जाजलि नाम के
एक ऋषि थे। एक बार वह महातपस्वी ऋषि निराहार रहकर केवल वायु भक्षण करते हुए
काष्ठ की भांति अविचल भाव से खड़े हो घोर तपस्या में प्रवृत्त हुए। उस समय
उन्हें ठूंठ समझ कर एक चिड़ियों का जोड़ा उनकी जटाओं में घोंसला बना कर रहने लगा
और कभी-कभी तो पांच-दस दिन बाद भी लौटता था पर ऋषि बिना हिले-डुले ही खड़े रहते
थे।
एक बार जब वे
पक्षी उड़ने के बाद एक महीने तक वापस नहीं लौटे तब भी जाजलि ऋषि ज्यों के त्यों
खड़े रहे। तदनन्तर जब उनका कुछ भी पता न चला तो ऋषि को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने
को सिद्ध मानकर उन्हें गर्व भी हो गया। अपने मस्तक पर चिड़ियों के पैदा होने और
बढ़ने आदि की बातें याद करके वह अपने को महान धर्मात्मा समझ आकाश की ओर देख कर
बोल उठे, मैंने धर्म को
प्राप्त कर लिया।
इतने में
आकाशवाणी हुई, जाजलि! तुम
धर्म में तुलाधार की बराबरी नहीं कर सकते। काशीपुर का धर्मात्मा तुलाधार कभी ऐसी
बात नहीं कहता। जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह तुलाधार को देखने काशी गए। वहां
पहुंच कर उन्होंने तुलाधार को सौदा बेचते हुए देखा। तुलाधार भी जाजलि को देखते
ही उठकर खड़े हो गए। फिर आगे बढ़कर बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्होंने जाजलि का
स्वागत करते हुए कहा, आप मेरे पास आ
रहे हैं यह बात मुङो मालूम हो गई थी। आपने समुद्र तट पर एक वन में रहकर बड़ी
भारी तपस्या की है। उसमें सिद्धि प्राप्त होने के बाद आपके मस्तक पर चिड़ियों के
बच्चे पैदा हुए, बड़े हुए और
आपने उनकी भली-भांति रक्षा की। जब वे इधर-उधर चले गए तब अपने को धर्मात्मा समझ
कर आपको बड़ा गर्व हो गया। विप्रवर!
आज्ञा दीजिए, मैं आपका कौन-सा प्रिय काम करूं।
जाजलि ने
तुलाधार की बातों से अत्यंत प्रभावित होकर उनके धर्म का रहस्य जानने की इच्छा
व्यक्त की। रस, गंध, वनस्पति, औषधि, मूल और फल आदि
बेचने वाले तुलाधार को धर्म में निष्ठा रखने वाली बुद्धि कैसे प्राप्त हुई। यह
जाजलि के लिए आश्चर्य की बात थी। तुलाधार ने कहा, मैं परम प्राचीन और सबका हित करने वाले सनातन धर्म को उसके गूढ़ रहस्यों
सहित जानता हूं। किसी भी प्राणी से द्रोह न करके जीविका चलाना ही श्रेष्ठ माना
गया है। मैं उसी धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हूं। काठ और घास-फूस से मैंने
अपने रहने के लिए यह घर बनाया है। छोटी- बड़ी चीजें तो बेचता हूं पर मदिरा नहीं
बेचता। सब चीजें मैं दूसरों के यहां से खरीद कर बेचता हूं, स्वयं तैयार नहीं करता।
माल बेचने में
किसी प्रकार की ठगी या छल-कपट से काम नहीं लेता। मैं न किसी से मेल-जोल बढ़ाता
हूं, न विरोध करता
हूं, मेरा न कहीं
राग है, न द्वेष, सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मेरे मन में
एक-सा भाव है। यही मेरा व्रत है। मेरा तराजू सबके लिए बराबर तौलता है। मैं
दूसरों के कार्यो की निंदा या स्तुति नहीं करता। मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में भेद नहीं मानता। क्षण
भंगुर विषयों की इच्छा नहीं करता।
अहिंसा को
सबसे बड़ा धर्म मानता हूं। धर्म का तत्व अत्यंत सूक्ष्म है, कोई भी धर्म निष्फल नहीं होता।
लोगों की
देखा-देखी कभी काम नहीं करता। जो मुङो मारता है तथा जो मेरी प्रशंसा करता है, वे दोनों ही मेरे लिए समान हैं, मैं उनमें से किसी को प्रिय और अप्रिय नहीं
मानता। उनकी बातों से ऋषि भावविभोर हो गए।
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Source – KalpatruExpress News Papper
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रविवार, 2 फ़रवरी 2014
जानें सबसे उत्तम व्रत को
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