मिर्च
भारतीयों के भोजन की जान है। गर्मी के समय में लोग सलाद के साथ कच्ची मिर्च भी
चाव से खाते हैं। इसमें तीखापन ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशील एल्केलाइड
के कारण तथा उग्रता कैप्साइसिन नामक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है। मिर्च
के बीज में 0.16 से 0़.39 प्रतिशत तक तेल होता है।
इसकी खेती
गर्म और आर्द्र जलवायु में भली-भांति होती है।
लेकिन फलों के
पकते समय शुष्क मौसम का होना आवश्यक है। बीजों का अच्छा अंकुरण 18-30 डिग्री सेण्टीग्रेट तापमान पर होता है।
मिर्च के फूल व फल आने के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 25-30 डिग्री सेण्टीग्रेट होता है। पूसा ज्वाला
किस्म के पौधे छोटे आकार के और पत्तियां चौड़ी होती हैं। फल 9- 10 सेण्टीमीटर लम्बे,पतले, हल्के हरे रंग के होते हैं। उपज 75-80 कुंतल प्रति हेक्टेयर हरी मिर्च के लिए तथा
18- 20 कुंतल सूखी
मिर्च के लिए होती है। पूसा सदाबाहर किस्म के पौधे सीधे व लम्बे 60 - 80 सेण्टीमीटर के होते हैं।
फल 6-8 सेण्टीमीटर लम्बे, गुच्छों में होते हैं और 6- 14 फल प्रति गुच्छे में आते हैं। पैदावार 90-100 कुंतल, हरी मिर्च के लिए तथा 20 कुंतल प्रति हेक्टेयर सूखी मिर्च के लिए होती है।
बीज-दर-
एक से डेढ़ किलोग्राम अच्छी मिर्च का बीज लगभग
एक हेक्टेयर में रोपने लायक पौध तैयार कर देता है।
बुवाई-
मैदानी और पहाड़ी दोनों ही इलाकों में मिर्च
बोने के लिए सर्वोतम समय अप्रैल-जून तक का होता है। बड़े फलों वाली किस्में
मैदानों में अगस्त से सितम्बर तक या उससे पूर्व जून-जुलाई में भी बोई जा सकती
हैं।
खाद एवं
उर्वरक-
गोबर की सड़ी हुई खाद लगभग 300-400 कुंतल जुताई के समय गोबर मृदा में मिला
देना चाहिए रोपाई से पहले 150 किलोग्राम यूरिया ,175 किलोग्राम
सिंगल सुपर फस्फेट तथा 100 किलोग्राम
म्यूरेट ऑफ पोटाश तथा 150 किलोग्राम
यूरिया बाद में लगाने की सिफारिश की जाती है। यूरिया उर्वरक फूल आने से पहले
अवश्य दे देना चाहिए।
पौध संरक्षण-
आर्द्रगलन रोग ज्यादातर नर्सरी की पौध में आता
है। इस रोग में सतह, जमीन के पास
से तना गलने लगता है तथा पौध मर जाती है। इस रोग से बचाने के लिए बुवाई से पहले
बीज का उपचार फफंदूनाशक दवा कैप्टान 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए। इसके अलावा कैप्टान 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर
सप्ताह में एक बार नर्सरी में छिड़काव किया जाना चाहिए।
एन्थ्रेकAोज रोग में पत्तियों और फलों में विशेष
आकार के गहरे, भूरे और काले
रंग के धब्बे पड़ते हैं। इसके प्रभाव से पैदावार बहुत घट जाती है। इसके बचाव के
लिए एम- 45 या बाविस्टन
नामक दवा 2 ग्राम प्रति
लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। मरोडिया लीफ कर्ल रोग मिर्च की एक
भंयकर बीमारी है। यह रोग बरसात की फसल में ज्यादातर आता है। शुरू में पत्ते मुरझ
जाते हैं एवं वृद्घि रुक जाती है। अगर इसका समय रहते नियंत्रण नहीं किया गया हो
तो यह पैदावार को भारी नुकसान पहुंचाता है। यह एक विषाणु रोग है जिसका किसी दवा
द्वारा नियंत्रण नहीं किया जा सकता है। यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है। अत: इसका
नियंत्रण भी सफेद मक्खी से छुटकारा पा कर ही किया जा सकता है। इसके नियंत्रण के
लिए रोगयुक्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें तथा 15 दिन के अंतराल में कीटनाशक रोगर या मैटासिस्टाक्स 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर
छिड़काव करें।
इस रोग की
प्रतिरोधी किस्में जैसे-पूसा ज्वाला, पूसा सदाबहार और पन्त सी-1 को लगाना चाहिए। मोजेक रोग में हल्के पीले रंग के घब्बे पत्ताें पर पड़ जाते
हैं। बाद में पत्तियां पूरी तरह से पीली पड़ जाती हैं तथा वृद्घि रुक जाती है।
यह भी एक विषाणु रोग है जिसका नियंत्रण मरोडिया रोग की तरह ही है। थ्रिप्स एवं
एफिड कीट पत्तियों से रस चूसते हैं और उपज के लिए हानिकारक होते हैं। रोगर या
मैटासिस्टाक्स 2 मिलीलीटर
प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से इनका नियंत्रण किया जा सकता है।
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Source –
KalpatruExpress News Papper
|
OnlineEducationalSite.Com
रविवार, 6 अप्रैल 2014
तीखी मिर्च देगी मुनाफा
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