8 से 10 महीने तक बाजार में रहने वाली सब्जियों में
खीरा, ककड़ी, लौकी, नेनुआ, तुरई, करेला,
काशीफल, परवल, कुंदरू, चप्पन कद्दू, तरबूज, खरबूज, पेठा शामिल हैं।
दिलीप कुमार
यादव कद्दू बिरादरी की सब्जियां कुकुरबिटेसी कुल में आती हैं। ये सब्जियां साल
में 8
से 10 महीने बाजार में रहती हैं। इनमें खीरा, ककड़ी, लौकी, नेनुआ, तुरई, करेला, काशीफल, परवल,
कुंदरू, च्ििचड़ा, चप्पन कद्दू, तरबूज, खरबूज, पेठा वगैरह शामिल हैं। इस बिरादरी की
सब्जियां और
फल, सलाद, सब्जी मिठाई और मीठे फल के तौर पर इस्तेमाल
किए जाते हैं। ये सब्जियां गरम
आबोहवा की फसलें हैं। इनमें ज्यादा ठंड और पाला
सहन करने की ताकत नहीं होती है। इनके लिए
सही तापमान 25-30 डिग्री सेल्सियस है।
तरबूज और
खरबूज के लिए अच्छा तापमान 30-35 डिग्री सेल्सियस होता है। खरबूज में पछुआ हवा
और ज्यादा तापमान होने पर
मिठास अच्छी होती है। इन सब्जियों के लिए पानी निकासी वाली
बलुईदो मट मिट्टी
अच्छी होती है। इनकी खेती नदियों के किनारे भी की जाती है। मिट्टी का पीएच
मान 6 से 7़ तक अच्छा माना गया है। खेत की 3-4 जुताई करके नाली व थाले बना लेते हैं,
जिनमें बीज की बोआई करते हैं। कंपोस्ट या
गोबर की सड़ी खाद 20-25 टन प्रति
हेक्टेयर की दर से
बीज बोने के 3-4 हफ्ते पहले खेत तैयार करते समय मिट्टी में
मिला देते हैं।
इसके अलावा 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 60 किलोग्राम पोटाश प्रति
हेक्टेयर की दर से
इस्तेमाल करें। फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा और एक तिहाई नाइट्रोजन
की
मात्र मिट्टी में मिला दें और थाले बनाएं। बची नाइट्रोजन को 2 हिस्सों में बांट कर बोआई के
25- 30 दिन बाद नालियों में टॉप ड्रेसिंग करें और
गुड़ाई करके मिट्टी चढ़ाएं। दूसरी मात्रा पौधों की
बढ़वार के समय फल निकलने के
पहले टॉप ड्रेसिंग के रूप में दें। यूरिया का पत्ताें पर छिड़काव
करना सही रहता
है। समय-समय पर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए। जब पौधे पूरी तरह तैयार हो
जाते
हैं, तो खरपतवार का
असर फसल के ऊ पर नहीं पड़ता।
खरपतवार खत्म
करने के लिए स्टौम्प 3 लीटर प्रति
हेक्टेयर की दर से 1 हजार लीटर
पानी में घोल
कर बोआई के 48 घंटे के भीतर छिड़काव करें। बोआई के 30-35 दिन बाद नालियों या थाले की
गुड़ाई कर के
मिट्टी चढ़ा देते हैं। गरमी की फसल को 5-7 दिन और जाड़े की फसल को 10-15 दिन
पर पानी देना चाहिए। ज्यादा बारिश हो
तो खेत से फालतू पानी निकाल दें। खरबूज और तरबूज की
फसल में फलों की बढ़वार होने
के बाद पानी देना चाहिए, नहीं तो मिठास
कम हो जाती है। गरमी
वाली कद्दूवर्गीय सब्जियों में सहारा देने की जरूरत नहीं
पड़ती है, लेकिन बरसात
वाली फसल में
पौधों को किसी मचान या किसी बांस वगैरह से सहारा देने पर उन की
बढ़वार और उपज पर अच्छा
असर पड़ता है।
लौकी की खेती
जायद और खरीफ, दोनों मौसम
में की जाती है। सब्जियों के अलावा इसके कच्चे
फलों से रायता, कोफ्ता, अचार, हलवा, खीर वगैरह भी बनाई जाती है। गरमी वाली लौकी
की बोआई
फरवरी से मार्च व बरसात की फसल जूनजु लाई महीने में करते हैं। 1 हेक्टेयर में बोआई के लिए
4-5 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है। बोने से
पहले बीज को थीरम या कैप्टान दवा से उपचारित
कर लें। खेत में 2 मीटर की दूरी पर 30 सेंटीमीटर चौड़ी नाली बना लेते हैं। इस
नाली के दोनों
किनारों पर 30- 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बीज की बोआई करते हैं। एक जगह पर 2 बीज को लगाते
हैं। बीज जमने के बाद 1 पौधा निकाल देते हैं। जरूरत के अनुसार
सिंचाई करते हैं। जब फल कोमल
व मुलायम हो, तभी तोड़ना चाहिए।
फलों की
तुड़ाई 4-5 दिन के अंतर
पर करते रहनी चाहिए। इसकी औसत उपज 150 कुंतल प्रति
हेक्टेयर होती है। चिकनी तुरई
या नेनुआ की खेती गांवों में घर-घर होती है। जब फल मुलायम व
कोमल हो तभी
इस्तेमाल में लाया जाता है। इसके सूखे हुए फल के स्पंज को नहाने के लिए, बरतन
साफ करने के लिए या कारखानों में
सामान पैक करने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। इसके
बीजों से तेल भी निकाला
जाता है। 1 हेक्टेयर खेत
की बोआई के लिए 5-6 किलोग्राम बीज
की
जरूरत होती है।
चिकनी तुरई की
गरमी में बोआई करते हैं। फरवरी- मार्च और बरसात की फसल की बोआई
जून-जुलाई महीने
में करते हैं। इसकी बोआई के लिए 3 मीटर की दूरी पर 40-50 सेंटीमीटर
चौड़ी
और 20-30 सेंटीमीटर
गहरी नालियां बनानी चाहिए। नालियों पर 50-60 सेंटीमीटर की दूरी पर दोनों
तरफ बीज की
बोआई करते हैं। 1 स्थान पर 2 बीज लगाते हैं। फलों की तोड़ाई में थोड़ी
सी भी देर
होने पर फलों की क्वालिटी में कमी आ जाती है। फलों की छोटी व कोमल
अवस्था में तोड़ाई करते
रहने से फल लगने का काम काफी दिनों तक चलता है। चिकनी
तुरई की औसत उपज 150-200
क्विंटल प्रति
हेक्टेयर होती है।
करेला अपने
औषधीय गुणों के कारण सब्जियों में खास जगह रखता है। इसकी खेती खरीफ और ग
रमी, दोनों मौसम में की जाती है। इसके फल सब्जी, कलौंजी व अचार बनाने के काम में आते हैं।
इसका इस्तेमाल पेट की बीमारी के लिए फायदेमंद होता है।
करेले का रस
मधुमेह यानी डायबिटीज के लिए बहुत अच्छा होता है। मैदानी इलाकों में गरमी की
बोआई फरवरी-मार्च, बरसात के लिए
जून-जुलाई में और पहाड़ी इलाकों में मार्च-अप्रैल महीने में
करते हैं। 1 हेक्टेयर खेत की बोआई के लिए 5-6 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है।
कल्याणपुर
बारहमासी किस्म की बीज दर 3-4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है। अच्छी
तरह से तैयार किए गए
खेत में 2 मीटर की दूरी पर 40-50 सेंटीमीटर
चौड़ी नाली बना कर नालियों के दोनों किनारों पर बीज
की बोआई करते हैं। एक जगह पर
2-3 बीज बोने
चाहिए।
सिंचाई, मिट्टी की किस्म और मौसम के मुताबिक करनी
चाहिए। खरीफ में सिंचाई करने की जरूरत
नहीं होती। ज्यादा बरसात के समय पानी की
निकासी का इंतजाम करें। गरमी में ज्यादा तापमान
होने के कारण मार्च-अप्रै¶ में 7-10 दिन के अंतर पर और मई-जून में 4-5 दिन पर सिंचाई करनी
चाहिए। जब फलों का रंग
गहरे हरे से हलका हरा पड़ना शुरू हो जाए तो फलों की तोड़ाई कर लें।
फलों की तोड़ाई
एक तय अंतर पर करते रहना चाहिए। बोने के 60 से 75 दिन बाद फल
तोड़ने
लायक हो जाते हैं।
करेला की
पैदावार प्रति हेक्टेयर 150 कुंतल हो सकती
है।
काशीफल या
कुम्हड़ा कद्दू-
कुल की सब्जियों में सीताफल यानी काशीफल का
अलग स्थान है। इसके बड़े और गूदेदार फल,
पके व कच्चे, दोनों रूपों
में सब्जी के ¶िए इस्तेमाल
में लाए जाते हैं।
सीताफल से
सब्जी और कोफ्ता के अलावा टमाटर के साथ मिला कर केचअप भी बनाते हैं। फल में
विटामिन ए, बी और सी
अच्छी मात्रा में पाया जाता है। इसे सामान्य ताप पर कई महीनों तक
रखा जा सकता
है। खेत की तैयारी करते समय 20-25 टन कंपोस्ट या सड़ी गोबर की खाद डाल कर
खेत में अच्छी तरह से मिला दें। इसके
अलावा 60 किलोग्राम
नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम
फास्फोरस
और 50 किलोग्राम
पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। गरमी वाली फसल की बोआई
फरवरी-मार्च
और बरसात वाली फसल की बोआई जून-जुलाई महीने में करते हैं। पहाड़ी इलाकों में
बोआई मार्च-अप्रै¶ के महीने में
की जाती है।
तमिलनाडु में
इस की बुवाई जून से अगस्त और दिसंबर से जनवरी महीने में की जाती है। केरल
में
बुवाई का समय नवंबर से फरवरी है। एक हेक्टेयर खेत की बुवाई के ¶िए 5-6 कि¶ोग्राम बीज
चाहिए।
गरमी की फस¶ के ¶िए लाइन से लाइन की दूरी ढाई मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 75 सेंटीमीटर
होनी चाहिए। बीज लगाने के ¶िए 80 से 100 सेंटीमीटर
चौड़ी ना¶ियां बना ¶ेते हैं। मेंड़ों पर
बुवाई करने से पह¶े रासायनिक उर्वरक और गोबर की खाद अच्छी
तरह मिलाते हैं। ना¶ियों के
दोनों
किनारे पर एक जगह पर 2 बीज की बुवाई 2-3 सेंटीमीटर की गहराई पर करते हैं। सीताफल
की
खेती जब बरसात में की जाती है, तो फस¶ को सिंचाई की
जरूरत नहीं पड़ती है, ¶ेकिन मौसम
जब
सूखा रहता है तो पानी लगाते हैं। गरमी वा¶ी फस¶ में 5-7 दिन के अंतर पर सिंचाई करते
रहें। तना
बढ़ते समय, फूल आने से पह¶े और फल बनते समय पानी की कमी होने पर उपज
में
कमी हो जाती है। इस¶िए इन मौकों
पर पानी की कमी नहीं होनी चाहिए। फल पकने पर
स्ंिाचाई नहीं करते हैं। बाजार की
मांग के मुताबिक फल को कच्चा या पका तोड़ ¶ेते हैं। कच्चे
फल के ¶िए फल लगने के 8-10 दिन के अंदर
तोड़ाई करते हैं। हरे फल को किसी तेज धारदार
चाकू से इस तरह पौध से अलग करना
चाहिए कि पूरे पौधे को झटका न ¶गे। इसकी औसत उपज
प्रति हेक्टेयर 350- 400 कुंटल होती है। फल को सामान्य तापमान पर 3 से 7 महीने तक रखा जा
सकता है।
फसल सुरक्षा
लाल कद्दू
भृंग –
यह कीट चमकीले
नारंगी रंग का होता है। इस कीट के भृंग और जवान, दोनों ही फस¶ को नुकसान
पहुंचाते हैं। भृंग जमीन के नीचे रहते हैं। पौधों की जड़ों व तनों में छेद कर
देते हैं। इस के प्रौढ़
पौधों की छोटी पत्तियों को पसंद करते हैं। इस कीट का
हमला फरवरी से ¶े कर अक्तूबर
महीने
तक होता है।
अंकुरण के बाद
बीज से ¶ेकर 4-5 पत्ती वा¶ी पौध इस कीट की चपेट में होती है। रोकथाम
गरमी में खेत की गहरी जुताई करनी
चाहिए, जिससे इस कीट
के अंडे व भृंग ऊ पर आकर तेज
गरमी से मर जाएं।
जवान कीट को
हाथ से पकड़ कर खत्म कर देना चाहिए। कार्बारिल-50 डब्ल्यूपी 2 ग्राम प्रति
लीटर
पानी के हिसाब से घो¶ बना कर छिड़काव करना चाहिए या 5 फीसदी सेविन पाउडर को 25
कि¶ोग्राम प्रति
हेक्टेयर की दर से राख में मिला कर भुरकाव करने से इस कीट पर काबू किया जा
सकता
है। फल मक्खी इस मक्खी का रंग ला¶ भूरा होता है। इसके सिर पर का¶े और सफेद धब्बे
होते हैं। करेला, ्क्षटडा, तुरई, ¶ौकी, खरबूजा, तरबूज वगैरह
सब्जियों को यह मक्खी नुकसान
पहुंचाती है। मादा मक्खी फल में छेद कर अंडे देती
है। बच्चे अंडे से निकल कर फ¶ों के अंदर का
हिस्सा खा कर खत्म कर देते हैं। यह मक्खी, फल के जिस भाग पर छेद कर के अंडा देती है, वह
भाग वहां से टेढ़ा हो कर सड़ जाता है।
रोकथाम करने को खराब फ¶ों को तोड़ कर
खत्म कर देना
चाहिए। गरमी में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए। 20 एमएल मे¶ाथियान-50 ईसी और 2 सौ
ग्राम चीनी या गुड़ को 20 लीटर पानी में मिला कर कुछ चुने हुए पौधों
पर छिड़काव करें। जिस से
यह कीट उन पौधों पर आए और चिपक कर मर जाए। 0.1 फीसदी कार्बारिल (2 ग्राम प्रति लीटर
पानी) का छिड़काव
फायदेमंद है। दवा का छिड़काव फल तोड़ कर ही करना चाहिए।
चुणल आसिता-
जाड़े वा¶ी ¶ौकी, कुम्हेड़ा पर लगने वा¶ी बीमारी है। पत्तियों और तनों की सतह पर
सफेद या
धुंध¶े धब्बे बन
जाते हैं। कुछ दिनों के बाद वे आटे की तरह हो जाते हैं। सफेद आटा पूरे पौधे को
ढक ¶ेता है। इस के
कारण फ¶ों का आकार
छोटा रह जाता है।
रोकथाम-
बीमार फस¶ को खेत में ही ज¶ा देना चाहिए।
बोने के ¶िए रोगरोधी
किस्मों का चयन करें।
फंफूदीनाशक
दवा जैसे गैमेक्सीन आधा एमएल दवा एक लीटर पानी में घो¶ बना कर 7 दिन के
अंतर पर छिड़काव करें। इस के अलावा पेंकोनाजो¶ का इस्तेमा¶ भी कर सकते हैं।
मृदुरोमिल
असिता-
यह बीमारी खीरा, परव¶, खरबूजा और करे¶े में होती है। बरसात के बाद जब तापमान 20-22 डिग्री
सेल्सियस हो, तब यह बीमारी फैलती है। इस में पत्तियों पर
धब्बे बनते हैं। ज्यादा नमी होने पर
पत्ती की निचली सतह पर फंफूद दिखाई देती है।
रोकथाम-
हमेशा रोगरोधी किस्मों का इस्तेमा¶ करना चाहिए। बीजों को एप्रोन नामक दवा से
उपचारित कर
के बोना चाहिए। मैंकोजेव की ढाई ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी के घो¶ का छिड़काव करें। बीमार
बे¶ों को निका¶ कर ज¶ा देना चाहिए।
मूल ग्रंथि
बीमारी-
यह बीमारी गो¶मि के जड़ों पर हम¶े से होती है।
परव¶, कुम्हड़ा, खरबूजा में ज्यादा पाई जाती है।
इस के हम¶े से पौधों का विकास रुक जाता है।
पत्तियां पी¶े रंग की हो जाती हैं। बीमार पौधों में फल
बहुत कम लगते हैं।
रोकथाम-
गरमी की जुताई करें और एक बार सिंचाई कर के
फिर गरमी में ही जुताई करें। रोगरोधी किस्मों
को लगाना चाहिए। धान के साथ इन
सब्जियों का फस¶ चक्र अपनाएं।
टमाटर, बैगन, मिर्च को फस¶
चक्र में शामिल न करें। खेत में एक सा¶ गेंदा की खेती करें। खेत में 25 कुंटल प्रति हेक्टेयर की दर
से नीम की खली या अरंडी की खली मिलानी चाहिए।
मिट्टी में बहुत ज्यादा सूत्रमि हो जाने पर
नेमागोन नामक दवा 12 लीटर प्रति हेक्टेयर इस्तेमा¶ करना चाहिए।
जड़ विगलन-
यह बीमारी आमतौर पर खीरा व खरबूजा में पाई
जाती है। बीज सड़ने लगता है। बीज और नए
पत्ते ह¶के पी¶े हो कर मरने
लगते हैं। नए पौधे का तना अंदर की तरफ भूरा हो कर सडने लगता
है। पौधे की जड़ भी
सड़ जाती है, जिस के कारण
पौधा सूख जाता है।
रोकथाम-
खेत की गरमी में जुताई करें। हरी खाद का
इस्तेमा¶ कर के
ट्राइकोडरमा 5 कि¶ोग्राम प्रति हेक्टेयर
की दर से खेत में डा¶ें। बीमारी ¶गे पौधों को खेत से निका¶ कर ज¶ा देना चाहिए।
बीज को
काबर्ंडाजिम दवा से उपचारित कर के बोना चाहिए। धान व मक्का के साथ 4 सा¶ तक का फस¶
चक्र अपनाना
चाहिए। यह बीमारी हर जगह और हर खेत में पाई जाती है। घीया, तुरई, परव¶ व
करेला के फ¶ों पर फफूंद होने से फल सड़ने लगता है।
जमीन पर पड़े फ¶ों का छिलका
नरम व
गहरे हरे रंग का हो जाता हैं। नमी होने पर इस सड़े हुए भाग पर रूई की तरह
फंफूद हो जाती है।
भंडारण और
परिवहन के समय भी फ¶ों में यह
बीमारी फैलती है। रोकथाम खेत की गरमी में
जुताई करें। हरी खाद डा¶ कर ट्राइकोडरमा 5 कि¶ोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डा¶ें।
खेत में पानी
निकासी का इंतजाम करें। फ¶ों को जमीन में लगने से बचाएं। फस¶ को तार व खंभे
के ऊपर चढ़ा कर खेती करने से यह बीमारी कंट्रो¶ में रहती है। एंथ्रेकAोज व सर्कोसपोरा पत्तियों
पर भूरे या ह¶के रंग के धब्बे पाए जाते हैं। पत्तियां
सिकुड़ कर सूख जाती हैं। ये धब्बे तने व फ¶ों पर भी पाए जाते हैं। यह बीमारी खरीफ में ज्यादा आती है। दोनों बीमारी
तकरीबन साथ ही आती हैं। रोकथाम करने के लिए बीज को काबर्ंडाजिम से उपचारित कर के
बोना चाहिए। खेत में बीमारी दिखाई देने पर काबर्ंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी का घो¶ का 10 दिन के अंतर पर छिडकाव करना चाहिए।
संकर किस्मों
का इस्तेमा¶ कम करें और फस¶ के कचरे को ज¶ा दें। मोजेक वायरस बीमारी में नई
पत्तियों
में चितकबरापन और सिकुड़ापन के रूप में होती है। पत्तियां छोटी व पीली हो जाती
हैं।
फूल छोटी पत्तियों में बद¶े हुए दिखाई पड़ते हैं। कुछ फूल गुच्छों में बदल जाते हैं। पौधा बौना रह
जाता है। उस में फल बिल्कुल नहीं लगता है। रोकथाम करने के लिए खेत से बीमार
पौधों को
उखाड़ कर ज¶ा देना चाहिए।
खेत के आस-पास से जंगली खीरा व इस बिरादरी के दूसरे
खरपतवारों को खत्म कर दें।
रोगरोधी किस्मों का चुनाव करना चाहिए। संकर किस्मों का इस्तेमा¶
कम करें। मै¶ाथियान 0.1 फीसदी का घो¶ बना कर 10 दिन के अंतर में 2-3 बार छिड़काव
फूल
आने तक करें।
काशीफल या
कुम्हड़ा कद्दू-
काशीफल या कुम्हड़ा कद्दू कुल की सब्जियों में
सीताफल यानी काशीफल का अलग स्थान है।
इसके बड़े और
गूदेदार फल, पके व कच्चे, दोनों रूपों में सब्जी के ¶िए इस्तेमाल में लाए जाते हैं।
सीताफल से
सब्जी और कोफ्ता के अलावा टमाटर के साथ मिला कर केचअप भी बनाते हैं।
फल में
विटामिन ए, बी और सी
अच्छी मात्रा में पाया जाता है। इसे सामान्य ताप पर कई महीनों
तक रखा जा सकता
है। खेत की तैयारी करते समय 20-25 टन कंपोस्ट या सड़ी गोबर की खाद डाल
कर खेत में अच्छी तरह से मिला दें। इसके
अलावा 60 किलोग्राम
नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम
फास्फोरस और 50 किलोग्राम
पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। गरमी वाली फसल की
बोआई फरवरी-मार्च
और बरसात वाली फसल की बोआई जून-जुलाई महीने में करते हैं।
पहाड़ी इलाकों
में बोआई मार्च-अप्रै¶ के महीने में
की जाती है।
तमिलनाडु में
इस की बुवाई जून से अगस्त और दिसंबर से जनवरी महीने में की जाती है।
केरल में
बुवाई का समय नवंबर से फरवरी है।
एक हेक्टेयर
खेत की बुवाई के ¶िए 5-6 कि¶ोग्राम बीज चाहिए।
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Source –
KalpatruExpress News Papper
|
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रविवार, 1 जून 2014
सबकी सेहत बनाएं कद्दू बिरादरी की सब्जियां
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