भूमि अधिग्रहण विधेयक : क्या, क्यूं और कब तक
भारत में आधी से ज़्यादा आबादी के लिए आय का प्रमुख साधन भूमि है|
जबकि
- केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में औसत जोत का आकार आधे से दो एकड़ के बीच है|इस संदर्भ में देखें तो फ्रांस में भूमि जोत का आकार औसतन 110 एकड़, अमरीका में 450 एकड़ और ब्राजील और अर्जेंटीना में तो इससे भी अधिक है|
- भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती सबसे कम उत्पादक क्षेत्र है| देश के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी है जबकि खेतों में काम करने वालों की संख्या देश के कुल कार्यबल के आधे से अधिक है|
- इस तरह ज़मीन भारत का दुलर्भतम संसाधन तो है ही, साथ ही, इसकी उत्पादकता भी बेहद कम है| ये एक गंभीर समस्या है और ये भारत की ग़रीबी का मूल कारण भी है|
क्या है भूमि अधिग्रहण विधेयक
भारत सरकार ने भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास के लिए विधेयक का जो मसौदा तैयार किया है उसके प्रावधानों के मुताबिक मुआवज़े की राशि शहरी क्षेत्र में निर्धारित बाजार मूल्य के दोगुने से कम नहीं होनी चाहिए जबकि ग्रामीण क्षेत्र में ये राशि बाजार मूल्य के छह गुना से कम नहीं होनी चाहिए|
स्पष्ट है कि ज़मीन के अधिग्रहण और पुनर्वास के मामलों को एक ही क़ानून के तहत लाए जाने की योजना है|
'भूमि अधिग्रहण तथा पुनर्वास एंव पुनर्स्थापना विधेयक 2011' के मसौदे में इस बात का प्रावधान है कि अगर सरकार निजी कंपनियों के लिए या प्राइवेट पब्लिक भागीदारी के अंतर्गत भूमि का अधिग्रहण करती है तो उसे 80 फ़ीसदी प्रभावित परिवारों की सहमति लेनी होगी|
मसौदे में लिखा गया है कि सरकार ऐसे भूमि अधिग्रहण पर विचार नहीं करेगी जो या तो निजी परियोजनाओं के लिए निजी कंपनियाँ करना चाहेंगी या फिर जिनमें सार्वजनिक परियोजनाओं के लिए बहु-फ़सली ज़मीन लेनी पड़े|
यानी अगर ये विधेयक क़ानून बन जाता है तो बहु-फ़सली सिंचित भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा|
सरल, पारदर्शी, तटस्थ
मसौदे की भूमिका में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने विधेयक के लक्ष्यों के बारे में लिखा है, "प्रत्येक मामले में भूमि का अधिग्रहण इस तरह किया जाए कि इससे भू-स्वामियों के हितों की पूरी तरह से सुरक्षा हो और साथ ही उस ज़मीन से जीविका चलाने वालों के भी हित सुरक्षित रहें."
जयराम रमेश ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि इस विधेयक का उद्देश्य भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को सरल, पारदर्शी और प्रत्येक मामले में दोनों पक्षों के लिए तटस्थ बनाना है|
हाल के वर्षों में हुए भूमि अधिग्रहण में अरजेंसी प्रावधान की काफ़ी आलोचना हुई है. इसके तहत सरकारें ये कहकर किसानों की ज़मीने बिना सुनवाई के तुरत फुरत ले लेती हैं कि परियोजना तत्काल शुरू करना ज़रूरी है|मौजूदा क़ानून के इस प्रावधान में सरकार राष्ट्र हित में किसी भी ज़मीन का आधिग्रहण कर सकती है| 
अरजेंसी क्लॉज़
- लेकिन नए विधेयक में तात्कालिकता खंड नाम के इस प्रावधान को स्पष्ट किया गया है|मसौदे के अनुसार सरकार राष्ट्रीय रक्षा एंव सुरक्षा के लिए, आपात परिस्थितयों या प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में पुनर्वास के लिए या ‘दुलर्भ से दुलर्भतम मामलों’ के लिए ही तात्कालिकता यानी अरजेंसी के प्रावधानों पर अमल करेगी|
- मसौदे में ज़मीन के मालिकों और ज़मीन पर आश्रितों के लिए एक विस्तृत पुनर्वास पैकेज का ज़िक्र है| इसमें उन भूमिहीनों को भी शामिल किया गया है जिनकी रोज़ी-रोटी अधिग्रिहित भूमि से चलती है|
- मसौदे में अधिग्रहण के कारण जीविका खोने वालों को 12 महीने के लिए प्रति परिवार तीन हज़ार रुपए प्रति माह जीवन निर्वाह भत्ता दिए जाने का प्रावधान है|
- इसके अलावा पचास हज़ार का पुनर्स्थापना भत्ता, ग्रामीण क्षेत्र में 150 वर्ग मीटर और शहरी क्षेत्रों में 50 वर्गमीटर ज़मीन पर बना बनाया मकान भी दिया जाने का प्रावधान है|
भारत में भूमि अधिग्रहण की जरूरत क्यों है?
उत्पादकता में तेजी लाने के दो बुनायादी तरीके हैं| पहला, कृषि को अधिक उत्पादक बनाया जाए और दूसरा, ज़मीन को खेती के अलावा किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जाए|
आज़ादी के बाद भारत में विकास की प्रक्रिया बिल्कुल इसी नुस्ख़े पर चली|
 बड़े पैमाने पर सिंचाई और कृषि को आधुनिक बनाने का सरकारी प्रयास किया गया, इसके साथ ही सरकार के नेतृत्व में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का अभियान भी चलाया गया|
बड़े पैमाने पर सिंचाई और कृषि को आधुनिक बनाने का सरकारी प्रयास किया गया, इसके साथ ही सरकार के नेतृत्व में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का अभियान भी चलाया गया|
कृषि को बड़े पैमाने पर आधुनिक बनाने के लिए प्रयास किए गए, जिसमें राज्य की अगुआई में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण अभियान भी शामिल है|
इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण व्यापक स्तर पर भूमि अधिग्रहण हुआ|
आज़ाद भारत ने भूमि अधिग्रहण के लिए जिस क़ानून का सहारा लिया वो 1894 में बना था. इसने एक झटके में बड़ी ज़मीदारियों और विवादास्पद मामलों को एक साथ हल कर दिया.
कितनी भूमि का अधिग्रहण हुआ?
अतीत
एक अनुमान के मुताबिक़, 1947 में आजादी मिलने के बाद से अब तक कुल भूमि का 6 फीसदी हिस्सा यानी 5 करोड़ एकड़ भूमि का अधिग्रहण या उसके इस्तेमाल में बदलाव किया जा चुका है.
इस अधिग्रहण से 5 करोड़ लोग से ज़्यादा लोग प्रभावित हुए हैं|
ज़मीन के सहारे रोज़ी रोटी कमाने वाले भूमिहीन लोगों को तो कोई भुगतान भी नहीं किया गया|
ज़मीन अधिग्रहण के बदले किया गया पुनर्वास बहुत कम हुआ या जो हुआ वो बहुत निम्न स्तर का था|
इस मामले में सबसे ज़्यादा नुकसान दलितों और आदिवासियों को हुआ|
ज़मीन हासिल करने की ये व्यवस्था पूरी तरह अन्यायपूर्ण थी, जिसके कारण लाखों परिवार बर्बाद हुए.
इस प्रक्रिया ने बुनियादी संरचनाएं, सिंचाई और ऊर्जा व्यवस्था, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से लैस आधुनिक भारत को जन्म दिया|
भूमि अधिग्रहण का विरोध क्यों?
1980 के दशक से ही कई नागरिक अधिकारी संगठनों ने भूमि अधिग्रहण के सरकार के तरीक़े पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए|
ग़ैर सरकारी संगठन 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' विवादास्पद बांध परियोजना के विरोध का अगुआ बना और जबरन भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ कुशल प्रबंधकों के लिए प्रशिक्षण का आधार बन गया|
इस मामले में निर्णायक मोड़ तब आया जब साल 2006-2007 में विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए टैक्स फ्री विशेष आर्थिक क्षेत्र बनने लगे|
नंदीग्राम में किसानों की ओर से कड़ा विरोध हुआ था|
इसके फलस्वरूप, पश्चिम बंगाल केनंदीग्राम में सरकार की केमिकल हब बनाने की योजना का हिंसक प्रतिरोध हुआ.
इसके अलावा खानों, कारखानों, टाउनशिप और हाईवे के लिए किसानों की ज़मीन लिए जाने के ख़िलाफ़ उग्र प्रदर्शन और आंदोलन किए गए.
कई नागरिक अधिकार समूहों का तर्क है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र एक सरकारी तरीक़ा था भारत के उद्योगपतियों द्वारा किसानों की ज़मीन पर कब्जा करने का|
नए बिल में सरकार के बदलाव
- बीते दिसम्बर में मोदी सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर 2013 में यूपीए सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण बिल से 'किसानों की सहमति' और 'सामाजिक प्रभाव के आंकलन' की अनिवार्यता को हटा दिया|
- यह रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण बुनियादी संरचनाएं, सस्ते घर, औद्योगिक कॉरिडोर और अन्य आधारभूत संरचनाओं के लिए अधिग्रहण पर लागू कर दिया गया|
- नए विधेयक में अधिग्रहण के लिए लगने वाले समय में कई साल की कमी कर दी|
- इससे प्रॉपर्टी बाज़ार में दाम बहुत गिर जाएंगे, जो संभवतः दुनिया में सबसे क़ीमती है|
क्या विरोध उचित है?
इस विधेयक में ऐसा कुछ नहीं है जो सबसे आसान शिकार आदिवासी आबादी की भूमि अधिग्रहण चक्र से सुरक्षा कर सके|
गरीब कई तरह की भ्रष्ट गतिविधियों के शिकार हैं, मसलन स्थानीय भू माफ़िया कम क़ीमत देकर या बिना सहमति के उनकी ज़मीनें छीन लेता है और इसमें राजनीतिक दखलंदाज़ी भी शामिल है|
भारत में एक समान किसान नहीं है और ना ही कोई एक अकेला भूमि बाज़ार है|
एक तरफ़ तो ज़मीन की क़ीमतें इतनी ज़्यादा हैं कि वे आजीवन खेती करने से हुई आय का 25 से 100 गुना हैं|
दूसरी तरफ़ ज़मीन की क़ीमतें दो से चार गुना ऊंची हैं|
अधिग्रहण विधेयक में जो सबसे अहम बात होनी चाहिए, वो ये कि भारत की भौगोलिक और आर्थिक विविधता से साथ साथ विशेष स्थानीय संस्कृति और इतिहास को पहचानना चाहिये| 
स्रोत: इन्टरनेट
 


 
 
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