अभी बिल्कुल
अभी से’ होते हुए ‘जमीन पक रही है’, ‘यहां से देखो’, ‘अकाल में सारस’, ‘उत्तर कबीर और अन्य कविताएं’, ‘बाघ’, ‘तालस्तॉय और साइकिल’ के बाद इसी वर्ष प्रकाशित उनके नये संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत है।
केदारनाथ अपनी परंपरा के एकमात्र हिंदी कवि हैं। नये संग्रह में भी उनकी अपनी
काव्य परंपरा का ही विस्तार है- नये परिवेश और नये परिप्रेक्ष्य के साथ। उनकी
कविता की तरल सम्मोहकता पाठक को हमेशा की तरह इस बार भी अपनी ओर खींचती और
आविष्ट कर लेती है। इस संग्रह की अनेक कविताएं विशेष तौर पर ध्यान खींचती हैं।
‘सूर्य:2011’ संग्रह की पहली कविता है, जिसमें कवि सूर्य की प्राचीनता के साथ अपनी
समकालीन उपस्थिति को विन्यस्त कर खुद भी प्राचीन उपस्थिति बन जाता है। वह अपनी
समकालीनता को भी सूर्य की समकालीन उपस्थिति से जोड़कर देखता है। सूर्य के
साथ-साथ कवि भी एक ‘प्राचीन
समकालीन’ है और दोनों
एक-दूसरे को जानते हैं जैसे एक समकालीन जानता है/ दूसरे समकालीन को। सूर्य की
तरह प्राचीन होने की आकांक्षा वस्तुत: एक कवि के आदि अस्तित्व होने की शाश्वत
आकांक्षा है।
‘विद्रोह’ कविता में चीजों का विद्रोह है, अपने उत्स में वापस लौटने के लिए। एक
कृत्रिम सभ्यता को जीवित रखने के लिए चीजों की प्रकृति और उसके मौलिक चेहरे से
काट दिया गया है। अब यही चीजें विद्रोह करती हैं और आदमी की कैद से बाहर आना
चाहती हैं- ‘आज घर में
घुसा/ तो वहां अजीब दृश्य था/ सुनिये- मेरे बिस्तर ने कहा-/ यह रहा मेरा
इस्तीफा/ मैं अपने कपास के भीतर जाना चाहता हूं।’ इसी तरह कुर्सी और मेज पेड़ों में, किताबें बांस के जंगलों में और पानी नल की कैद से बाहर जाना चाहता है।
कविता ‘कवि कुंभनदास के प्रति’ में कवि अपने पूर्वज कवि की समाधि के पास
नत खड़ा कवि और ‘सीकरी’ के सनातन द्वन्द्व की कथा दुहराता है। ‘संतन को कहा सीकरी सो काम’ का उद्घोष करने वाले हमारे समय के कवियों
को भागकर अंतत: सीकरी ही जाना होता है। एक सीकरी के गुंजलक के भीतर अनेक सीकरी, उसी तरह जैसे एक दिल्ली के भीतर अनेक
दिल्ली। कवि भी अंतत: दिल्ली ही लौटता है।
लेकिन कविता
और सीकरी के बीच की हमेशा की अनबन साथ लिये।
संग्रह में
हिंदी और भोजपुरी भाषाओंे को लेकर तीन बहुत सुंदर कविताएं हैं। कवि की मातृभाषा
भोजपुरी है किंतु हिंदी भी अपनी भाषा है। ‘हिंदी’ शीर्षक कविता
में कवि का हिंदी प्रेम स्पष्ट है - ‘मेरी भाषा के लोग/ मेरी सड़क के लोग हैं/ सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग/
पिछली रात मैंने एक सपना देखा कि दुनिया के सारे लोग/ एक बस में बैठे हैं और हिंदी
बोल रहे हैं।’ लेकिन सड़क के
इन्हीं लोगों की भाषा एक गहरे षड़यंत्र के तहत ‘राजभाषा’ घोषित कर दी
गई है और कवि उनसे करबद्ध अनुरोध करता है कि ‘राज नहीं- भाषा/ भाषा- भाषा सिर्फ भाषा रहने दो मेरी भाषा को।’ बेशक तभी हिंदी जन-जन की भाषा होगी। कवि
हिंदी की तरह अपनी मातृभाषा ‘भोजपुरी’ से भी अगाध
स्नेह करता है और इसी शीर्षक की एक कविता में इस भाषा के ध्वनितंत्र में जिंदा
लोकतंत्र का कृतज्ञ होता है। ‘देश और घर’ कविता हिंदी
और भोजपुरी भाषाओं के घरेलू सहकार और आपसी स्नेह सहयोग की कविता है। ‘हिंदी मेरा देश है/ भोजपुरी मेरा घर/ घर से
निकलता हूं/ तो चला जाता हूं देश में/ देश से छुट्टी मिलती है/ तो लौट आता हूं
घर/ इस आवाजाही में/ कई बार घर में चला आता है देश/ देश में कई बार/ छूट जाता है
घर।’ इस संग्रह की
आखिरी कविता, दुनिया की ‘सबसे बड़ी खबर’ सुनाती है। यह बड़ी खबर क्या है जिसे कवि
अपने पत्रकार भाई से अखबार के पहले पóो पर छापने का आग्रह करता है,? - ‘देखो/ उस कोमल अभेद्य कवच को देखो/ देखो कि
किस तरह दिल्ली की/ उस व्यस्ततम सड़क पर/ निर्भय- निश्चिंत चली जा रही है वह
बुढ़िया/ एक बच्चे की उंगली पकड़कर। ’ वास्तव में केदारनाथ सिंह की कविताएं प्रारंभ से ही दुनिया में कहीं भी दर्ज
न की जाने वालीं महत्त्वहीन और छोटी-छोटी घटनाओं को ही अपनी कविता में सबसे बड़ी
खबर के रूप में दर्ज करती हैं। ये छोटी चीजें ही सृष्टि पर पहरा देकर उसके होने
को किसी अनहोनी से सुरक्षित रखती हैं।
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Source –
KalpatruExpress News Papper
|
OnlineEducationalSite.Com
शुक्रवार, 28 मार्च 2014
सृष्टि पर छोटी चीजों का पहरा
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