राष्ट्रीय
विज्ञान दिवस पर -
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सुनील तिवारी
आज के युग को विज्ञान का युग कहा जाता है। विज्ञान के बिना आधुनिक जीवन की
परिकल्पना करना भी मुश्किल है। विज्ञान ने मानव-जीवन को हर प्रकार की सुविधाओं
से सम्पन्न कर दिया है। आज वैज्ञानिक विकास का सीधा सम्बन्ध राष्ट्रीय विकास से
लगाया जाता है। एक विकसित देश के पीछे विज्ञान का ही महत्त्वपूर्ण योगदान होता
है। ऐसा कोई देश नहीं है जिसके विकास में विज्ञान का योगदान न हो। इसीलिए समाज
में वैज्ञानिक जागरूकता लाने के लिए हर वर्ष 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है। दरअसल इस दिन का भारत के
वैज्ञानिक इतिहास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी दिन 1928 में कोलकाता में भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर
चंद्रशेखर वेंकट रमन ने एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक खोज की थी, जो ‘रमन इफेक्ट ’के नाम से
प्रसिद्ध है। इसी खोज के लिए उन्हें 1930 में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था। आज जब
विज्ञान की स्थिति की तुलना उस समय से करते हैं तो विज्ञान की बदहाली पर रोना आ
रहा है। विज्ञान की बदहाली का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि सीवी रमन (1930) के बाद से किसी भी भारतीय वैज्ञानिक को
नोबेल पुरस्कार नसीब नहीं हुआ। पिछले 84 सालों से हम भारतीय मूल के विदेशियों द्वारा अर्जित नोबेल पर ही इतरा रहे
हैं। इस पर यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर पिछले आठ दशकों से भारत क्यों नहीं
ऐसा वैज्ञानिक पैदा कर पाया जो नोबेल पुरस्कार भारत की झोली में डाल सके? पिछले साल कोलकाता में आयोजित 100वें विज्ञान कांग्रेस समारोह में
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने देश के वैज्ञानिकों से विज्ञान के क्षेत्र में
नोबेल पुरस्कार पाने की दिशा में काम करने का आह्वान किया था। निश्चित ही
राष्ट्रपति का आह्वान एक सकारात्मक संदेश है। पिछले कई सालों से कई बार सरकार
में मौजूद जिम्मेदार लोगों द्वारा इस तरह की बातें, घोषणाएं और आह्वान किये जाते रहे हैं, लेकिन वास्तविक धरातल पर अपवादस्वरूप ही
कुछ क्रियान्वित हो पाते हैं। यानी यह सब हर बार सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर
होता आया है। यथार्थ के धरातल पर देश में वैज्ञानिक अनुसंधान और शोध कार्य की दशा
दयनीय ही है। इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स
के 141 देशों की सूची
में भारत 64वें स्थान पर
है।
पिछले साल इस
सूची में वह 62वें स्थान पर
था। भारत आविष्कार के मामले में ब्रिक देशों में सबसे निचले पायदान पर है।
आविष्कार और शोध के मामले में इस तरह पिछड़ने का एक बड़ा कारण यह है कि विकसित
दुनिया के देशों की तुलना में हम इस पर बहुत कम खर्च करते हैं। डेलीओटी और
मैकेन्जी के एक अध्ययन के मुताबिक 2011 में पूरी दुनिया में शोध और विकास के नाम
पर 1143 अरब डॉलर खर्च
किये गए। इसमें एक तिहाई यानी 33 फीसद खर्च अकेले अमेरिका द्वारा किया गया। इसके बाद यूरोप के द्वारा 24.5 फीसद, चीन द्वारा 12.6 फीसद, जापान द्वारा 12.6 फीसद और भारत द्वारा केवल 2.1 फीसद खर्च किया गया। हमारे देश में तकनीकी
शोध और विकास योजनाओं में 75 से 80 फीसद खर्च
सरकार के द्वारा किया गया जबकि 20 से 25 फीसद खर्च
निजी क्षेत्रों के द्वारा किया गया। विश्वविद्यालयों द्वारा इस क्षेत्र में केवल
तीन फीसद खर्च किया गया। इसकी तुलना में ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक डेवलपमेंट एंड
कोपरेशन (ओईसीडी) देशों में निजी क्षेत्र द्वारा 69 फीसद, विश्वविद्यालयों
द्वारा 18 फीसद, सरकारी एजेन्सियों द्वारा 10 फीसद और गैर मुनाफा कमाने वाली संस्थाओं
द्वारा तीन फीसद खर्च किया गया। इन आंकड़ों से एक बात साफ तौर पर जाहिर हो जाती
है कि भारत में शोध और विकास के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी बहुत ही
कम है। यानी भारत के निजी क्षेत्र द्वारा अधिकाधिक तकनीकी विकास के लिए किए जाने
वाले शोध कार्यो में अधिक ध्यान देने की जरूरत है। ताकि देश में अधिक से अधिक
शोध और विकास संबंधी परियोजना पर काम हो सके। अपने देश के शोध और विकास के
क्षेत्र में पिछड़े होने की एक वजह यह भी है कि इस मद में दुनिया के अन्य देशों
की तुलना में जीडीपी का बहुत कम खर्च होता है।
भारत सरकार
द्वारा तकनीकी शोध और वैज्ञानिक विकास के नाम पर कुल जीडीपी केवल 0.9 फीसद ही खर्च किया जाता है। जबकि दूसरी ओर
दुनिया के अन्य अनेक देशों में शोध और विकास के नाम पर जीडीपी का 2.5 से 4.5 फीसद तक खर्च किया जाता है। इस्नइल अपनी
तकनीकी शोध परियोजनाओं के नाम पर जीडीपी का 6 फीसद तक खर्च करता है। पड़ोसी देश चीन भी इस नाम पर कुल जीडीपी का करीब 2 फीसद खर्च करता है। इन स्थितियों के
मद्देनजर भारत को भी शोध और उसके वांछित परिणाम पाने के लिए निश्चित रूप से
निवेश बढ़ाना होगा। तभी हम 21वीं सदी के वैश्विक धरातल पर प्रतिस्पर्धा और चुनौतियों का सामना कर सकते
हैं।
इस क्रम में
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम दुनिया के ताकतवर देशों में शामिल होने का भी
सपना पाले हुए हैं और इस सपने को साकार करने के नाम पर हमें इस बात का खास खयाल
रखना होगा कि एक उन्नत समाज और मजबूत अर्थव्यवस्था में शोध और उसके सार्थक
परिणामों की अहम भूमिका होती है। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि हमारे देश
में शोध और उसके परिणामस्वरूप किसी सार्थक आविष्कार के लिए आमजन में वैसा जुनून
नहीं है जैसा दुनिया के विकसित देशों में देखने में आता है। अपने देश में तो ऊपर
से लेकर नीचे तक जुगाड़ की तकनीक को ही अधिक तवज्जो मिली हुई दिखती है और उसी के
सहारे ज्यादा से ज्यादा कम चलाने की कोशिश होती है।
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Source – KalpatruExpress News Papper
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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014
भारत में विज्ञान की बदहाली
गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014
सफलतम जीवन की सच्ची सीख
आचार्य बहुश्रुति
के आश्रम में तीन शिष्य शिक्षा पूर्ण कर घर जाना चाहते थे। आचार्य ने उनसे
परीक्षा के लिए एक सप्ताह का समय मांगा। सातवें दिन तीनों फिर आचार्य की ओर चले।
कुटिया के द्वार पर कांटे बिखरे हुए थे। बचते-बचाते हुए भी तीनों के पैरों में
कांटे चुभ गए।
पहले शिष्य ने
अपने हाथ से कांटे निकाले और कुटिया में पहुंच गया। दूसरा सोच-विचार में एक ओर
बैठ गया। तीसरे ने आव देखा न ताव, झट से झडू लेकर कुटिया के द्वार पर बिखरे सभी कांटों की सफाई कर दी।
आचार्य ने
पहले और दूसरे को आश्रम में रखकर तीसरे को विदा करते हुए कहा कि तुम्हारी शिक्षा
पूर्ण हुई। साथ ही कहा कि जब तक शिक्षण आचरण में नहीं उतर जाता, तब तक वह अधूरा है।
आज के
शिक्षक-शिक्षार्थी के लिए इस प्रसंग में बहुत बड़ी सीख छिपी हुई है। प्राय:
पाठशाला में आधा-अधूरा पाठ्यक्रम समाप्त कर शिक्षार्थी को परीक्षा का सुपात्र
मान लेते हैं। अधकचरे ज्ञान के बल पर अनुत्तरदायी परीक्षकों के सौजन्य से बहुतसे
विद्यार्थी परीक्षा भी उत्तीर्ण कर लेते हैं, पर वे जीवन की परीक्षा में असफल ही होते हैं।
चुनौतियों के
आगे धराशायी हो जाते हैं।
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जाने अवसाद(Depression)दूर करने का उपाय
शोधकर्ताओं का
कहना है कि ध्यान क्रिया आपको अवसाद से मुक्ति दिला सकती है। कैलिफोर्निया
विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने अपने शोध में दावा किया है। अगर आप भी अवसाद से
पीड़ित हैं तो आपको नियमित ध्यान क्रिया करनी चाहिए। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी
के शोधकर्ताओं ने अपने नए शोध में दावा किया है कि जो लोग नियमित रूप से ध्यान
क्रिया का पालन करते हैं, उनमें अवसाद
की समस्या काफी हद तक समाप्त हो जाती है।
शोधकर्ताओं का
कहना है कि ध्यान क्रिया से तनाव कम होता है और आंतरिक शांति मिलती है। शोध में
अवसाद से ग्रस्त लोगों को शामिल किया गया था। शोधकर्ताओं ने नियमित रूप से इन
लोगों से लंबे समय तक ध्यान क्रिया करवाई। शोध के नतीजों में कहा गया है कि
शुरुआती तीन महीनों में ही अच्छे परिणाम मिलने लगे और इन लोगों में अवसाद के
लक्षण आधे से भी कम हो गए। शोध के अनुसार ध्यान से हृदय रोग में भी बीमारी में
काफी लाभ मिलता है।
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स्वस्थ रहने के आयुर्वेदिक उपाय
दोस्तों आज
मैं आपके साथ शरीर को स्वस्थ्य रखने से सम्बंधित एक ज्ञानवर्धक लेख share कर रहा हूँ.
स्वस्थस्य
स्वास्थ्य रक्षणम्
बारिश में
भीगकर सर्दी का उपचार कराने से बेहतर है कि -
बारिश आने
के पूर्व ही छाता लगाकर अपना बचाव कर लिया जाए।
रोगी होकर
चिकित्सा कराने से अच्छा है कि बीमार ही न पड़ा जाए। आयुर्वेद का प्रयोजन भी यही
है। स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा एवं रोगी के रोग का शमन। आयुर्वेद की दिनचर्या, ऋतुचर्या, विहार से
सम्बन्धित छोटे-छोटे किन्तु महत्वपूर्ण सूत्रों को अपने दैनिक जीवन में सहज रूप से
धारण कर हम अपने आपको स्वस्थ एवं निरोगी बनाए रख सकते हैं -
स्वस्थ रहने के स्वर्णिम सूत्र
- सदा
ब्रह्ममुहूर्त (पातः 4-5
बजे) में उठना
चाहिए। इस समय प्रकृति मुक्तहस्त से स्वास्थ्य, प्राणवायु, प्रसन्नता, मेघा, बुद्धि की
वर्षा करती है।
- बिस्तर से
उठते ही मूत्र त्याग के पश्चात उषा पान अर्थात बासी मुँह 2-3 गिलास शीतल
जल के सेवन की आदत सिरदर्द, अम्लपित्त, कब्ज, मोटापा, रक्तचाप, नैत्र रोग, अपच सहित
कई रोगों से हमारा बचाव करती है।
- स्नान सदा
सामान्य शीतल जल से करना चाहिए। (जहाँ निषेध न
हो)
- स्नान के
समय सर्वप्रथम जल सिर पर डालना चाहिए, ऐसा करने
से मस्तिष्क की गर्मी पैरों से निकल जाती है।
- दिन में 2 बार मुँह
में जल भरकर,
नैत्रों को शीतल जल से धोना नेत्र दृष्टि के लिए
लाभकारी है।
- नहाने से
पूर्व,
सोने से पूर्व एवं भोजन के पश्चात् मूत्र त्याग अवश्य
करना चाहिए। यह आदत आपको कमर दर्द, पथरी तथा
मूत्र सम्बन्धी बीमारियों से बचाती है।
- सरसों, तिल या
अन्य औषधीय तेल की मालिश नित्यप्रति करने से वात विकार,, बुढ़ापा, थकावट नहीं
होती है। त्वचा सुन्दर , दृष्टि स्वच्छ एवं
शरीर पुष्ट होता है।
- शरीर की
क्षमतानुसार प्रातः भ्रमण, योग, व्यायाम
करना चाहिए।
- अपच, कब्ज, अजीर्ण, मोटापा
जैसी बीमारियों से बचने के लिए भोजन के 30 मिनट पहले
तथा 30
मिनट बाद तक जल नहीं पीना चाहिए। भोजन के साथ जल नहीं
पीना चाहिए। घूँट-दो घूँट ले सकते हैं।
- दिनभर में 3-4 लीटर जल
थोड़ा-थोड़ा करके पीते रहना चाहिए।
- भोजन के
प्रारम्भ में मधुर-रस (मीठा), मध्य में
अम्ल,
लवण रस (खट्टा, नमकीन) तथा
अन्त में कटु,
तिक्त, कषाय (तीखा, चटपटा, कसेला) रस
के पदार्थों का सेवन करना चाहिए।
- भोजन के
उपरान्त वज्रासन में 5-10
मिनट बैठना तथा बांयी करवट 5-10 मिनट लेटना
चाहिए।
- भोजन के
तुरन्त बाद दौड़ना,
तैरना, नहाना, मैथुन करना
स्वास्थ्य के बहुत हानिकारक है।
- भोजन करके
तत्काल सो जाने से पाचनशक्ति का नाश हो जाता है जिसमें अजीर्ण, कब्ज, आध्मान, अम्लपित्त
(प्दकपहमेजपवदए ब्वदेजपचंजपवदए ळंेजतपजपेए ।बपकपजल) जैसी व्याधियाँ हो जाती
है। इसलिए सायं का भोजन सोने से 2 घन्टे
पूर्व हल्का एवं सुपाच्य करना चाहिए।
- शरीर एवं
मन को तरोताजा एवं क्रियाशील रखने के लिए औसतन 6-7 घन्टे की
नींद आवश्यक है।
- गर्मी के
अलावा अन्य ऋतुओं में दिन में सोने एवं रात्री में अधिक देर
तक जगने से शरीर में भारीपन, ज्वर, जुकाम, सिर दर्द
एवं अग्निमांध होता है।
- दूध के साथ
दही,
नीबू, नमक, तिल उड़द, जामुन, मूली, मछली, करेला आदि
का सेवन नहीं करना चाहिए। त्वचा रोग एवं ।ससमतहल होने की सम्भावना रहती है।
- स्वास्थ्य
चाहने वाले व्यक्ति को मूत्र, मल, शुक्र, अपानवायु, वमन, छींक, डकार, जंभाई, प्यास, आँसू नींद
और परिश्रमजन्य श्वास के वेगों को उत्पन्न होने के साथ ही शरीर से बाहर निकाल
देना चाहिए।
- रात्री में सोने से
पूर्व दाँतों की सफाई,
नैत्रों की सफाई एवं पैरों को शीतल जल से धोकर सोना
चाहिए।
- रात्री में शयन से
पूर्व अपने किये गये कार्यों की समीक्षा कर अगले दिन की कार्य योजना बनानी
चाहिए। तत्पश्चात् गहरी एवं लम्बी सहज श्वास लेकर शरीर को एवं मन को शिथिल
करना चाहिए। शान्त मन से अपने दैनिक क्रियाकलाप, तनाव, चिन्ता, विचार सब
परात्म चेतना को सौंपकर निश्चिंत भाव से निद्रा की गोद में जाना चाहिए।
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