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प्रेम के ढाई
  आखर पढ़ने वाले को पंडित कहा गया है। यूं तो दुनिया भर में प्रेम के बारे में
  खूब लिखा पढ़ा जाता है लेकिन क्या प्रेम केवल भावनात्मक रिश्ता है या फिर
  विज्ञान की भाषा में भी इसे पढ़ा जा सकता है? चिकित्सक प्रेम की क्या व्याख्या करते हैं
  और शरीर पर इसके प्रभाव को किस रूप में देखते हैं? शरीर की वह कौन-सी रासायनिक क्रियाएं होती
  हैं, जो हमें प्रेम
  करने को प्रेरित करती है? क्या यह रक्त को शरीर में प्रवाहित करने
  वाले हृदय के कारखाने में जन्म लेता है या मस्तिष्क की शिराओं में स्मृति एवं
  चेतना के बीच पनपता है? वेलेण्टाइन डे के बहाने प्रेम को विज्ञान के निकष पर जांचने- परखने के
  प्रयासों के बारे में विस्तार से बता रहे हैं आलोक पराड़कर और रिया तुलसियानी। 
वैज्ञानिकों
  की भाषा में प्रेम 
लिम्बिक
  सिस्टम प्रेम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मानव मस्तिष्क का वह जटिल समूह
  है जिसमे हाइपोथैलेमस, हिप्पोकैम्पस, सिंग्यूलेट जाइरस, बसल गैंगलिया, ऐमिगडाला इत्यादि कई भाग शामिल होते हैं।
  लिम्बिक सिस्टम भावनाओं, व्यवहार, स्मृति, प्रेरणा, दर्द का अहसास
  और सूंघने की शक्ति जैसी क्रियाओं को सहयोग करता है लेकिन भावनात्मक जीवन और
  बातों को अधिक समय तक याद रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 
हाइपोथैलेमस
  लिम्बिक सिस्टम का वह हिस्सा जो न सिर्फ पीयूष ग्रन्थि के द्वारा निकलने वाले आठ
  महत्वपूर्ण हारमोन्स को नियंत्रित करता है बल्कि मनुष्य की भावनात्मक
  प्रतिक्रिया का विवेचन भी करता है। यौन व्यवहार भी मस्तिष्क के इस हिस्से से
  नियंत्रित होते हैं। 
5-एचटी या
  सिरोटोनिन मूड, भूख, निद्रा, स्मृति, ज्ञान को
  नियंत्रित करने वाला मस्तिष्क का रसायन है। मूड अर्थात मिजाज पर नियंत्रण के
  कारण प्रेम में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 
डोपामीन
  सिरोटोनिन की ही तरह यह रसायन भी व्यवहार, मिजाज, सुखद अनुभूति, अध्ययन, निद्रा से जुड़ा है और इस प्रकार प्रेम से जुड़ा है। 
रसायनों के
  मिश्रण से होता है प्रेम मानव मस्तिष्क में भावनात्मक और व्यावहारिक दो घटक होते हैं। भावनात्मक पहलू
  मस्तिष्क में पाए जाने वाले लिम्बिक सिस्टम से संचालित होता है और व्यावहारिक
  पहलू मस्तिष्क के अगले भाग में पाए जाने वाले फ्रंटल लोब से संचालित होता है।
  इसका तीसरा पहलू मनोवैज्ञानिक है जो मस्तिष्क में ऐसी क्रिया को निश्चित करता है
  जिससे दूसरे व्यक्ति की अच्छी और बुरी आदतों को देखा जाता है लेकिन जिससे प्रेम
  होता है उसकी बुरी आदतें नहीं दिखाई देती हैं। इस क्रिया के लिए मस्तिष्क में कई
  रसायन होते हैं जिसमे डोपामीन और सिरोटोनिन मुख्य हैं जो व्यक्ति में प्रेम की
  भावनाओं को बढ़ाते हैं और एड्रनलिन नामक रसायन उन भावनाओं को दबाता है। प्रेम हो
  या नफरत, मस्तिष्क ही
  भावनाओं का नियंत्रक है। 
-डॉ. सुनील
  प्रधान न्यूरो सजर्न, एसजीपीजीआई-लखनऊ 
लेकि विज्ञा
  मानव मस्तिष्क है प्रेम का जन्मदाता विज्ञान ठीक तरह से प्रेम को परिभाषित नहीं
  कर पाया है। 
विज्ञान की
  कसौटी पर भी सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है प्रेम की भावनाएं मस्तिष्क में ही
  उत्पन्न होती हैं। मस्तिष्क में हाइपोथैलेमस नामक भाग इन भावनाओं को नियंत्रित
  करता है और टेम्पोरल लोब हाइपोथैलेमस को नियंत्रित करता है। मस्तिष्क में रसायन
  से ही सारी क्रियाएं होती हैं। 5एच टी नामक रसायन की कमी से मनुष्यों में अवसाद बढ़ता है, उस वक्त अच्छी, बुरी किसी भी प्रकार की भावनाएं उजागर नहीं
  होती है लेकिन जब यह रसायन बढ़ता है तो प्रेम की भावनाओं का अधिक से अधिक संचार
  होता है। प्रेम को सोचकर इस रसायन को बढ़ाया भी जा सकता है। 
-डॉ. अनूप
  कुमार ठक्कर, न्यूरो
  फिजिशियन, राममनोहर
  लोहिया चिकित्सालय-लखनऊ ऑक्सीटोसिन नामक रसायन महिलाओं में पुरुषों की तुलना में
  अधिक पाया जाता है जिससे उनमें दूसरे की देखभाल करने की भावना अधिक होती है। 
आखिर ऐसा क्या
  होता है कि लगता है जैसे पांवों में पंख लग जाते हैं और मन गुनगुना उठता है- ‘आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे, बोलो देखा है कभी तुमने मुङो उड़ते हुए’। या फिर मन ऐसा निठल्ला हो जाता है कि कुछ
  भी अच्छा नहीं लगता, बकौल गालिब- ‘इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के’। एक ऐसा जुनून जहां ‘दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफा याद, अब मुझको नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद’ (जिगर मुरादाबादी) और एक ऐसा दर्द जब कोई
  कहता फिरे-‘इब्ने मरियम
  हुआ करे कोई, मेरे दुख की
  दवा करे कोई’(मिर्जा
  गालिब)। ऐसी अनुभूति जो पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं से लेकर मानव तक को गहरे तक
  प्रभावित करती है, जिस पर
  रचनाकारों ने कितने ही पóो रंग डाले, गीत-गजल, किस्से-कहानी, नाटक-फिल्म
  जिनका वर्णन करते नहीं थकते, वह प्रभाव जो कभी हमें अतिरिक्त ऊर्जा से भर देता है तो कभी बेचैन कर देता
  है, जिसे प्रेम, प्यार, इश्क, मोहब्बत जैसे
  नाम दिए गए हैं, वास्तव में वह
  है क्या? जिसे व्यवहार
  और भाषा में तरह-तरह से व्याख्यायित और परिभाषित किया जाता है, क्या विज्ञान की प्रयोगशाला में भी वह अपनी
  कोई पहचान साबित कर पाता है? शायर जिस दुख और दवा की बात करते हैं क्या चिकित्सा विज्ञान ने कभी उस रोग
  को समझने की कोशिश की है? यह अलग बात है
  कि ये बातें बहुत चर्चा में नहीं आतीं 
ने प्रेम को
  अपनी प्रयोगशाला में परखने की कोशिश बहुत पहले ही शुरू कर दी थी और इसे विभिन्न
  प्रकार से व्याख्यायित करने के प्रयास किए गए। हालांकि शुरू में इसके जो तर्क
  दिए गए, शरीर की जिन
  क्रियाओं का हवाला दिया गया, उनमें से कई बाद के अनुसंधानों में गलत भी साबित हुए। यह कहना ठीक होगा कि
  जब से मनुष्य ने प्रेम के गलियारों में झंकना शुरू किया है तब से वैज्ञानिकों ने
  मनुष्य के शरीर में पनप रही प्रेम की जड़ों को खोजना शुरू किया है। आरम्भ में
  माना गया कि मनुष्य के शरीर में रक्त और ेष्मा की धाराप्रवाह में होने वाला
  असंतुलन ही इसके मूल में है लेकिन बाद में वैज्ञानिकों ने इसे सही नहीं माना।
  लम्बे समय तक चले अनुसंधानों के बाद आज वैज्ञानिकइस बारे में बहुत कुछ ठीक ठीक
  कह पा रहे हैं कि किस प्रकार मस्तिष्क का रसायन प्रेम से मिलने वाले सुख या दुख
  की अनुभूति कराता है। 
हालांकि प्रेम
  के बारे में हमेशा दिल की ही बात की जाती है लेकिन वैज्ञानिक अध्ययनों की मानें
  तो सच्चाई यह है कि प्रेम में दिल या हृदय की नहीं बल्कि मस्तिष्क की भूमिका
  महत्वपूर्ण होती है। दिल का रिश्ता इतना जरूर होता है कि भावावेश में धड़कनें
  जरूर बढ़ जाती हैं और रक्तशिराएं संकुचित हो जाती हैं लेकिन प्रेम में ज्यादा
  काम तो दिमाग ही करता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि मस्तिष्क का लिम्बिक सिस्टम ही
  प्रेम से जुड़े भावों के लिए जिम्मेदार होता है। 
वास्तव में
  मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टम से ही भावनात्मक व्यवहारों और स्मृतियों से जुड़ी
  गतिविधियों का संचालन होता है। मानव शरीर के भावनात्मक और व्यावहारिक संचालन
  मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्सों से होता है। 
भावनाओं और
  स्मृतियों की जिम्मेदारी जहां मस्तिष्क में थैलेमस के दोनों तरफ होने वाले
  लिम्बिक सिस्टम पर होती है वहीं मस्तिष्क के अग्र भाग से व्यावहारिक गतिविधियों
  का संचालन होता है। प्रेम की जटिलताओं की तरह मानव मस्तिष्क का महत्वपूर्ण
  हिस्सा माने जाने वाला लिम्बिक सिस्टम की बनावट भी काफी जटिल है और इसमें हाइपोथैलेमस, हिप्पोकैम्पस, सिंग्युलेट जाइरस, बेसल गैंगलिया, ऐमिगडाला कई भाग शामिल होते हैं। लिम्बिक
  सिस्टम में भी हाइपोथैलेमस नामक भाग प्रेम में मुख्य भूमिका निभाता है। 
टेम्पोरल लोब
  हाइपोथैलेमस को नियंत्रित करता है। मस्तिष्क में रसायन से ही सारी क्रियाएं होती
  हैं। कुछ चिकित्सक मानते हैं कि 5एच टी, जिसे
  सिरोटोनिन भी कहते हैं, नामक रसायन
  बढ़कर प्रेम की भावनाओं को बढ़ाते हैं। कुछ दूसरे वैज्ञानिक डोपामीन रसायन की
  भूमिकाओं को भी स्वीकारते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, ऑक्सीटोसिन नामक रसायन महिलाओं में पुरुषों
  की तुलना में अधिक पाया जाता है जिससे उनमें दूसरे की देखभाल करने की भावना अधिक
  होती है। 
वैसे प्रेम को
  लेकर चलने वाले वैज्ञानिक अनुसंधानों का लम्बा इतिहास रहा है। वैज्ञानिक
  अध्ययनों के इतिहास में जाएं तो वैज्ञानिक डूजी हाउजर ने प्रेम को व्याख्यायित
  करने के लिए चिकित्सा शा के विख्यात विद्वान हिप्पोक्रेट्स के
  सिद्धान्त का अध्ययन किया जिसमें रक्त, ेष्मा, काली और पीली
  पित्त का वर्णन है। डूजी हाउजर ने इस सिद्धान्त पर विश्वास किया और माना कि
  मनुष्य शरीर में इन चारों धाराप्रवाहों का मिश्रण ही प्रेम को उजागर करता है।
  वर्ष 1600 तक अध्ययनों
  में इस अनुभूति को एक रोग माना गया। वैज्ञानिक थॉमस विलीस ने माना कि मानव
  व्यवहार और भावनाओं के विभिन्न रूपों के लिए मस्तिष्क जिम्मेदार है। वर्ष 1667 में प्रेम रोग को न्यूरोलॉजिकल
  प्रतिक्रिया माना गया और मस्तिष्क की बीमारियों में शामिल किया गया। 
उन्होंने कहा
  कि जो लोग शारीरिक रूप से अधिक संवेदनशील होते हैं, उन्हें प्रेम की अनुभूति अधिक होती है।
  लेखक डॉ. फ्रैंक टैलिस ने अपनी पुस्तकों में बताया है कि किस प्रकार वर्ष 1800 आते आते प्रेम की परिभाषा यौन संपर्क में
  तब्दील हो गई। एक दूसरे लेखक डॉ. रे वॉघन पियर्स ने माना कि दो प्यार करने वाले
  मानसिक क्षमता की गिरावट से ग्रसित होते हैं क्योंकि उस अनुभूति से रक्त
  मस्तिष्क से जननांगों में अनुप्रेषित होता है। इस स्थिति को उन्होंने मानसिक
  भुखमरी का नाम दिया। लेखक डॉ. हेलेन फिशर और उनके सहयोगियों ने प्रेम कर रहे 49 लोगों की एमआरआई स्कैनिंग की। 
उन्होंने पाया
  कि उनके साथियों की तस्वीर से मस्तिष्क के बीचों बीच ‘वेंट्रल टेगमेनल एरिया’ प्रभावित होता है और ‘डोपामीन’ रसायन के बनने में सहायक होता है। डॉ. जे. रिचर्ड कुकरली का कहना है कि जब
  मनुष्य किसी कार्य को मनोवैज्ञानिक तरीके से करता है तो उसके मस्तिष्क के रसायन
  प्रतिक्रिया देते हैं। इस बात के कई सबूत हैं कि आंतरिक अनुभूति प्राप्त कराने
  वाले प्रेम से उत्पन्न भावनाओं के कारण हमारे शरीर कुछ रसायन बनते है, साथ ही कुछ जैवकीय बदलाव आते हैं जो हमारे
  शरीर के लिए बहुत फायदेमंद होते हैं। दूसरी तरफ ऐसी भी खोजें हुई हैं जिसमे अपार
  सुख देने वाले प्रेम का अभाव मनुष्य की मौत के रूप में सामने आया है। 
प्रेम से
  जुड़े कई मनोवैज्ञानिक पहलू भी हैं। 
मनोवैज्ञानिक
  मानते हैं कि मस्तिष्क अपने ढंग से दूसरे व्यक्ति की अच्छी और बुरी आदतों को
  देखता है लेकिन व्यक्ति जिससे प्रेम करता है उसकी बुरी आदतें नहीं दिखाई देती
  हैं। लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कालेज के अवकाश प्राप्त मनोचिकित्सक डॉ. हरजीत
  सिंह कहते हैं कि प्रेम को अच्छी तरह समझना भी जरूरी है। 
यह सिर्फ
  आकर्षण नहीं हैं। वह कहते हैं कि वास्तव में प्रेम को दो भागों में बांटा जा
  सकता है-पहला वास्तविक और दूसरा झूठा। डॉ. सिंह यह भी कहते हैं कि जो लोग अधिक
  आकर्षित करने वाले होते हैं वे भावुक होने के साथ साथ क्रोधी भी होते हैं। इसी
  मेडिकल कालेज के एक दूसरे मनोचिकित्सक डॉ. भूपेन्द्र सिंह बताते हैं कि प्रेम रोमांटिक
  (पति-पत्नी के बीच), इंटरपर्सनल
  (मां और बच्चे के बीच), इमपर्सनल (कोई
  सीमित दायरा नहीं) और प्लेटोनिक (रिश्तेदारों और परिवार के साथ) चार प्रकारों
  में बांटा जा सकता है। वह कहते हैं कि मानव मस्तिष्क इस बात को समझता है कि जहां
  से किसी चीज की प्राप्ति होती है वहां से प्रेम की भावनाएं स्वाभाविक रूप से
  उत्पन्न हो जाती हैं। मस्तिष्क का जो हिस्सा जो भूख और प्यास को नियंत्रित करता
  है वही हिस्सा प्रेम की भावनाओं को भी नियंत्रित करता है। 
वैज्ञानिक
  थॉमस विलीस ने माना कि मानव व्यवहार और भावनाओं के विभिन्न रूपों के लिए
  मस्तिष्क जिम्मेदार है। 
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सोमवार, 24 फ़रवरी 2014
विज्ञान के निकष पर ढाई आखर प्रेम ढाई आखर प्रेम
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