बदलते दौर में
स्मार्ट फोन और स्पोर्ट्स बाइक के शौकीन युवाओं ने सिगरेट के कश लेने का
अंदाज
भी बदल दिया है। नवाबों की तर्ज पर चल रहे युवाओं ने पारंपरिक हुक्के की बदली
हुई
सूरत को अपनी जिंदगी में शामिल कर लिया है। आलम यह है कि हुक्के की
गुड़गुड़ाहट के साथ
धुएं के छल्ले उड़ाते युवाओं का यह फैशन बुलंदियों पर है।
कहने को तो हुक्के में इस्तेमाल होने
वाला मसाला नशा रहित है लेकिन, इसकी आदत किसी नशे से कम नहीं है। पारंपरिक
हुक्के की
आधुनिक महक औ हकीकत को बयां करती रिया तुलसियानी की रपट..
मैं जिंदगी का
साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को
धुएं में उड़ाता चला गया..।
यह गीत 1961 में बनी फिल्म ‘हम दोनों’ में देव आनंद पर फिल्माया गया था। लेकिन, 21वीं सदी में
यह गीत युवाओं का जीवनसाथी बन
गया है। अकसर शाम को सारे यार दोस्त मिलकर लाउंज में
पहुंचते हैं और पारंपरिक
हुक्के के धुएं में सब भूलकर जिंदगी का लुत्फ उठाने की कोशिश करते हैं।
शीशे के बने
हुक्के, जिसके ऊपरी
हिस्से में चीनी मिट्टी की चिलम में पड़ा हुआ फ्लेवर्ड मसाला, उस
पर लगी सिल्वर फॉइल के ऊपर सुलगता हुआ
कोयला, चारों तरफ
धुआं ही धुआं और उस धुएं में
रमते युवा। माहौल में हल्का अंधेरा, ग्रुप में बैठे कहीं लड़के तो कहीं
लड़कियां, वाह! क्या
शाही अंदाज
है। मानो जिंदगी के सारे सुख यहीं हों।
यह नजारा है
शहर में स्थित सभी लाउंज का, जहां फ्लेवर्ड मसालों के हुक्कों की चिलम ने बड़ी
संख्या में युवाओं को अपना
मुरीद बना लिया है। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस बदले हुए
अंदाज में कश लेने
में उन्हें कोई संकोच भी नहीं होता है। उन्हें लगता है कि आधुनिकता के दौर में
‘सब चलता है’। अमीनाबाद की शॉप से हुक्का, कोयला और मसाला खरीदते हुए इंजीनियरिंग छात्र
और हॉस्टलर विजय तरुण बताते
हैं, ‘हॉस्टल में एक
ही हुक्के से कई लोग शेयर कर लेते हैं। ज्यादा
खर्चा भी नहीं होता है और कश का
मजा भी आ जाता है। कोयले के एक पीस से ही 15- 15 मिनट
सारे दोस्त मजा ले लेते हैं’। वहीं, उनके साथी मोहित माथुर बताते हैं, ‘जो लोग सिगरेट पीते हैं, उनके
लिए तो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन जो लोग सिगरेट नहीं पीते हैं, उनके लिए हुक्के को आजमाना
अलग ही तरह का
लुत्फ है। ऐसा मन करता है कि उसकी महक में ही खोये रहें’।
लखनऊ शहर में
स्थित लाउंज जैसे- जीरो डिगरी (इनॉक्स मॉल, गोमती नगर), गो बनाना
(बेव्स मॉल, गोमती नगर), औरा (फन मॉल, गोमती नगर), डबल एप्पल
(महानगर), ब्लू द लाउंज,
मिन्ट, बलिज्मो (सप्रू मार्ग) आदि जगहों पर युवाओं का अपना नया शौक आजमाते दिखना अब
आम है। यही नहीं, जो लाउंज में
नहीं जा सकते, वे अपने घरों
में, खासकर
विद्यार्थी वर्ग हॉस्टल में
ही इसका इंतजाम कर लेते हैं। बाजार में हुक्का, मसाला, कोयला और सिल्वर फॉइल सभी सामान
आसानी से उपलब्ध हैं। सामानों का दाम इतना
वाजिब है कि युवा पॉकेटमनी से अपने नशे का
सामान बड़ी आसानी से खरीद सकते हैं।
्र अमीनाबाद
स्थित हुक्का शॉप ‘माई च्वाइस
शीशा’ के मजहर बताते
हैं, ‘हुक्के के
शौकीनों के लिए
सस्ते और महंगे दोनों ही सामान उपलब्ध हैं। भारतीय सस्ता और
इम्पोर्टेड थोड़ा महंगा है। इसका
मसाला 150-200 फ्लेवर्स में आता है। मसाले का पचास ग्राम
का पैके ट 60-90 रुपये और एक
किलो का पैकेट 900 रुपये का है।
वहीं, आम, इमली और बबूल का कोयला 30 रुपये किलो बिकता
है। बिस्कुट की तरह दिखने
वाला पैकेट में बिकने वाला दुबई का दस पीस कोयला 90 रुपये और
भारत का कोयला 30 रुपये में है। भारतीय हुक्कों का दाम 250-1200 रुपये और दुबई के हुक्कों का
दाम 500-8000 रुपये है। फर्क यह है कि इम्पोर्टेड कोयले
का एक पीस दो घंटे सुलगता है तो
साधारण कोयला सिर्फ बीस मिनट’।
फ्लेवर्ड
मसाले की आड़ में तंबाकू का सेवन-
यूं मार्केट में हुक्कों का मसाला इलाइची, चेरी, तरबूज, लीची, वनीला, सेब, गुलाब, पुदीना, सुपारी, अंगूर,
पान मसाला इत्यादि सभी फलों के फ्लेवर्स
में आता है।
लेकिन, सबसे ज्यादा डिमांड में सेब फ्लेवर है
क्योंकि उसका टेस्ट लगभग बीयर जैसा होता है।
इसके अलावा कुछ ऐसे भी फ्लेवर्स आते
हैं जिनका नाम कुछ अंग्रेजी हैं। उनका फ्लेवर कैसा है, यह
तो हुक्का पीने वाले ही बता सकते हैं।
वे अजब-गजब नाम हैं- निर्वाण, ब्रेन फ्रीजर, स्वीट 16,
आफ्टर 8, ऑन बीच, समर 69, टर्न मी ऑन, रॉक ऑन, रेड डेविल, स्प्रिंग वॉटर, नायाब वगैरह- वगैरह। मसाले के पैकेट पर साफ
तौर पर लिखा होता है कि मसाले में 0.5 प्रतिशत निकोटिन होता है और वह फेफड़ों
के
लिए हानिकारक है। बावजूद इसके बिक्री जोरों पर है। अमीनाबाद स्थित ‘भारत खमीरा स्टोर’ के
मालिक फरहीद अहमद बताते हैं, ‘लाउंज चलाने वालों का मानना है कि हुक्के
से निकलने वाला धुआं
हुक्के में नीचे भरे हुए पानी से फिल्टर्ड होकर निकलता है
जिससे निकोटिन पानी में ही रह जाता है
और वह नुकसानदायक नहीं होता है’।
सिर्फ बालिग
ही ले सकते हैं हुक्के का आनंद-
ब्लू द लाउंज के मैनेजर अनुपम कुमार बताते हैं, ‘पहले कई बार बच्चे स्कूल बंक करके आ जाते
थे। इसलिए अब यह नियम बना दिया गया है कि स्कूल यूनिफार्म में आए बच्चों या 18 वर्ष से
कम की आयु के बच्चों को लाउंज में
आने की परमीशन नहीं दी जाए। जरूरत पड़ने पर आई डी
कार्ड भी चेक करते हैं। पिछले
आठ सालों से चल रहे इस ट्रेंड के ज्यादा शौकीन 22-30 साल के युवा
हैं। वहीं, गो बनाना के मैनेजर अश्विनी बताते हैं, ‘यहां हुक्के के एक कश के लिए 300 रुपये और
टैक्स भी देना पड़ता है लेकिन फिर
भी युवाओं को धुएं के छल्ले उड़ाने में बहुत मजा आता है। उन्हें
ऐसा करने में
कोई शर्म महसूस नहीं होती है क्योंकि नये जमाने की नयी चीजों को आजमाना
उनका शौक
है’।
हर्बल मसालों
का नहीं है क्रेज-
दुबई और भारतीय मसालों के अतिरिक्त हर्बल
मसाले भी बाजार में उपलब्ध हैं। हर्बल मसालों में
भी सभी तरह के फ्लेवर्स हैं लेकिन
फिर भी युवाओं में इसका क्रेज नहीं है। हर्बल मसालों में
निकोटिन की मात्रा जीरो
होती है। बिना हल्की तीखी सुगंध के युवाओं को शायद मजा नहीं आता है।
हर्बल मसाले
का एक किलो का पैकेट 1000 रुपये का
मिलता है।
शादियों में
भी लगते हैं हुक्के के स्टॉल-
शादियों-पार्टियों में हुक्के का स्टॉल लगाने
वाले संजय कुमार बताते हैं, ‘पहले तो केवल मुसलमान
जाति के लोग ही हुक्के का स्टॉल लगवाते थे लेकिन, अब हिंदुओं में भी यह परंपरा धीरे-धीरे बढ़
रही है। पार्टी में कहीं किनारे ही यह स्टॉल लगता है ताकि हुक्का पीने वालों को
दिक्कत न महसूस
हो। पार्टियों में भी ज्यादातर युवाओं को ही इसका आकर्षण होता
है। नई चीज देखकर वे उसे
इस्तेमाल करना चाहते हैं। मसालों में ज्यादा डिमांड
इम्पोर्टेड मसालों की ही होती है क्योंकि उनकी
सुगंध भारतीय मसालों से कुछ बेहतर
होती है’।
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Source –
KalpatruExpress News Papper
|
OnlineEducationalSite.Com
मंगलवार, 27 मई 2014
हुक्के की गुड़-गुड़ में उतराते युवा
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