मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

अभी तो आया है मेरे जीवन में मृदुल बसंत!





                                  सरस्वती वंदना

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला वर दे, वीणावादिनि वर दे ! प्रिय स्वतं}-रव अमृत मं} नव भारत में भर दे ! काट अंध-उर के बंधन स्तर बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर; ुष-भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे ! नव गति, नव , ता¶-छंद नव नवकंठ, नव जद-मन्द्र रव; नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे !
शैलेन्द्र चौहान सूर्यकांत त्रिपाठी निराला छायावाद युगीन हिन्दी कविता के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। यूं उस समय के सभी प्रसिद्ध कवि, लेखक निराला के घर पर वसंतपंचमी के दिन आ जुटते थे और वसंतोत्सव का सृजनात्मक स्वागत करते थे, भांग छानते और अपनी कविताएं सुनाते थे। निराला वसंतोत्सव से आनंदविभोर हो जाते थे। इसी कारण इस दिन को उनके जन्मदिन से जोड़कर देखा जाने लगा। वसंत पर उनकी अनेक सुन्दर कविताएं हैं यथा - अभी न होगा मेरा अंत/ अभी अभी तो आया है/ मेरे जीवन में मृदुल वसंत। या - सखी यह डाल वसन वासंती लेगी आदि।
निराला की काव्यकला की सबसे बड़ी विशेषता है चित्रण-कौशल।
आंतरिक भाव हो या बाह्य जगत के दृश्य-रूप, संगीतात्मक ध्वनियां हों या रंग और गंध, सजीव चरित्र हों या प्राकृतिक दृश्य, सभी अलग-अलग लगने वाले तत्वों को घुला-मिलाकर निराला ऐसा जीवंत चित्र उपस्थित करते हैं कि पढ़ने वाला उन चित्रों के माध्यम से ही निराला के मर्म तक पहुंच जाता है। निराला के चित्रों में उनका भावबोध ही नहीं, उनका चिंतन भी समाहित रहता है। इसलिए उनकी बहुत-सी कविताओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। यद्यपि निराला के काव्य में आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, रहस्यवाद और जीवन के गूढ़ पक्षों की जीवन-विमुख प्रवृत्तियों की झलक मिलती है पर लोकमान्यताओं के आधार पर निराला ने विषयवस्तु में नये मान स्थापित किये और समसामयिकता के पुट को भी खूब उभारा। वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी भाषा में भी कविताएं गढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व संवेदना, कहीं देश-प्रेम का जज्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध, यथार्थ की पक्षधरता व प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती महिला पर लिखी उनकी कविता आज भी समाज के शोषित यथार्थ का एक स्पष्ट आइना है।
सौ पदों में लिखी गयी तुलसीदास निराला की सबसे बड़ी कविता है, जो कि 1934 में लिखी गयी और 1935 में सुधा के पांच अंकों में किश्तवार प्रकाशित हुयी। इस प्रबन्ध काव्य में निराला ने पत्‍नी के युवा तन-मन के आकर्षण में मोहग्रस्त तुलसीदास के महाकवि बनने को दिखाया है - जागा जागा संस्कार प्रबल/ रे गया काम तत्क्षण वह जल/ देखा वामा, वह न थी, अनल प्रमिता वह/ इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान/ हो गया भस्म वह प्रथम भान/ छूटा जग का जो रहा ध्यान। सन 1916 ई. में निराला
की अत्यधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय रचना जूही की कली लिखी गयी। यह उनकी प्राप्त रचनाओं में पहली रचना है। यह उस कवि की रचना है, जिसने सरस्वती और मर्यादा की फाइलों से हिन्दी सीखी, उन पत्रिकाओं के एक-एक वाक्य को संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी व्याकरण के सहारे समझने का प्रयास किया। उस समय वे महिषादल में थे। रवीन्द्र कविता कानन के लिखने का समय यही है। सन 1916 में ही इनका हिन्दी-बांग्ला का तुलनात्मक व्याकरण सरस्वती में प्रकाशित हुआ।
जूही की कली कविता में निराला ने अपनी अभिव्यक्ति को छंदों की सीमा से परे छन्दविहीन कविता की ओर प्रवाहित किया है। निराला छंदमुक्त कविता के प्रथम पक्षधर थे। उनके काव्य में लयात्मकता का प्रभाव सदैव कायम रहा। जिन दिनों निराला इलाहाबाद में थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के यशस्वी वाइस चांसलर अमरनाथ झ भी वहीं थे। शिक्षा, संस्कृति और प्रशासकीय सेवाओं के क्षेत्र में अमरनाथ झ का डंका बजता था। उनका दरबार संस्कृतिकर्मियों से भरा रहता था। अमरनाथ झ ने निराला को पत्र लिखकर अपने घर पर काव्य पाठ के लिए निमंत्रित किया। पत्र अंग्रेजी में था। निराला ने उस पत्र का उत्तर अपनी अंग्रेजी में देते हुए लिखा- आई एम रिच ऑफ माई पुअर इंग्लिश, आई वाज ऑनर्ड बाई योर इनविटेशन टू रिसाइट माई पोयम्स एट योर हाउस।
हाउ एवर मोर आनर्ड आई विल फील इफ यू कम टू माई हाउस टू लिसिन माई पोयम्स।निराला तो कहीं भी, किसी को भी कविता सुना सकते थे लेकिन वे वाइस चांसलर और अपने घर पर दरबार लगाने वाले साहित्य संरक्षक के यहां जाकर अपनी कविताएं नहीं सुनाते थे। यही शब्द का सम्मान और साहित्य की साधना का यथार्थ रूप था। निराला जैसे कवि के व्यक्तित्व को हम आज के परिदृश्य में कैसे देखें। पहली बात तो मन में यही आती है कि राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद कितनी तेजी से हम सांस्कृतिक दृष्टि से पराधीन हो गए हैं। एक ओर देश के प्राय: सभी मंचों पर अंतरराष्ट्रीय पूंजीवादी अपसंस्कृति का कब्जा बढ़ता जा रहा है और उससे भी यातनाप्रद स्थिति यह है कि हम उससे उबरने का साहस नहीं कर रहे हैं। हिंदी साहित्य में ऐसे विद्रोही कवियों की परंपरा है जिसके आदर्श कबीर, जायसी, तुलसी, मीरा और सूरदास हैं। रीतिकालीन कवियों में भी अनेक ने यह जोखिम उठाया है। निराला की ही परंपरा में मुक्तिबोध, नागाजरुन, शील, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और शमशेर ने इसी प्रवृत्ति को आगे बढ़ाया और यह एक समृद्ध परम्परा के रूप में विकसित होती गयी। दुर्भाग्य से आज पूंजीवाद, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उत्तर आधुनिकता के तहत उपभोक्तावाद के प्रभाव में वर्तमान कवि इस परंपरा से विमुख होते गए हैं और इसी कारण कविता की स्वीकार्यता कम से कमतर होती गयी।
उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति।

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Source – KalpatruExpress News Papper



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