मंगलवार, 5 अगस्त 2014

मानवता ही सर्वप्रथम है


बेहतर विकल्प तो यह होता है कि उन्हीं विद्यालयों व विश्वविद्यालयों में ऐच्छिक विषय का चुनाव कर धर्म व समाज को पढ़ने व सीखने की स्वतंत्रता प्राप्त होती। जहां एक धर्म विशेष के व्यक्ति संकुचित दायरों में न रहकर आपसी तालमेल व सामंजस्य के साथ अन्य विषयों को भी जान सकते। पहले से स्थापित विद्यालयों व विश्वविद्यालयों में ही विषयवार शिक्षक नियुक्त कर दिए जाते। शायद इस राह पर चलकर हम संकुचित दायरों में नहीं रहते और समाज व धर्म को स्वतंत्रता प्राप्त होती।
यदि दोनों धर्म के व्यक्ति शिक्षा प्राप्ति के लिए एक ही राह पर विद्यालय जाते तो शायद एक राहगीर की भांति दोनों की मुलाकातें होती रहतीं और शायद मित्रता पनपने व आपसी समझ बढ़ाने का बेहतर विकल्प रहता परंतु हमारे राजनीतिज्ञों व धर्म गुरुओं ने इन सबके लिए स्थान ही नहीं रहने दिया। जिन विद्यालयों व विश्वविद्यालयों में इस प्रकार की शिक्षा का समावेश है, वहां के विद्यार्थियों में आपसी सामंजस्य देखने को मिलता है। जहां धर्म से मानवीयता का स्तर ऊंचा है। आज आवश्यकता है कि प्रत्येक धर्म के मूल मानवीयता को हम अंगीकृत कर सकें। जहां द्वेषता व वैमनस्यता के पौधे बड़े न हो सकें, यही सच्चाई हमारी देश व समाज को सच्ची र्शद्धांजलि होगी और हम सच्चे देशभक्त होने के साथ मानवीय धर्म के प्रचारक व प्रसारक होंगे, जो सभी धर्मों की जड़ है। यदि हमारा सभ्य समाज इस प्रकार का आचरण करता तब शायद कुछ मुद्दे स्वत: ही हल हो जाते और प्रेम, तपस्या व बलिदानियों की यह धरती स्वयं को गौरवान्वित महसूस करती। यही सही अथरें में सच्चा देश प्रेम कहलाता और भारत की सुगंधित वायु मानव मात्र के जीवन को प्रसन्नता प्रदान करती। जब हम सब भारत के नागरिक हैं, तब हम सबकी नागरिकता भारतीय है। भले ही हम भारत के किसी भी प्रान्त के क्यों न हों, परंतु हमारा सभ्य समाज इसे स्वीकार नहीं कर पाता। हमारा सबसे प्रथम पहलू मानवीयता है। सच्चाई यही है कि ईश्वर की र्शेष्ठ रचना मानव है। यह ईश्वर द्वारा प्रदत्त सबसे सुंदर कृति है। लाखों योनियों के पश्चात हमें यह मानव शरीर प्राप्त हुआ है और हम अपने दम्भ व अभिमान के कारण, मानव के मानवीय पहलू पर ही अपना ध्यान नहीं देते। बल्कि हमने अपने निजी स्वाथरें के वशीभूत होकर, मानवीय जीवन के उत्कृष्ट पहलू पर ही कैंची चला दी है। आज आप जहां भी जाएंगे, आपको क्षेत्रीयता व जातिवाद का बोलबाला प्रतीत होगा। इतिहास के अनुसार माना जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था के आधार को मानकर जातिगत वर्गीकरण किया गया था।
* परंतु वर्ण भेद की व्यवस्था के अनुसार क्या आज समाज चल रहा है?
* क्या किसी जाति विशेष को कर्म के साथ बांधा गया है? इस पर विचार करें। आज समाज को आर्थिक व कार्मिक स्तर पर बांटा गया है या फिर समाज स्वयं बंट चुका है। व्यक्ति जिस कर्म को अपनाना चाहता है, अपनाकर उसी कर्म द्वारा अपनी जीविका चला रहा है। यह सच है कि समाज के साथ हमारे राजनीतिक शरणदाताओं ने भी विभाजन में सहयोग दिया। सभी कुछ निहित स्वाथरें के वशीभूत होकर किया गया और इसी वर्ण भेद ने हमें समाज में हीनता का एहसास कराया है।
(पुस्तक मैं और मेरा समाजसे साभार)

Cortesy- Kalpatruexperss Newspapper




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