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देश में जब से
ग्लोबलाइजेशन का दौर शुरू हुआ है तब से अन्य क्षेत्रों की तरह हिंदी पत्रकारिता
में
भी काफी बदलाव आए हैं। ये बदलाव न सिर्फ खबरों के प्रस्तुतिकरण और प्रबंधन
के क्षेत्र में देखने
को मिल रहे हैं बल्कि खबरों के चयन में भी सबसे ज्यादा
देखने को मिल रहे हैं। आज वही खबरें
सुर्खियां बनती हैं या अखबार के पहले पेज पर
जगह पाती हैं जो मार्केट ओरियेंटेड (बाजारोन्मुख)
होती हैं। राजनीति और
किसान-मजदूर की खबरों की जगह पर आज यदि आर्थिकी, सिनेमा और
खेल-कूद की खबरें सुर्खियां बनती हैं तो उसके पीछे बाजार की
शक्तियां ही बढ़-चढ़कर काम करती
दिखती हैं। इसीलिए, जाहिर-सी बात है कि दलित विषय-वस्तु से भी
संबंधित उन्हीं खबरों या विचार
को मुख्यधारा की मीडिया तवज्जो देती है जिनके
बाजार मूल्य तय होते हैं। अरविंद दास की हिन्दी
में समाचार जैसी किताब इन्हीं
मसायलों की प्रमुखता से जांच-पड़ताल करती प्रतीत होती है।
मुख्यधारा के
मीडिया पर यदि हम गौर करें तो पाते हैं कि 25 प्रतिशत से भी अधिक की दलित
आदिवासी आबादी वाले इस मुल्क में उनकी पांच
खबरें भी पूरे साल में सुर्खियां नहीं बन पाती हैं या
पहले पेज पर स्थान पा पाती
हैं। मसला वही, कि बाजार के
दृष्टिकोण से इन खबरों के कोई मानी
नहीं होते। लेकिन वहीं पर चन्द्रभान प्रसाद
जैसे दलित चिंतक यदि दलितों के सशक्तिकरण के लिए
बाजार और पूंजी की जरूरत पर बल
देते हुए देखे या सुने जाते हैं तो उसे नवभारत टाइम्स जैसे
अखबार हाथोंहाथ लेते
हैं। यहां यह भी पता चलता है कि मुख्यधारा का मीडिया चंद्रभान प्रसाद जैसे
दलित
चिंतक को ही अपना ब्रांड क्यों बनाती है। यहां मीडिया चंद्रभान की इस शिकायत को
भी
ओझल नहीं होने देती कि भारतीय मीडिया ने दलित चिंतकों को ब्रांड कभी नहीं बनाया।
चंद्रभान
खुलकर बाजार, अंग्रेजी, दलित पूंजीपतियों और दलित उदयोगों की वकालत
करते हैं और इन्हें
ब्राहमणवाद और सामंतवाद से लड़ने का औजार साबित करते हैं।
उल्लेख्य
पुस्तक के लेखक अरविंद दास इशारा करते हैं कि यही वे कारण हैं कि चंद्रभान
प्रसाद जैसे
दलित चिंतकों को द पायनियर, द टाइम्स ऑफ इंडिया और नवभारत टाइम्स जैसे पूंजीवादी घरानों
के अखबार
प्रमुखता देते हैं और दलितों-आदिवासियों की बुनियादी समस्याओं से सरोकार रखने
वाली
खबरें या विचार इनके लिए कोई मानी नहीं रखते।
मीडिया का
पूरा का पूरा ध्यान आज ज्यादा-से-ज्यादा विज्ञापन उगाहने पर केंद्रित हो गया है।
अरविंद विश्लेषण करते दिखते हैं कि पिछले 25 वर्षों के दरमियान हिंदी पत्रकारिता जिस कदर
बाजारोन्मुख हो गई है वैसी
पिछले 100 वर्षों के
दरमियान भी नहीं हुई थी। इस पुस्तक में अरविंद
हिंदी पत्रकारिता के बदले स्वरूप
का समग्रता से लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं।
भाषा शैली, मालिक और संपादक की भूमिका, पेड न्यूज और पत्रकारों का चयन एवं
नियुक्तियां आदि
पर भी वे रोशनी डालते हैं। कुल मिलाकर हिंदी में समाचार एक
जरूरी किताब बन गई है।
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Source –
KalpatruExpress News Papper
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OnlineEducationalSite.Com
सोमवार, 26 मई 2014
बाजार की पत्रकारिता
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