ऊँ गुरूवे
नमः
गुरुब्रह्मा
गुरुविर्ष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः
साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।
गुरु
पूर्णिमा के पावन पर्व पर, विश्व के समस्त गुरुजनों को मेरा शत् शत् नमन। गुरु के
महत्व को हमारे सभी संतो, ऋषियों एवं महान विभूतियों ने उच्च स्थान दिया है।संस्कृत
में ‘गु’ का अर्थ
होता है अंधकार (अज्ञान)एवं ‘रु’ का अर्थ होता है प्रकाश(ज्ञान)। गुरु हमें अज्ञान रूपी
अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं।
हमारे जीवन
के प्रथम गुरु हमारे माता-पिता होते हैं। जो हमारा पालन-पोषण करते हैं, सांसारिक
दुनिया में हमें प्रथम बार बोलना, चलना तथा शुरुवाती आवश्यकताओं को सिखाते हैं। अतः माता-पिता
का स्थान सर्वोपरी है। जीवन का विकास सुचारू रूप से सतत् चलता रहे उसके लिये हमें
गुरु की आवश्यकता होती है। भावी जीवन का निर्माण गुरू द्वारा ही होता है।
मानव मन में
व्याप्त बुराई रूपी विष को दूर करने में गुरु का विषेश योगदान है। महर्षि वाल्मिकी
जिनका पूर्व नाम ‘रत्नाकर’ था। वे अपने परिवार का पालन पोषण करने हेतु दस्युकर्म करते
थे। महर्षि वाल्मिकी जी ने रामायण जैसे महाकाव्य की रचना की, ये तभी संभव
हो सका जब गुरू रूपी नारद जी ने उनका ह्दय परिर्वतित किया। मित्रों, पंचतंत्र की
कथाएं हम सब ने पढी या सुनी होगी। नीति कुशल गुरू विष्णु शर्मा ने किस तरह राजा
अमरशक्ती के तीनों अज्ञानी पुत्रों को कहानियों एवं अन्य माध्यमों से उन्हें
ज्ञानी बना दिया।
गुरू शिष्य
का संबन्ध सेतु के समान होता है। गुरू की कृपा से शिष्य के लक्ष्य का मार्ग आसान
होता है।
स्वामी
विवेकानंद जी को बचपन से परमात्मा को पाने की चाह थी। उनकी ये इच्छा तभी पूरी हो
सकी जब उनको गुरू परमहंस का आर्शिवाद मिला। गुरू की कृपा से ही आत्म साक्षात्कार
हो सका।
छत्रपति
शिवाजी पर अपने गुरू समर्थ गुरू रामदास का प्रभाव हमेशा रहा।
गुरू द्वारा
कहा एक शब्द या उनकी छवि मानव की कायापलट सकती है। मित्रों, कबीर दास जी
का अपने गुरू के प्रति जो समर्पण था उसको स्पष्ट करना आवश्यक है क्योंकि गुरू के
महत्व को सबसे ज्यादा कबीर दास जी के दोहों में देखा जा सकता है।
एक बार
रामानंद जी गंगा स्नान को जा रहे थे, सीढी उतरते समय उनका पैर कबीर दास जी के शरीर पर पङ गया।
रामानंद जी के मुख से ‘राम-राम’ शब्द निकल पङा। उसी शब्द को कबीर दास जी ने दिक्षा मंत्र
मान लिया और रामानंद जी को अपने गुरू के रूप में स्वीकार कर लिया। कबीर दास जी के
शब्दों में—
‘हम
कासी में प्रकट हुए, रामानंद चेताए’। ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि जीवन में गुरू के महत्व का
वर्णन कबीर दास जी ने अपने दोहों में पूरी आत्मियता से किया है।
गुरू
गोविन्द दोऊ खङे का के लागु पाँव,
बलिहारी
गुरू आपने गोविन्द दियो बताय।
गुरू का
स्थान ईश्वर से भी श्रेष्ठ है। हमारे सभ्य सामाजिक जीवन का आधार स्तभ गुरू हैं। कई
ऐसे गुरू हुए हैं, जिन्होने अपने शिष्य को इस तरह शिक्षित किया कि उनके
शिष्यों ने राष्ट्र की धारा को ही बदल दिया।
आचार्य
चाणक्य ऐसी महान विभूती थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और क्षमताओं के बल पर भारतीय
इतिहास की धारा को बदल दिया। गुरू चाणक्य कुशल राजनितिज्ञ एवं प्रकांड
अर्थशास्त्री के रूप में विश्व विख्यात हैं। उन्होने अपने वीर शिष्य चन्द्रगुप्त
मौर्य को शासक पद पर सिहांसनारूढ करके अपनी जिस विलक्षंण प्रतिभा का परिचय दिया
उससे समस्त विश्व परिचित है।
गुरु हमारे
अंतर मन को आहत किये बिना हमें सभ्य जीवन जीने योग्य बनाते हैं। दुनिया को देखने
का नज़रिया गुरू की कृपा से मिलता है। पुरातन काल से चली आ रही गुरु महिमा को
शब्दों में लिखा ही नही जा सकता। संत कबीर भी कहते हैं कि –
सब धरती
कागज करू,
लेखनी
सब वनराज।
सात समुंद्र
की मसि करु,
गुरु
गुंण लिखा न जाए।।
गुरु पूर्णिमा के पर्व पर अपने
गुरु को सिर्फ याद करने का प्रयास है। गुरू की महिमा बताना तो
सूरज को दीपक दिखाने के समान है। गुरु की कृपा हम सब को प्राप्त हो। अंत में कबीर
दास जी के निम्न दोहे से अपनी कलम को विराम देते हैं।
यह तन विष
की बेलरी,
गुरु
अमृत की खान।
शीश दियो जो
गुरु मिले,
तो
भी सस्ता जान।।
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