लोह्याद्रि
(लुहांगी ) गिरिश्रेणी- विदिशा नगर के मध्य रेलवे स्टेशन के निकट
ही अत्यन्त कठोर बलुआ पत्थर से निर्मित यह स्थान 170 फीट ऊंचा है। इसे अब ‘राजेन्द्र गिरि’ के नाम से जाना जाता है। यह अत्यंत मनोरम
स्थान है। इसके चारो ओर रायसेन का किला, सांची की पहाड़ियां, उदयगिरि की
श्रेणियां, वैत्रवती नदी
व उनके किनारों पर लगी वृक्षों की श्रृंखलाएं अत्यंत सुदर दिखती हैं। पहले की
तरह आज भी यहां मेला लगता है। इस स्थान का इतिहास महाभारत कालीन है।
अश्वमेध-यज्ञ
के समय पाण्डवों ने इस पहाड़ी पर आधिपत्य कर लिया था। जब यहां के राजा ने
अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ लिया, तब उसके रक्षार्थ आये कृष्ण, भीम व कर्ण के पुत्रों ने राजा से युद्ध कर उन्हें पराजित किया।
चरणतीर्थ- विदिशा में
स्थित सिद्ध महात्माओं की तपस्थली रही, यह भूमि पर्यटन की दृष्टि से सुंदर स्थान है। एक अवधारणा के अनुसार भगवान
राम के चरण पड़ने के कारण इस तीर्थ का नाम चरणतीर्थ पड़ा, लेकिन साहित्यिक प्रमाण बताते हैं कि
अयोध्या से लंका जाने के मार्ग में यह स्थान नहीं था। यह धारणा पूर्णरुपेण मिथक
है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह स्थान भृगुवंशियों का केंद्र स्थल था। इस कुंड
में च्वयन ¬षि ने तपस्या
की थी। पहले इसका नाम च्वयनतीर्थ था, जो कालांतर में चरणतीर्थ के नाम से जाना जाने लगा।
किला- यह किला
पत्थरों के बड़े-बड़े खंडों से बना हुआ है। इसकी चारों तरफ बड़े-बड़े दरवाजे का
प्रावधान था। चारों तरफ स्थित किले की मोटी दीवार पर जगह-जगह पर तोप रखने की
व्यवस्था थी। किले के दक्षिण पूर्व के दरवाजे की तरफ अभी भी कुछ तोपें देखी जा
सकती हैं।
इस किले का
निर्माणकाल स्पष्ट नहीं है। फणनीसी दफ्तर के रिकार्ड के अनुसार इसे औरंगजेब
द्वारा बनवाया गया कहा गया है, लेकिन कई विद्धानों का यह मानना है कि किला बहुत प्राचीन है। एक संभावना के
अनुसार इसे ई. पू. सदी के पशुओं के एक धनी व्यापारी साह भैंसा साह ने बनवाया था।
इसी वंश के साह की पुत्री से अशोक का विवाह हुआ था।
विजय मंदिर- किले की सीमा
के अंदर पश्चिम की तरफ अवस्थित इस मंदिर के नाम पर ही विदिशा का नाम भेलसा पड़ा।
सर्वप्रथम
इसका उल्लेख सन 1024 में महमूद
गजनी के साथ आये विद्वान अलबरुनी ने किया है। अपने समय में यह देश के विशालतम
मंदिरों में से एक माना जाता था।
साहित्यिक
साक्ष्यों के अनुसार यह आधा मील लंबा- चौड़ा था तथा इसकी ऊंचाई 105 गज थी, जिससे इसके कलश दूर से ही दिखते थे। दो बाहरी द्वारों के भी चिह्न् मिले
हैं। साल भर यात्रियों का मेला लगा रहता था तथा दिन- रात पूजा आरती होती रहती
थी। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण चालुक्य वंशी राजा कृष्ण के
प्रधानमंत्री वाचस्पति ने अपनी विदिशा विजय के उपरांत किया।
साहित्यिक
साक्ष्यों के अनुसार यह आधा मील लंबा-चौड़ा था तथा इसकी ऊंचाई .105 गज थी, जिससे इसके कलश दूर से ही दिखते थे। इसके दो द्वारों के भी चिह्न् मिले हैं।
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Source –
KalpatruExpress News Papper
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रविवार, 1 जून 2014
प्राकृतिक स्थल
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