मानव-जीवन
का सबसे बड़ा सत्य यह है कि हम मानव एक क्षण के लिए भी निष्क्रिय हो कर नहीं रह
सकते क्योंकि निष्क्रियता तो जड़ पदार्थ का धर्म होता है |दरअसल, हम प्रतिपल
प्रकृति के तीन गुणों-सत्व, रज और तम के प्रभाव में रहने के कारण ही, निरंतर कर्म
करने के लिए विवश होते हैं |शरीर से कोई कर्म न करने पर भी हम मन और बुद्धि से तो
क्रियाशील रहते ही हैं|हाँ, जब हम निद्रावस्था में होते हैं, तब अवश्य
हमारी विचार-प्रक्रिया शांत हो जाती है| सत्व, रज और तम वस्तुतः, ये तीनों गुण, तीन विभिन्न प्रकार के भाव हैं जिनके वशीभूत हो कर विभिन्न
परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का व्यवहार भी भिन्न-भिन्न प्रकार का
होता है|
योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को कर्तव्य-कर्म का उपदेश देते हुए श्रीमद्भगवद्गीता में
कहा है कि सत्व,रज और तम- प्रकृति से उत्पन्न ये त्रिगुण-जनित-बंधन
नित्यमुक्त आत्मा को भी देह के साथ ‘मानो’ बांध सा देता है | सत्वगुण के न्यून या अधिक होने के कारण ही सभी व्यक्तियों
की बौद्धिक क्षमता भी अलग-अलग हुआ करती है क्योंकि सत्वगुण-प्रधान ‘बुद्धि’ स्वभावतः
स्थिर होती है और इसके प्रकाश से प्रकाशित होकर मानव अनेकानेक विषयों का ज्ञान
प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है | ज्ञान-प्राप्ति की अनुभूति मानव को सुख देती है और उसका यह
सात्विक आनंद उसे ऐसा बांध लेता है कि अब वह उसके लिए अपने सर्वस्व का भी त्याग
करने के लिए तत्पर रहता है | प्रयोगशाला में दिन-रात कार्यरत एक सच्चा वैज्ञानिक, भूखे-प्यासे
रहकर भी चित्रांकन में व्यस्त चित्रकार,अत्याचार सहने वाले देशभक्त,हिमालय पर भग्वद्प्राप्ति के लिए घोर
तपाचरण करते तपस्वी- ये कुछ उदाहरण उन व्यक्तियों के हैं जो सात्विक आनंद में डूब
कर अपने कर्मों में लगे रहते हैं |
रजोगुण के
वश में हुआ मानव जीवन-यापन के लिए आवश्यक सामग्री और सुख-सुविधाएँ होने के बावजूद
भी अधिकाधिक भोग को प्राप्त करने की व्याकुलता तथा प्राप्त वस्तु के नष्ट होने के
भय से एक कर्म से दूसरे कर्म में लगा रहता है और इन्हीं कर्मों से उत्पन्न होने
वाले सुख-दुःख तथा आशा-निराशा रूपी फलों को भोगता रहता है |इसी
प्रक्रिया में उसका शरीर तो वृद्ध हो जाता है लेकिन ‘तृष्णा’ फिर भी
तरुणी ही बनी रहती है | तीसरे गुण, ‘तमोगुण’ से प्रभावित मानव असावधानी तथा आलस्य का शिकार बनकर न तो
अपने को,
न
जगत् को और न अपने संबंधों को ही समझ पाता है |वह अपने कर्मों में कुशल नहीं हो पाता और जब
उसे कष्ट भोगने पड़ते हैं, तब इसका दोष वह इस जगत् को देता है |दरअसल, वह अपने मन की शांति खो बैठता है| इस तरह हम
सभी इन तीन गुणों से युक्त होकर ही अपना जीवन-यापन किया करते हैं| वस्तुतः, मनुष्य
समय-समय पर किसी एक गुण की अधिकता से प्रभावित हो कर ही कार्य करता है |ऐसी स्थिति
में अन्य दो गुणों का प्रभाव गौण बना रहता है लेकिन कभी भी पूरी तरह से समाप्त
नहीं होता |
मित्रों, अंततः, मैं यही
कहना चाहती हूँ कि कर्मशीलता तो प्रकृति के द्वारा मानव को दिया गया वह उपहार है
जो उसे सच्चिदानंद के साथ एक होने का सुअवसर देने की सामर्थ्य रखता है |
हम
सब जानते हैं कि मानव के व्यक्तित्व में अपने कार्य-व्यवहार को बेहतर बनाने की
असीम क्षमताएँ होती हैं, तो क्यों न हम मन को स्थिर-बुद्धि के द्वारा एकाग्र करके, आत्मावलोकन
के द्वारा स्वयं अपने कर्मों के साक्षी बनना प्रारंभ करें ताकि जीवन-यापन के लिए
सुख-सामग्री जुटाते-जुटाते कहीं प्रलोभनों में इतने अधिक न अटक जाएँ कि
मानसिक-शांति ही खो बैठें |
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