कलम में बडी ताकत होती है. यह सब जानते हैं
लेकिन यह ताकत आज से ही नहीं है प्राचीन काल से है. यह कलम एक आम आदमी को भी संतों
की श्रेणी में खड़ा कर देती है. भक्ति, भाव और कलम के मिलन ने भारत को
कई संत, विद्वान और कवि दिए हैं जिन्होंने समय-समय पर देश की
संस्कृति को अलंकृत किया है. ऐसे ही एक महान संत और कवि थे राम भक्त तुलसीदास (Tulsidas). ‘श्रीरामचरितमानस’
(Ramcharitmanas) के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास एक महान कवि
होने के साथ साथ पूजनीय भी हैं.
कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास
(Tulsidas)को साक्षात भगवान के दर्शन हुए थे और उन्हीं
की इच्छानुसार उन्होंने ‘रामचरितमानस’ की
रचना की थी. गोस्वामी तुलसीदास (Tulsidas) का जन्म राजापुर गांव (Rajapur Village, U.P.) (वर्तमान
बांदा जिला) उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में हुआ था. संवत्
1554 की श्रावण मास की अमावस्या के सातवें दिन तुलसीदास का
जन्म हुआ था. उनके पिता का नाम आत्माराम (Atma Ram) और माता
का नाम हुलसी देवी (Hulsi Devi) था. लोगों में ऐसी भी
मान्यता है कि तुलसीदास (Tulsidas)का जन्म बारह महीने गर्भ में रहने के बाद हुआ था जिसकी वजह से वह काफी
हृष्ट पुष्ट थे. जन्म लेने के बाद प्राय: सभी शिशु रोया ही करते हैं किन्तु इस
बालक ने जो पहला शब्द बोला वह राम था. अतएव उनका घर का नाम ही रामबोला पड गया. माँ
तो जन्म देने के बाद दूसरे ही दिन चल बसीं, पिता ने किसी और
अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं
विरक्त हो गए. जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही. वह
गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया.
बचपन में इतनी परेशानियां और मुश्किलें झेलने
के बाद भी तुलसीदास (Tulsidas)ने कभी भगवान का दामन नहीं
छोडा और उनकी भक्ति में हमेशा लीन रहे. बचपन में उनके साथ एक और घटना घटी जिसने
उनके जीवन को पूरी तरह बदल कर रख दिया. भगवान शंकर जी की प्रेरणा से रामशैल पर
रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूंढ
निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा. इसके बाद उन्हें शिक्षा दी जाने
लगी.
21 वर्ष की
आयु में तुलसीदास (Tulsidas) का विवाह यमुना के पार स्थित एक गांव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की
कन्या रत्नावली से कर दी गई. क्यूंकि गौना नहीं हुआ था अत: कुछ समय के लिये वे
काशी चले गए और वहां शेषसनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गए.
लेकिन एक दिन अपनी पत्नी की बहुत याद आने पर वह गुरु की आज्ञा लेकर उससे मिलने
पहुंच गए. लेकिन उस समय यमुना नदी में बहुत उफान आया हुआ था पर तुलसीराम ने अपनी
पत्नी से मिलने के लिए उफनती नदी को भी पार कर लिया.
लेकिन यहां भी तुलसीदास (Tulsidas) (Tulsidas)
के साथ एक घटना घटी. रात के अंधेरे में वह अपनी पत्नी के घर उससे
मिलने तो पहुंच गए पर उसने लोक-लज्जा के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा
तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे. उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर
रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम
को महान तुलसीदास बना दिया. रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है:
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों
ऐसी प्रीति !
नेकु जो होती राम से, तो
काहे भव-भीत ?
अर्थात जितना प्रेम मेरे इस हाड-मांस के बने
शरीर से कर रहे हो, उतना स्नेह यदि प्रभु राम से करते, तो तुम्हें मोक्ष
की प्राप्ति हो जाती.
यह सुनते ही तुलसीदास (Tulsidas)की चेतना जागी और उसी समय से वह प्रभु राम की वंदना में जुट गए. इसके बाद
तुलसीराम को तुलसीदास के नाम से पुकारा जाने लगा. वह अपने गांव राजापुर पहुंचे
जहां उन्हें यह पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में उनके पिता भी नहीं रहे और पूरा घर
नष्ट हो चुका है तो उन्हें और भी अधिक कष्ट हुआ. उन्होंने विधि-विधान पूर्वक अपने
पिता जी का श्राद्ध किया और गाँव में ही रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने
लगे.
कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले
गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे. कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के
वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया. हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास ने
उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की. हनुमानजी (Lord
Hanuman) ने कहा- “तुम्हें चित्रकूट में
रघुनाथजी के दर्शन होंगें.” इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की
ओर चल पड़े.
चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन
जमाया. एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम
के दर्शन हुए. उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर
धनुष-बाण लिये जा रहे हैं. तुलसीदास (Tulsidas) उन्हें देखकर आकर्षित
तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके. तभी पीछे से हनुमान्जी
(Hanuman) ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप
करने लगे. इस पर हनुमान्जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन
होंगे.
संवत् 1607 की मौनी अमावस्या को
बुद्धवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम पुनः प्रकट हुए. उन्होंने बालक रूप में
आकरतुलसीदास (Tulsidas)से कहा-”बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?” हनुमान जी ने सोचा,कहीं वे इस बार भी धोखा न खा
जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:
चित्रकूट के घाट पर, भइ
सन्तन की भीर.
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक
देत रघुबीर॥
तुलसीदास (Tulsidas) श्रीराम
जी (Lord Rama) की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की
सुध-बुध ही भूल गए. अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा
तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये.
संवत् 1628 में वह हनुमान जी की आज्ञा
लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े. उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था. वे वहाँ
कुछ दिन के लिये ठहर गये. पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज
और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए. वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी. माघ मेला समाप्त होते
ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक
ब्राह्मण के घर निवास किया. वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण
हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे. परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते,
रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते. यह घटना रोज घटती. आठवें दिन
तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ. भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में
काव्य रचना करो. तुलसीदास जी की नींद उचट गयी. वे उठकर बैठ गये. उसी समय भगवान शिव
और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए. तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया. इस
पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- “तुम अयोध्या में जाकर रहो
और हिन्दी में काव्य-रचना करो. मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान
फलवती होगी.”
यह सुनकर संवत् 1631 में तुलसीदास (Tulsidas)ने ‘रामचरितमानस’
की रचना शुरु की. दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया
जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था. उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने
श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की. दो वर्ष, सात महीने और
छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ. संवत् 1633
के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गए.
इसके बाद भगवान् की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी
चले आये. वहाँ उन्होंने भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस
सुनाया. रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी. प्रात:काल जब मन्दिर के पट
खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया- ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ जिसके नीचे भगवान् शंकर की सही (पुष्टि) थी. उस समय वहाँ उपस्थित लोगों
ने ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की आवाज भी
कानों से सुनी.
तुलसीदास (Tulsidas)जी जब काशी के विख्यात् घाट
असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें
पीड़ा पहुँचाने लगा. तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया. हनुमान जी
ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके
पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति ‘विनय-पत्रिका’ लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया. श्रीराम जी ने उस पर
स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया.
संवत् 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया
शनिवार को तुलसीदास जी ने “राम-राम” कहते
हुए अपना शरीर परित्याग किया.
तुलसीदास (Tulsidas)ने ही दुनिया को “हनुमान
चालिसा” (Hanuman Chalisa) नामक डर को मिटाने वाल मंत्र दिया
है. कहा जाता है कि हनुमान चालिसा के पाठ से सभी भय-विकार मिट जाते हैं. तुलसीदास
जी ने देवनागरी लिपि में अपने लेख लिख हिन्दी को आगे बढ़ाने में भी काफी सहायता की
है. भारतभूमि सदैव अपने इस महान रत्न पर नाज करेगी.
Courtesy-www.days.jagranjunction.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें