प्रेमस्थली काम्यवन ब्रजमण्डल के द्वादशवनों में चतुर्थवन काम्यवन है। यह
ब्रजमण्डल के सर्वोत्तम वनों में से एक है। इस वन की परिक्रमा करने वाला
सौभाग्यवान व्यक्ति ब्रजधाम में पूजनीय होता है। इस वन के कामादि सरोवरों में
स्नान करने मात्र से सब प्रकार की कामनाएं यहां तक कि कृष्ण की प्रेममयी सेवा
की
कामना भी पूर्ण हो जाती है। ब्रजमंडल का यह वन विविध प्रकार के
सुरम्य-सरोवरों, कूपों, कुण्डों,
वृक्ष-वल्लरियों, फूल और फलों से तथा विविध प्रकार के
विहंगम दृश्यों से अतिशय सुशोभित है।
यह श्रीकृष्ण की परम रमणीय विहार स्थली
है। इसीलिए इसे काम्यवन कहा गया है।
विष्णु
पुराण के अनुसार काम्यवन में चौरासी कुण्ड (तीर्थ), चौरासी मन्दिर तथा चौरासी खम्बे
वर्तमान
में हैं। कहते हैं कि इन सबकी प्रतिष्ठा किसी प्रसिद्ध राजा श्रीकामसेन के
द्वारा की गई
थी। ऐसी भी मान्यता है कि देवता और असुरों ने मिलकर यहां एक सौ
अड़सठ(168) खम्बों का
निर्माण किया था।
कुण्ड और
तीर्थ यहां छोटे-बड़े असंख्य कुण्ड और तीर्थ हैं। इस वन की परिक्रमा 14 मील की है।
विमलकुण्ड यहां का प्रसिद्ध
तीर्थ या कुण्ड है। सर्वप्रथम इस विमलकुण्ड में स्नान कर श्रीकाम्यवन
के कुण्ड
अथवा काम्यवन की दर्शनीय स्थलियों का दर्शन प्रारम्भ होता है। विमलकुण्ड के
पश्चात
गोपिका कुण्ड, सुवर्णपुर, गया कुण्ड एवं धर्म कुण्ड हैं। धर्म
कुण्ड पर धर्मराज जी का सिंहासन दर्शनीय है। आगे यज्ञकुण्ड, पाण्डवों के पंचतीर्थ सरोवर, परम मोक्षकुण्ड, मणिकर्णिका कुण्ड हैं।
पास में ही
निवासकुण्ड तथा यशोदा कुण्ड हैं। पर्वत के शिखर पर भद्रेश्वर शिवमूर्ति है।
अनन्तर
अलक्ष गरुड़ मूर्ति है। पास में ही पिप्पलाद ऋषि का आश्रम है। अनन्तर
दिहुहली, राधापुष्करिणी
और
उसके पूर्व भाग में ललिता पुष्करिणी, उसके उत्तर में विशाखा पुष्करिणी, उसके पश्चिम में चन्द्रावली पुष्करिणी
तथा दक्षिण भाग में चन्द्रभागा पुष्करिणी है, आगे कुशस्थली है। यहां शंखचूड़ बधस्थल
तथा कामेश्वर
महादेव जी दर्शनीय हैं। यहां से उत्तर में चन्द्रशेखर मूर्ति
विमलेश्वर तथा वराह स्वरूप का दर्शन है।
वहीं द्रोपदी के साथ पंच पाण्डवों का
दर्शन, आगे
वृन्दादेवी के साथ गोविन्दजी का दर्शन, श्रीराधावल्लभ,
श्रीगोपीनाथ, नवनीत राय, गोकुलेश्वर और श्रीरामचन्द्र के स्वरूपों
का दर्शन है। इनके अतिरिक्त
चरणपहाड़ी श्रीराधागोपीनाथ, श्रीराधामोहन (गोपालजी), चौरासी खम्बा आदि दर्शनीय स्थल हैं।
श्रीवृन्दादेवी
और श्रीगोविन्ददेव यह काम्यवन का सर्वाधिक प्रसिद्ध मन्दिर है। यहां
वृन्दादेवी का
विशेष रूप से दर्शन है, जो ब्रजमण्डल में कहीं अन्यत्र दुर्लभ
है। श्रीराधा-गोविन्ददेवी भी यहां
विराजमान हैं। पास में ही श्रीविष्णु
सिंहासन अर्थात श्रीकृष्ण का सिंहासन है। उसके निकट ही चरण
कुण्ड है, जहां श्रीराधा और गोविन्द युगल के
श्रीचरणकमल पखारे गये थे। श्रीरूप-सनातन आदि
गोस्वामियों के अप्रकट होने के
पश्चात धर्मान्ध मुगल सम्राट औरंगजेब के अत्याचारों से जिस समय
ब्रज में
वृन्दावन, मथुरा आदि
के प्रसिद्ध मन्दिर ध्वंस किये जा रहे थे, उस समय जयपुर के परम
भक्त महाराज ब्रज के
श्रीगोविन्द, श्रीगोपीनाथ, श्रीमदनमोहन, श्रीराधादामोदर, श्रीराधामाधव आदि प्रसिद्ध
विग्रहों को
अपने साथ लेकर जब जयपुर आ रहे थे, तो उन्होंने मार्ग में इस काम्यवन में
कुछ दिनों
तक विश्राम किया। श्रीविग्रहों को रथों से यहां विभिन्न स्थानों में
रुकवाकर उनका विधिवत स्नान,
भोगराग और शयनादि सम्पन्न करवाया था। तत्पश्चात वे जयपुर और अन्य स्थानों
में गये।
तदनन्तर काम्यवन में जहां-जहां श्रीराधागोविन्द, श्रीराधागोपीनाथ और श्रीराधामदनमोहन रुके
थे,
उन-उन
स्थानों पर विशाल मन्दिरों का निर्माण कराकर उनमें मूल श्रीविग्रहों की
प्रतिभू-विग्रहों की
प्रतिष्ठा की गई।
श्रीवृन्दादेवी
काम्यवन तक तो आईं, किन्तु वे
ब्रज को छोड़कर आगे नहीं गई। इसीलिए यहां
श्रीवृन्दादेवी का पृथक रूप दर्शन
है।
श्रीचैतन्य
महाप्रभु और उनके श्रीरूप सनातन गोस्वामी आदि परिकरों ने ब्रजमण्डल की लुप्त
लीलास्थलियों को प्रकाशवान किया है। इनके ब्रज में आने से पूर्व काम्यवन को
वृन्दावन माना
जाता था। किन्तु श्रीचैतन्य महाप्रभु ने ही मथुरा के सन्निकट
श्रीधाम वृन्दावन को प्रकाशित किया।
क्योंकि
काम्यवन में यमुनाजी, चीरघाट, निधिवन, कालीदह, केशीघाट, सेवाकुंज, रासस्थली वंशीवट,
श्रीगोपेश्वर महादेव की स्थिति असम्भव
है। इसलिए विमलकुण्ड, कामेश्वर
महादेव, चरणपहाड़ी,
सेतुबांध रामेश्वर आदि लीला स्थलियां
जहां विराजमान हैं, वह अवश्य ही
वृन्दावन से अलग
काम्यवन है। वृन्दादेवी का स्थान वृन्दावन में ही है। वे
वृन्दावन के कुञ्ज की तथा उन कुञ्जों में
श्रीराधाकृष्ण युगल की क्रीड़ाओं की
अधिष्ठात्री देवी है। अत: अब वे श्रीधाम वृन्दावन के श्रीरूप
सनातन गौड़ीय मठ
में विराजमान हैं। यहां उनकी बड़ी ही दिव्य झंकी है। श्रीगोविन्द मन्दिर के
निकट ही गरुड़जी, चन्द्रभाषा
कुण्ड, चन्द्रेश्वर
महादेवजी, वाराहकुण्ड, वाराहकूप, यज्ञकुण्ड और
धर्मकुण्डादि दर्शनीय हैं।
चरणपहाड़ी
श्रीकृष्ण इस कन्दरा में प्रवेशकर पहाड़ी के ऊपर प्रकट हुए और वहीं से
उन्होंने मधुर
वंशी ध्वनि की। वंशीध्वनि सुनकर सखियों का ध्यान टूट गया और
उन्होंने पहाड़ी के ऊपर प्रियतम
को वंशी बजाते हुए देखा। वे दौड़कर वहां पर
पहुंची और बड़ी आतुरता के साथ कृष्ण से मिलीं। वंशी ध्वनि से पर्वत पिघल जाने
के कारण उसमें श्रीकृष्ण के चरण चिह्न् उभर आये। आज भी वे चरण-चिह्न्
स्पष्ट
रूप में दर्शनीय हैं। पास में उसी पहाड़ी पर जहां बछ़डे चर रहे थे और सखा खेल
रहे थे, उसके
पत्थर
भी पिघल गये, जिस पर उन
बछड़ों और सखाओं के चरण-चिह्न् अंकित हो गये, जो पांच
हजार वर्ष बाद आज भी स्पष्ट रूप
से दर्शनीय हैं। लुक-लुकी कुण्ड में जल-क्रीड़ा हुई थी। इसलिए
इसे जल-क्रीड़ा
कुण्ड भी कहते हैं।
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