डॉ. प्रेम
शंकर सिंह यूं तो बसंतपंचमी को हिन्दू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सरस्वती पूजा
के रूप में मनाया जाता है किन्तु सुहाग, श्रृंगार, प्रेम और नवता
के प्रतीक के रूप में इसको मनाने की परम्परा भी कम पुरानी नहीं है। साम्प्रदायिक
सौहाद्र्र के लगातार क्षरित होते जा रहे समय में यह अकेला पर्व है जिसे
हिन्दू-मुसलमान दोनों बराबर उत्साह से मनाते हैं।
संयोग से 12वीं सदी के आसपास इसकी शुरुआत पश्चिमी
उत्तरप्रदेश और दिल्ली के मध्य हुई। खड़ी बो¶ी हिन्दी के प्रथम कवि अमीर खुसरो ख्वाजा निजामुद्दीन औ¶िया के मुरीद थे, जिनकी परवरिश उत्तरप्रदेश के एटा जि¶े में हुई थी। कहा जाता है कि दिल्ली के
प्रसिद्द सूफी संत निजामुद्दीन औ¶िया के भतीजे तकीऊद्दीन नूह की मृत्यु बहुत कम उम्र में हो गयी थी, जिसके कारण वे दुखी रहने ¶गे थे। ऐसा देख उनके अनुयायी अमीर खुसरो
अपने पीर के ग़म को दूर करने के उपाय त¶ाशने ¶गे। एक दिन
खुसरो ने श्रृंगार करके, हाथमें सरसों
का फू¶ ¶िए गीत गाती
हुई कुछ औरतों को देखा। खुसरो ने उनसे वज़ह पूछी तो उन्होंने बताया कि आज बसंत
पंचमी है और वो अपने भगवान को चढ़ावा चढ़ाने जा रहीं हैं। खुसरो ने भी अपने
देवता निजामुद्दीन को खुश करने की सोची। जल्द ही वो उन औरतों की तरह श्रृंगार कर
अपने हाथों में सरसों के कुछ फू¶ ¶ेकर गाना गाते हुए निजामुद्दीन के दर्शन को निक¶ पड़े। स्}ी रूप धरे खुसरो को देखकर औ¶िया मुसकुरा पड़े। तबसे बसंत के अवसर पर यह गीत च¶ पड़ा जिसे आज भी सुना जा सकता है- सकल बन
फूल रही सरसों,/अमवा बौरे, टेसू फूले।/ कोयल बोले डार डार, औ गोरी करत सिंगार।
मलिनियां गरवा
ले आयी करसों/ सकल बन फूल रही सरसों।
इस तरह
सूफियों में भी बसंत को मनाने की परम्परा चल पड़ी। बसंत और होली को आधार बनाकर
कई गीत खुसरो ने लिखे। बसंत और होली परस्पर पूरक पर्व भी हैं। शायद यही कारण है
कि बसंत के ही दिनों में गाया जाने वाला राग बसंत शास्त्रीय संगीत की
हिंदुस्तानी पद्धति का राग है। बसंत ऋतु में गाये जाने के कारण इस राग में
होलियां बहुत मिलती हैं। यह प्रसन्नता तथा उत्फुल्लता का राग है। ऐसा माना जाता
है कि इसके गाने व सुनने से मन प्रसन्न हो जाता है। हिन्दी साहित्य में बसंत के
कारण दो कवि बहुत महत्त्व रखते हैं- एक हैं नजीर अकबराबादी और दूसरे निराला। समय
के लिहाज से दोनों का काल अलग है। किन्तु समय को पार कर दोनों की समानता को
देखना हो तो कहा जा सकता है कि एक आधुनिक हिन्दी कविता का पहला कवि है और दूसरा
हिन्दी कविता का महाप्राण है। सत्रहवीं शताब्दी में बसंत को नजीर अकबराबादी के
रूप में बड़ा रचनाकार मिला।
नजीर
अकबराबादी के जीवन और कविता पर आधारित केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के सहयोग से कवि देवी प्रसाद मिश्र
द्वारा निर्मित एक वृत्तचित्र में उचित ही उन्हें हिन्दी के पहले युद्ध विरोधी
और धूल-मिट्टी के कवि के रूप में याद किया गया है। युद्ध की भयावहता से परेशान
हो दिल्ली छोड़कर आगरा आ बसे नजीर ने बसंत को पुकारा।
आम जन की भाषा
में दरबारी संस्कारों का अतिक्रमण करती नजीर की कविता में जनजीवन के संघर्ष और
ताप को सुना जा सकता है।
यह हिन्दी का
दुर्भाग्य है कि औपनिवेशिक साजिश का शिकार हो हमने हिन्दी और उर्दू को दो भाषा
मान लिया और नजीर जैसे हिन्दी की जातीय परम्परा के कवि को उर्दू की परम्परा में
धकेल दिया। हिन्दी कविता के महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बारे में यह
कहा जाता है कि सही जन्मतिथि ज्ञात न होने के कारण वह बसंत पंचमी को ही अपना
जन्मदिन मनाते थे। निराला को बसंत तो प्रिय था ही, नजीर भी कम प्रिय न थे। अपने दो निबंधों ‘साहित्य की समतल भूमि’ तथा ‘मुसलमान और
हिन्दू कवियों में विचार साम्य’, में निराला ने नजीर को बहुत सम्मान से याद किया है।
नजीर की कविता
में उनके भेद मूलक समाज के प्रतिकार का कुछ स्वर इस तरह सुनाई पड़ता है-कुछ
जुल्म नहीं कुछ जोर नहीं/ कुछ दाद नहीं फरियाद नहीं/ शागिर्द नहीं उस्ताद नहीं/
वीरान नहीं आबाद नहीं/ है जितनी बातें दुनिया की सब भूल गए कुछ याद नहीं/ हर आन
हंसी हर आन खुशी/ हर वक्त अमीरी है बाबा/ जब आशिक मस्त फकीर हुए फिर क्या
दिलगीरी है बाबा।
नजीर की कविता
में यह ताकत आम आदमी की उपस्थिति के कारण है। नजीर ने उसके सुखदु: ख दोनों को
बराबर पहचानते हुए ही लिखा होगा कि-या आदमी ही कहर से लड़ते हैं घूर-घूर/ उर
आदमी ही देख उन्हें भागते हैं दूर-दूर/ चाकर गुलाम आदमी और आदमी मजूर/ यां तक कि
आदमी ही उठाते हैं जा जरूर।
नजीर की तरह
ही निराला भी मनुष्यता के लिए एक ऐसा समाज चाहते थे जहां मनुष्य, मनुष्य के दु:ख का कारण न रहे। ऐसा आधुनिक
समाज ही उनकी कविता में साकार होता है जहां प्रेम, श्रृंगार, उल्लास, सुख पर किसी तरह का बंधन न रहे और हर तरफ
नवता का उल्लास हो।
ज्ञान की देवी
सरस्वती से उनकी प्रार्थना है कि- काट अंध उर के बंधन-स्तर/ बहा जननी ज्योतिर्मय
निर्झर/ कलुष भेद तम हर प्रकाश भर/ जगमग जग कर दे! नव गति, नव लय, ताल छंद नव, नवल, कंठ, नव जल्द-मंद्र रव/ नव नभ के नव विहग वृन्द को/ नव पर नव स्वर दे।
कुंठा और
स्वार्थपरता समाज के स्वस्थ विकास में बाधा है।
मनुष्य के
जीवन में वास्तविक उल्लास बिना इनको नष्ट किए नहीं आ सकता। वसंत प्रकृति के नए
श्रृंगार का प्रतीक बनकर उनकी कविता में बार-2 आता है- भरा हर्ष वन के मन नवोत्कर्ष छाया सखि, वसंत आया! किसलय-वसना नव-वय-लतिका मली मधुर
प्रिय उर तरु- पतिका,मधुप-वृंद
बंदी पक-स्वर नभ सरसाया सखि, वसंत आया! लता-मुकुल हार गंध-भार भर, बही पवन बंद मंद मंदतर जागी नयनों में वन-यौवन की माया सखि, वसंत आया! कुंठाहीन मन ही श्रृंगार के
स्वागत की ऐसी तैयारी कर सकता है, जिसमें प्रकृति और जीवन एक ही रंग में रंग जाए। रंगों के त्योहार होली का
संबंध बसंत के साथ इसीलिए जोड़ा जाता है। जीवन में हर तरह की संकीर्णता का विरोधी
कवि ही कुंठाहीन मन से रंगों से युक्त श्रृंृंगार के ऐसे चित्र अपनी कविता में
खींच सकता है- नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे, खेली होली! जागी रात सेज प्रिय पति-संग सनेह-रंग घोली,/ दीपित दीप-प्रकाश, कंज-छवि मंजु-मंजु हंस खोली-/ माली मुख-
चुम्बन रोली। / प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गयी चोली, एक-वसन रह गयी मंद हंस अधर-दशन अनबोली-/
कली-सी कांटे की तोली।
कहना चाहिए कि
बसंत भारतीय संस्कृति की साङी संस्कृति का प्रतीक पर्व है, प्रेम, श्रृंगार और उल्लास का भी। आज जब जीवन के हर क्षेत्र में किसी नई चीज के लिए
अंतहीन इंतजार करना पड़ता है, तब बसंत जैसा त्योहार इस बात का भी प्रतीक बन जाता है कि समाज में घटने वाले
किसी नए परिवर्तन के स्वागत की तैयारी भी हमारा कम महत्त्वपूर्ण कार्यभार नहीं
है। तो आइये कवि त्रिलोचन की इन पंक्तियों के साथ बसंत का स्वागत करें- कोकिल ने
गान गा के कहा आ गया बसंत/ आमों ने बौर ला के कहा-आ गया बसंत/ क्यों मुझको
छेड़ती है हवा बोल बार-बार/ उसने जरा बल खाके कहा आ गया वसंत । / चौताल की लहर
में बोल ढोल के उठे/ गावों ने फाग गा के कहा- आ गया वसंत।
‘गांवों ने फाग
गा के कहा आ गया बसंत’ सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला नजीर अकबराबादी
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Source – KalpatruExpress News Papper
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