आज अत्याधुनिक युग में भी अनेक युवा; स्वामी विवेकानंद जी की बातों का अनुसरण करते हैं एवं उनके उपदेशों को आत्मसात करने का प्रयास कर रहे है। युवाओं में अत्यधिक लोकप्रिय स्वामी विवेकानंद जी ने युवाओं की जिज्ञासाओं का
Swami Vivekananda |
समय-समय पर अत्यधिक सहज और तर्क संगत तरीके से समाधान किया है। स्वामी जी के अनेक प्रसंग आज भी हम सभी के लिए पथ-प्रदर्शक हैं। ऐसे ही एक प्रसंग को आप सबसे साझा करने का प्रयास कर रहे हैं।
स्वामी विवेकानंद जी जब अलवर प्रवास पर थे तब एक दिन कुछ युवा अपनी जिज्ञासा शांत करने स्वामी जी के पास उपस्थित हुए। इस तरह की बैठक लगभग रोज ही हुआ करती थी। स्वामी जी के प्रभाव का ऐसा असर हुआ कि अलवर में युवाओं का एक समूह बन गया, जो पूर्ण सन्यास नही लेना चाहता था किन्तु आध्यात्म के नियमों के अनुसार जीवन को धर्म की मर्यादा में रहकर जीना चाहता था।
उन युवकों में पूरन नाम का एक युवक था , उसने बात शुरू करते हुए स्वामी जी से कहा कि, स्वामी जी मेरी एक व्यक्तिगत समस्या है। स्वामी जी बोले निसंकोच अपनी समस्या कहो; हो सकता है तुम्हारी समस्या और भी भाइयों से सम्बंधित हो। स्वामी जी के अपनेपन की भावना से अभीभूत होकर पूरन बोला “स्वामी जी न तो मैं भिक्षा माँग सकता हूँ और न अपने माता-पिता को असहाय अवस्था में छोङ सकता हूँ। घर परिवार की जिम्मेदारी हेतु मुझे आजीविका तो चाहिये।”
स्वामी जी बोले, “आजीविका किसे नही चाहिये पुत्र !”
पूरन आगे बोला, “स्वामी जी आप हमें सच्चाई से जीना सिखाते हैं, ईमानदारी और साहस जैसे गुणों की चर्चा करते हैं। सात्विक और निस्वार्थ सेवा से परिपूर्ण जीवन जीने के लिये कहते हैं; किन्तु क्या ये संभव है? जो व्यक्ति नौकरी में है, उसके लिये तो ये सेवा निःस्वार्थ नही हो सकती क्योंकि हम इसे आजीविका के रूप में करते हैं। बदले में वेतन लेते हैं और यदि व्यापार की बात करें तो, व्यापार सत्य एवं सरलता से संभव नही है। व्यापार में तो सच-झूठ बोलना ही पड़ता है। ऐसे में हम इस संसार में नैतिकता की रक्षा कैसे कर सकते हैं।”
स्वामी जी मुस्कराते हुए बोले, तुम्हारी पीड़ा यथार्त है पुत्र ! नौकरी करते हुए एक बात स्मरण रखो कि तुम जिसके पास नौकरी कर रहे हो, वह तुम्हारा स्वामी है किन्तु तुम्हारा एक स्वामी और भी है, उसने तुमको ये जीवन दिया और इस सृष्टी की रचना की है। नौकरी किसी की भी करो; किन्तु अपने वास्तविक स्वामी के विरुद्ध कैसे जा सकते हो। यदि स्वार्थवश किसी का अहित करते हो तो अपने वास्तविक स्वामी का उलंघन करते हो। थोङा ईश्वर पर भरोसा करना सीखो, सत्य के लिये थोङा भरोसा करना सीखो। स्वामी जी हँसते हुए बोले ” अपने सांसारिक लोभ की रक्षा करते हुए हम सात्विक जीवन नही जी सकते। हित और लोभ में अंतर समझो। लोभ में हित नही होता। हित का लोभ करो, लोभ का हित नही। सांसारिक लोभ के प्रवाह में आत्मा का पतन हो जाए तो ये लाभ का सौदा नही है।”
स्वामी जी थोडा. रुके , फिर चर्चा को आगे बढाते हुए बोले “तुमने कृषी की चर्चा ही नही की। तुम देख रहे हो, जो युवक अंग्रेजी के दो अक्षर पढ लेते हैं वो अपने गॉव को छोङ कर नौकरी के लिये शहर की ओर भाग रहे हैं। वहाँ वह कुर्सी पर बैठकर ऐसे काम करना चाहते हैं कि कपङे और हाँथ गंदे न हों भले ही आत्मा चाहे कितनी भी मलीन हो जाए।”
बातचीत इतनी आत्मीयता के वातावरण में हो रही थी कि और भी युवक बेझिझक अपनी जिज्ञासा को प्रश्नों के माध्यम से पूछ रहे थे। सरमा नामक युवक ने स्वामी जी से कहा कि, खेती में तो न सम्मान है और न पैसा है। जिसको देखिये किसान को हाँककर अपना काम करवा लेता है। ज़मींदार, सरकारी अधिकारी, गॉव का बनिया सब उसके स्वामी बन जाते हैं।
स्वामी जी बोले पुत्र, ” अपने स्वभाव को पहचानों और अपने स्वधर्म को जानो। हम लोग एक भूल करते हैं कि, अपने वंश या व्यवसाय के अनुसार अपना स्वभाव बनाने का प्रयत्न करते हैं। जबकि होना चाहिये कि हम अपने स्वभाव के अनुसार अपना व्यवसाय चुनें। अपना वंश चुनना हमारे हाँथ में नही है।”
सरमा वापस बोला, किन्तु स्वामी जी अब किसान क्या कर सकता है! अपने बेटे के हाँथ में हल और बैल ही पकङा सकता है और उसी तरह बनिया अपने बेटे को दुकान पर ही तो बैठा सकता है!
स्वामी जी ने कहा कि पुत्रों एक कथा सुनाता हुँ, गुरु नानक एक खत्री परिवार के घर में जन्म लिये थे। खत्री संभवतः आरंभ में क्षत्रिय थे; किन्तु किसी समय उनके क्षत्रिय संस्कार छूट गये और वे खत्री हो गए। जब नानक बङे हुए तो उनके व्यापारी पिता ने उन्हे कुछ पुंजी दी और सौदा करके आने को कहा। गुरु नानक अपने वंश के अनुसार नही चले, वे अपने स्वभाव के अनुसार चले। अपनी आर्थिक पूंजी उन्होने आर्थिक लाभ के किसी व्यापार में नही लगाई। वे उसे गरीबों में बांट आए। घर लौटने पर उनके पिता ने पूछा “सौदा कर आए? उन्होने उत्तर दिया, हाँ पिता जी ! सच्चा सौदा कर आया।”
नानक जी की कथा सुनकर सरमा बोला, “स्वामी जी वे गुरु नानक थे इसलिये ऐसा कर पाए। हम साधारण जन ऐसा कैसे कर सकते हैं?”
स्वामी विवेकानंद हँस पङे और बोले ” ये तो सत्य है कि वे गुरु नानक थे, इसलिये ऐसा कर सके; किन्तु तुम अपना विकास कर, महान पुरुषों के समान व्यवहार क्यों नही कर सकते- यह क्यों नही मानते हो कि तुममें भी वही ब्रह्म है, जो महान पुरुषों में विद्यमान है। स्वयं पर विश्वास करना सीखो।
इसबार धनराज ने प्रश्न किया, स्वामी जी ये सब तो ठीक है! पर मुझे आप बताइये कि किसान का बेटा चाहे तो कैसे पढ सकता है और पढ भी जाए तो समय नष्ट करने के सिवाय उसका लाभ क्या होगा?
स्वामी जी बोले पुत्र, ” राजा जनक को स्मरण करो. उनके एक हाँथ में हल था और दूसरे में हाँथ में वेद। इसका अर्थ समझते हो?”
स्वामी विवेकानंद जी ने समझाते हुए कहा कि इसका अर्थ है, “राजा जनक कृषी और ज्ञान को एकसाथ महत्व दे रहे थे। वे सांसारिक ज्ञान और और आध्यात्मिक ज्ञान दोनो का महत्व समझते थे और इसलिये वे किसी की भी उपेक्षा नही करते थे। वैसे राजा जनक अपने राजा के धर्म को निभाने के लिए हल रख कर तलवार भी उठाने में सक्षम थे।”
धनराज ने पूछा कि स्वामी जी राजा जनक का वर्ण क्या था?
स्वामी जी ने कहा कि, ” यदि मुझसे पूछोगे तो मैं यही कहुंगा कि वे ब्राह्मण थे क्योंकि उनका स्वभाव एक अनासक्त ज्ञानी का स्वभाव था; किन्तु प्रजापालन के लिए वे कृषि को महत्व देते थे और प्रजारक्षा के लिए शस्त्रों को। हमारे यहाँ आजकल यह हो रहा है कि जिसको ज्ञान है वह कृषि नही कर रहा और जो कृषि कर रहा उसे किसी प्रकार का ज्ञान नही है। हमें वैज्ञानिक ढंग से खेती करनी चाहिए, ताकि हमारे खेतों की उपज बढे। हमारे युवक पढ-लिख कर नगरों की ओर नही गाँवों की ओर बढे। हमारे गॉव में जो ज्ञान की भूख है, उसे देखो। पढा-लिखा आदमी जाकर जब ग्रामीणों के बीच बैठता तो वे उसका सम्मान करते हैं। इस प्रकार ऊँच-नीच का भेद कम होता है। समाज में समरसता आती है। स्वामी जी सरमा की तरफ मुखातिब होते हुए बोले सरमा ! तुम भी ज्ञान प्राप्त करके खेती करो।”
स्वामी विवेकानंद जी ने सभी युवाओं की तरफ देखते हुए कहा कि, “तुम लोग संस्कृत और अंग्रेजी दोनो पढो। संस्कृत इसलिए कि अपने देश, अपने धर्म , अपने प्राचीन ज्ञान को जान सको और अंग्रेजी इसलिए कि पश्चिम से आए आधुनिक ज्ञान से परिचित हो सको।”
मित्रों, ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि स्वामी विवेकानंद जी ने युवाओं को आने वाली परेशानियों से बचाने के लिए अति-उत्तम उपाय बतायें हैं। आजकल की परिस्थिती पर यदि गौर करें तो अनेक युवा गॉव से शहर पढने आते हैं और आज की गलाकाट मंहगी शिक्षा का बोझ उनके माँ-बाप को कर्ज के रूप में उठाना पङता है। आलम ये है कि शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात युवा गॉव वापस नही जाते क्योंकि व्हाईट कॉलर वाले युवाओं को मिट्टी में काम करना रास नही आता। शहर के हालात ये है कि ज्यादा तनख्वाह की उम्मीद लिये युवकों को उचित रोजगार नही मिलता जिससे वे गलत रास्ते का चयन करके स्वयं को बरबादी के रास्ते पर ले जाते हैं और माँ-बाप की उम्मीद पर पानी फेर देते हैं।
मित्रों, स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस पर हम सब उनके सपनो को साकार करने का प्रण करें और उनके द्वारा बताई गई युवाओं की विशेषता को अंगीकार करें क्योंकि विवेकानंद जी के अनुसार, युवा वो है जो अनिति से लङता है, दुर्गुणों से दूर रहता है, काल की चाल को अपने सामर्थ से बदल सकता है। राष्ट्र के लिए बलिदान की आस्था लिये एक प्रेरक इतिहास रचता है। जोश के साथ होश लिये सभी समस्याओं का समाधान निकाल सकता है। वो सिर्फ बातों का बादशाह नही है; बल्की उत्तम कर्मों द्वारा उसे साकार करने में सक्षम है।
जय भारत
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