शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

ऊसर भूमि को बनाया जा सकता है उपजाऊ


                         

ऊसर भूमि को सुधारने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जाते हैं:- मेड़बंदी ऊसर सुधार के लिए ऊसर खेतों में ऊंची और मजबूत मेड़ बनाने का कार्य सितम्बर-अक्टूबर तक अवश्य पूर्ण कर लेना चाहिए। (मेड़ का आधार 90 सेमी. ऊंचाई 30 सेमी., टॉप 30 सेमी. तथा सेक्शन एरिया 0.18 वर्ग मी. होना चाहिए) स्क्रेपिंग जिन खेतों में लवण की सफेद चादर सी दिखाई देती है उन खेतों में मृदा की ऊपरी परत को फावड़ा की सहायता से खुरचकर इकट्ठा कर उसे किसी गहरे गड्ढे में दबा देते हैं अथवा बड़े नाले के द्वारा बहते हुए पानी में गिरा देते हैं।
सब-प्लाटिंग अच्छे ऊसर सुधार हेतु खेत को छोटे-छोटे टुकड़ों में (लगभग 18-20 डेसीमल) बनाएं।
जुताई/समतलीकरण ऊसर खेतों का सुधार तभी संभव है जब खेत ठीक से समतल किया गया हो। इसके लिए सूक्ष्म समतलीकरण करने हेतु लेजर लेवलर के द्वारा समतलीकरण किया जाए, जिसे कृषि विभाग के उप -कृषि निदेशक से सम्पर्क कर उपयोग में लाया जा सकता है।
खेत नाली (लिंक ड्रेन) सभी ऊसर खेतों में भूमि के ढाल के अनुसार निचली तरु या दो खेतों के बीच की मेड़ को फाड़कर फील्ड ड्रेन तैयार की जाती है, जिसका दूसरा सिरा सम्पर्क नाली (लिंक ड्रेन) से जोड़ा जाता है। (आकार- मुंहफाड़ 90 सेमी. गहराई 30 सेमी., तली 30 सेमी. तथा सेक्शन एरिया 0.18 वर्ग मी.) जल उपयोग समूहों से निकली खेत नालियों (फील्ड ड्रेन) को सम्पर्क नाली में गिराया जाता है। सम्पर्क नाली का एक सिरा मुख्य नाले में गिरता है। आकार- मुंहफाड़ 165 सेमी. गहराई 60 सेमी. तली 45 सेमी. तथा सेक्शन एरिया 0.63 वर्ग मी. (100 हे. हेतु)।
मुख्य नाला ऊसरीले खेतों से लवणीय पानी खेत नाली के द्वारा लिंक ड्रेन में लाया जाता है तथा लिंक ड्रेन को मुख्य नाले से जोड़ा जाता है। मुख्य नाला पूरे ऊसर क्षेत्र के लवणीय पानी को नदी में ले जाता है। इसकी खुदाई एवं सफाई सिंचाई विभाग द्वारा कराई जाती है।
बोरिंग प्रत्येक जल उपयोग समूह के 4 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की सुनिश्चित व्यवस्था हेतु बोरिंग के अभाव में समूह के सबसे ऊंचे खेत में बोरिंग प्रस्तावित कर निगम द्वारा बोरिंग हेतु पी.वी.सी. पाइप, रिफ्लेक्स वाल्व के साथ ही बोरिंग मैकेनिक एवं मजदूरों हेतु सफल बोरिंग होने पर मापन के अनुसार निगम द्वारा समूह के खाते में भुगतान किया जाता है।
नलकूप व्यवस्था पम्पसेट की व्यवस्था के लिए, बोरिंग धारक को स्वयं ही अपने संसाधनों द्वारा सामूहिक सहयोग से क्रय किया जाता है। इस हेतु निगम द्वारा कोई अनुदान की सुविधा नहीं दी जाती है।
फ्लैशिंग लवणीय मृदा से फ्री साल्ट को पानी में घोलकर निकालने हेतु ऊसरीले खेतों में 15 सेमी. ऊंचा, 48 घण्टे के लिए पानी भरते है जिसमें घुलशील लवण पानी में घुल जाते है जिसे जल निकास नाली द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है। इस सम्पूर्ण क्रिया को फ्लैशिंग कहा जाता है। यह क्रिया सदैव जिप्सम मिक्सिंग से पूर्ण की जाती है।
जिप्सम मिक्सिंग फ्लैशिंग के उपरांत ओट आने पर भूमि की श्रेणी के अनुसार प्राप्त करायी गयी जिप्सम के बैग को समानस मान दूरी पर खोलते हैं। तत्पश्चात हाथ से पूरे खेत में एक समान जिप्सम बिखेर कर कल्टीवेटर द्वारा हल्की जुताई (3-5 सेमी.) करते हैं।
जिप्सम मिक्सिंग का उपयुक्त समय जून माह होता है।
लीचिंग जिप्सम मिक्सिंग के उपरांत (15 जून से 30 जून के मध्य) खेतों में 15 सेमी. ऊंचा पानी भरते हैं जिसे 10-12 दिन बाद जल निकास नाली के द्वारा निकाल देते हैं। यदि बीच में पानी सूख जाता है तो उसमें पुन: बोरिंग द्वारा पानी भरा जाता है।
नोट- ऊसर खेतों में जीवांश खाद/कार्बनिक खादों का लगातार प्रयोग करने से भी लवणीय मृदा का सुधार होता है।
नर्सरी की तैयारी निगम द्वारा ऊसर भूमि हेतु उपलब्ध कराए गए खरीफ निवेश (धान, डी.ए.पी. यूरिया एवं जिंक सल्फेट) को 15 मई के बाद उपजाऊ जमीन में जहां पर सिंचाई का अच्छा साधन हो, वहां पर 60 किग्रा. प्रति हे. की दर से बीज का प्रयोग करते हैं। रोपाई के क्षेत्र के 1/10 हिस्से में धान की नर्सरी डाली जाती है।
रोपाई जब धान की नर्सरी 35 दिन की हो जाए तो उसकी रोपाई लीचिंग के उपरांत बोरिंग से अच्छा पानी भरकर एक वर्ग मी. में 65-70 स्थान पर 4-5 पौधों की रोपाई 25 जून से 10 जुलाई के बीच सम्पन्न कर लेते है।
धान फसल की देखभाल रोपाई के एक सप्ताह बाद खेत से पानी निकाल दें।
कुछ सूखने के बाद यदि वर्षा न हो तो धान की सिंचाई करें। पानी भरे रहने के कारण ऊसरीली मृदा में लवण की अधिकता से हरी काई का प्रकोप होता है। इसके लिए खुली धूप में 0.2-0.3 प्रतिशत कॉपर सल्फेट (तूतिया) का घोल बनाकर छिड़काव करें अथवा सूखी झड़ी से काई को तोड़कर जल निकास नाली से बाहर बहा दें। धान की फसल के लिए दी जाने वाली यूरिया की मात्रा को बराबर-बराबर चार भागों में बांटकर पहला भाग रोपाई के 13-15 दिन, दूसरा भाग 27-30 दिन, तीसरा भाग 45-50 दिन तथा चौथा भाग बालियां निकलते समय (65-70) दिन पर प्रयोग किया जाए।
धान की कटाई जब धान की बालियां पीली पड़कर नीचे की तरफ झुकने लगें तो धान की कटाई जमीन की सतह से 6 इंच ऊपर से करते हैं।
गेहूं के खेत की तैयारी करना धान के ठूंकों को सड़ाने के लिए नमी की अवस्था में 40 किग्रा. यूरिया प्रति हेक्टेयर बुरकाव कर हैरो/कल्टीवेटर द्वारा जुताई कर पाटा चला देते हैं।
एक सप्ताह के बाद कल्टीवेटर से जुताई कर खेत की तैयारी कर लेते हैं। जिन क्षेत्रों में धान की कटाई देर से हो वहां पर सीधे जीरोटिल फर्टीसीड ड्रिल से बुवाई करें।
गेहूं की देखभाल यदि बीज पहले से शोधित नहीं है तो बोने से पूर्व बीज को कार्बान्डाजिम अथवा कार्बाक्सिन रसायन 2.5 प्रति किग्रा. बीज (100 किग्रा. में 250 ग्राम दवा) की दर से शोधित कर बुवाई करें। बुवाई के समय बेसल के रूप में 96 किग्रा. यूरिया, 87 किग्रा. डी.ए.पी., 33 किग्रा. म्यूरेट ऑफ पोटाश तथा 25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर, खेत की तैयारी के समय जमीन में मिला देते है तथा जिंक सल्फेट को डी.ए.पी. उर्वरक के साथ मिश्रण कर प्रयोग नहीं करते है। यूरिया की शेष मात्रा को दो भागों में बांटकर प्रथम सिंचाई 28 दिन के बाद ताजमूल अवस्था पर करने के पश्चात ओट पर 65 किग्रा. तथा तीसरी सिंचाई के बाद 60-65 दिन पर गांठ बनने की अवस्था पर ओट आने पर 65 किग्रा. यूरिया की टाप ड्रेसिंग करते है। गेहूं में पांच सिंचाई की दशा में पहली ताजमूल अवस्था में बुवाई के 28 दिन बाद, दूसरी कल्ले फूटते समय बुवाई के 40-45 दिन बाद, तीसरी गांठ बनने बनने पर 60-65 दिन बाद, चौथी बाली निकलते समय बुवाई के 80-85 दिन बाद, पांचवी दूधिया अवस्था में बुवाई के 100-105 दिन तथा छठी दाने पकने पर 115-120 दिन पर सिंचाई करते हैं। यदि मात्र तीन ही सिंचाई उपलब्ध है तो पहली ताजमूल बुवाई के 28 दिन बाद, दूसरी गांठ बनने पर बुवाई के 60-65 दिन बाद, तीसरी दूधिया अवस्था में बुवाई के 100-105 दिन बाद सिंचाई करनी चाहिए। ऊसरीले क्षेत्रों में सिंचाई हल्की करनी चाहिए।
गेहूं की कटाई-मड़ाई एवं भण्डारण फसल की बालियां पक जाने पर फसल को तुरन्त काट लेना चाहिए। कटाई के बाद पावर थ्रेशर द्वारा मड़ाई करके अनाज को अलग कर लेना चाहिए।
अनाज को सुखाने के उपरांत धातु की बनी बखालियों में भण्डारण करना चाहिए।
हरी खाद ढैंचा अच्छे ऊसर सुधार के लिए ढैंचा की हरी खाद बहुत उपयोगी होती है। ऊसर में आसानी से ढैंचा की हरी खाद तैयार की जाती है। एक हेक्टेयर के लिए 60 किग्रा. बीज की आवश्यकता पड़ती है, जिसे 24 घण्टे पानी में भिगोकर उसे जिप्सम से उपचारित कर बुवाई करने से अंकुरण अच्छा होता है।
ऊसर वह भूमि कहलाती है, जिसमें कुछ भी पैदा नहीं होता। यदि होता भी है तो भी नाममात्र के लिए। भूमि में ऊसरीलापन मिट्टी में लवणता या क्षारीयता अथवा दोनों की ही अधिकता के कारण होता है। ऊसर भूमि तीन प्रकार की होती है- लवणीय मृदा- इस प्रकार की मृदा में घुलनशील सोडियम नमक की अधिकता होती है।
पहचान- स्थानीय भाषा में इस मृदा को रेह, रेहटा या नमकीन मृदा (सेलाइन स्वाइल) कहते है।
ऐसी मृदा में भूमि की सतह पर उभरे, फूले, सफेद, स्लेटी रंग के लवण दिखाई देते है जो कि समूहों व टुकड़ों में मिलते है। ऐसी भूमि पर चलने पर अच्छा लगता है। लवणीय भूमि की सतह की मृदा एवं उसके नीचे की मृदा कड़ी नहीं होती है।
लवणीय-क्षारीय मृदा- इस प्रकार की मृदा में घुलनशील सोडियम की अधिकता के साथ-साथ विनिमयशील सोडियम की भी अधिकता होती है।
पहचान- साधारण भाषा में इस मृदा को ऊसर, रेह कहते है। इस मृदा में लवणीय-क्षारीय भूमि के मिले जुले गुण रहते है।
भूमि की ऊपरी सतह भूरे रंग की होती है जिस पर रेह या सफेद लवण प्रचुर मात्रा में रहते है तथा नीचे की सतह क्षारीय भूमि की भांति सख्त होती है। इस भूमि में नीचे कंकड़ भी मिलता है। ऐसी मृदाओं में टुकड़ों में कहीं-कहीं पर सतह पर लवण व कहीं-कहीं पर ऊसर घास भी दिखाई देती है।
क्षारीय मृदा- क्षारीय मृदा देखने में काली या स्लेटी रंग की होती है। प्रदेश में पायी जाने वाले क्षारीय मृदा में विनियमशील सोडियम की अधिकता होती हे तथा इसका सुधान मृदा सुधारक यथा जिप्सम, पायराइट आदि के उपयोग के बिना संभव नहीं होता है।
पहचान- इस मृदा को स्थानीय भाषा में ऊसर, बंजर, कल्लर या एल्कली स्वाइल कहते है। भूमि चौरस जिस पर काले भूरे रंग के अवशेष पदार्थ धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं। ऐसी भूमि की सतह सीमेंट की भांति बहुत कड़ी और मजबूत होती है।
भूमि की भौतिक दशा बहुत खराब होती है जिससे गड्ढों में पानी बहुत दिनों तक भरा रहता है।
ऊसर बनने के कारण . अधिक वर्षा में जल निकासी की समुचित व्यवस्था न होना।
. भूमिगत जल स्तर ऊंचा होना।
. नहरी क्षेत्रों में जल रिसाव का होना।
. भूमि को अधिक समय से परती छोड़ना।
. कम वर्षा एवं तापमान का अधिक होना।
ऊसर वह भूमि कहलाती है, जिसमें कुछ भी पैदा नहीं होता। यदि होता भी है तो नाममात्र के लिए।
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Source – KalpatruExpress News Papper

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