शनिवार, 7 जून 2014

अफ़सोस तुमको शायरों सुहबत नहीं मिली



लखनऊ यानी नजाकत और नफासत का शहर। तहजीब और तमीज का शहर। अपनी शाइस्ता जुबां से लोगों का दिल जीतने वाला शहर। इसी खुश्बू में रची-बसी शहर की खासियतें उर्दू शायरी के रूप में उभर कर सामने आईं और बातचीत का अंश बन गईं। इसी के चलते पिछली तीन शताब्दियों में लखनऊ कई दिग्गज शायरों की सुहबत से गुलजार हुआ। कुछ शायरों को लखनऊ की सरजमीं ने पैदा किया तो दूसरे शहरों से आने वालों की इज्जत अफजाई भी की। मीर तकी मीर, सौदा, इंशा, आतिश, नासिख, अमीर मिनाई, जोश मलीहाबादी, हसरत मोहानी, मजाज, शौक, नजर लखनवी, साकिब, चकबस्त, आनंद नारायण, आरजू लखनवी, नूर लखनवी, दिल लखनवी जैसे ना जाने कितने शायरों का लखनऊ से गहरा जुड़ाव रहा। उनकी शायरी का अन्दाज-ए-बयां ही ऐसा था कि वह आज भी हमारी बातचीत में शामिल है और दिलों पर राज करता है। पर, अफसोस कि ऐसे कई मशहूर शायरों की मजारें लखनऊ में ही घोर उपेक्षा का शिकार हैं। दूर-दराज से आने वाले उनके प्रशंसक भी इन प्रसिद्ध शायरों की मजारों की बदहाली से अचम्भित होते हैं। जब रिया तुलसियानी ने लखनऊ के कब्रिस्तानों, इमामबाड़ों में उर्दू के दिग्गज शायरों की स्मृतियों का हाल जानने की कोशिश की तो मीर का शेर याद आया-हाल-ए-बद गुफ्तनी नहीं मेरा, तुमने पूछा तो मेहरबानी की
लखनऊ पर अपनी चर्चित पुस्तक गुजिश्ता लखनऊमें प्रसिद्ध इतिहासकार अब्दुल हलीम शरर ने माना है कि उर्दू जुबान दिल्ली में पैदा हुई और इसकी शायरी की शुरुआत दक्कन से हुई। वली गुजराती ने दिल्ली में आकर अपना दीवान पेश किया और अपनी दिलकश शायरी से उर्दूभाषियों को नींद से जगाया। शरर मानते हैं कि शायरी और भाषा पर अपूर्व अधिकार की बुनियाद लखनऊ में उस्ताद खान आरजू ने डाली। उनके अनुसार उस जमाने की हालत देखने से मालूम होता है कि दिल्ली अपने कलाकारों को अपनी गोद में संभाल नहीं सकती थी, जबकि इसके मुकाबले में लखनऊ का आलम यह था कि जो भी कलाकार आता, चाहे कहीं का हो, वह यहीं का होकर रह जाता। शरर लिखते हैं कि किस प्रकार मिर्जा रफी सौदा, मीर तकी मीर, सैयद मुहम्मद मीर सौज, मिरजा जाफर अली हसरत, मीर हैदर अली हैरान, ख्वाजा हसन हसन, मिरजा फाखर मकीं, मीर जाहक सहित बीसियों शायर लखनऊ आए और यहीं के हो गए। शायरी के विभिन्न दौर का जिक्र करते हुए शरर लिखते हैं कि नासिख और आतिश के दौर में भाषा ने नया रूप धारण किया और बहुत से पुराने मुहावरे निकाल दिए गए। नई बंदिशें पैदा हुईं और उस जुबान की बुनियाद पड़ी जो दिल्ली और लखनऊ के बाद के शायरों में समान रूप से लोकप्रिय हुई। इसके बाद के दौर में लखनऊ में वजीर, जिया, रिंद, गोया, रश्क, नसीम देहलवी, असीर, मसनवी-लेखक नवाब मिर्जा शौक और पंडित दया शंकर नसीम की शायरी की धूम थी।
शरर के अनुसार इसके बाद जो दौर था वह अमीर, दाग, मुनीर, तसलीम, मजरूह, जलाल, लताफत, अफजल और हकीम इत्यादि का था।
लखनऊ पर कई पुस्तकों के लेखक योगेश प्रवीन लखनऊ की शायरी पर आधारित अपनी पुस्तक लखनऊ की शायरी जहान की जुबान परमें लिखते हैं कि लखनऊ को उर्दू शेर-ओ-अदब का केन्द्र कहना कुछ गलत नहीं है क्योंकि 300 वर्ष पुराने लखनऊ स्कूल ने समय-समय पर शायरी के अनोखे आयाम दिए।
मीर की गजल, सौदा के कसीदे, नसीम की मसनवी और अनीस के मरसिये, ये वे खूबसूरत बूटे थे जो इस गुलजार-ए-लखनऊ में महके थे। लखनऊ शायरी की जान थी लखनऊ की उम्दा जुबान, लफ्जों की लोच, लचक और मुहावरों की मोहिनी। विडम्बना यह है कि जिस लखनऊ को शायरी का महत्त्वपूर्ण केन्द्र माना गया और जो दिग्गज शायरों की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही, उसी लखनऊ में आज शायरों की स्मृतियां पुरसाहाल में हैं। शायरों की जीवनियां और उनकी रचनाओं पर विश्वविद्यालयों, शिक्षा संस्थानों में चर्चाएं तो होती हैं, शोध किए जाते हैं, उनकी पुस्तकें और दीवान विभिन्न पुस्तकालयों और घरों की शोभा बढ़ाते हैं, उर्दू अकादमी तथा दूसरी संस्थाएं उन शायरों पर समारोह करते हैं लेकिन उनकी मजारों को कोई वाली नहीं मिलता। कई मजारों को तो ढूंढना भी मुश्किल होता है।
कई बार पर्यटक या शायरों के प्रशंसक उनकी मजारों पर श्रद्धासुमन अर्पित करने की इच्छा रखते हुए वहां जाना चाहते हैं लेकिन अक्सर वे उन मजारों को ढूंढ ही नहीं पाते। केन्द्र और प्रदेश सरकार की ओर से भी इस दिशा में कोई पहल नहीं होना और आश्चर्यजनक है।
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Source – KalpatruExpress News Papper


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