आज देश में हर
ओर महिलाओं का उत्पीड़न चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसे में पुलिस विभाग में काम
करने वाली महिलाओं को देखकर एक उम्मीद जरूर सांस लेती है कि शायद इनसे आधी आबादी
के हौसले को ताकत मिले। लेकिन विडंबना देखिए कि महिलाओं की सुरक्षा का भार जिन
कंधों पर है खुद वे ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं। पुलिस थानों में
महिला पुलिसकर्मियों को इसलिए नियुक्त किया जाता है कि वे समाज से दुत्कारी गई
या नरक से बदतर जिंदगी जीने को मजबूर महिलाओं की रक्षा करेंगी और उन्हें न्याय
दिलाएंगी।
लेकिन समाज
में प्रताड़ित महिलाओं की रक्षा तो दूर खुद इन्हें भी अपनी रक्षा करना भारी पड़
रहा है। हाल में सामने आयीं कुछ घटनाएं पुलिस सेवा की कड़वी हकीकत से परिचित
कराती हैं। पुलिस विभाग में होते हुए भी इन्हें किस तरह अपने अस्तित्व के लिए
संघर्ष करना पड़ता है। महिला पुलिसकर्मियों की जिंदगी की ऐसी ही कुछ सच्चाइयों
से रूबरू कराती हुई चित्रकान्त शर्मा की एक रिपोर्ट..
कुछ कर गुजरने
के हौसले को लेकर पुलिस विभाग तक पहुंचने वाली महिलाएं दरअसल कमजोर नहीं होतीं
और न ही उनके इरादे कमजोर होते हैं लेकिन पुलिस की नौकरी में आने के बाद उनके
नाम के साथ सरकारी कर्मचारी का तमगा लगना कई बार भारी भी पड़ता है। वे न केवल
अपने अधिकारियों के निर्देशों में बंधी होती हैं बल्कि एक नियमित सरकारी
कर्मचारी की तरह काम निपटाने में विश्वास करती हैं।
समाज में कुछ
कर गुजरने के इरादे से खाकी पहनने वाली इन महिला पुलिसकर्मियों को विभागीय
दायित्व के साथ-साथ अपने व्यक्तित्व के आयामों को बांटना होता है। कभी एक मां, कभी बेटी तो कभी पत्नी की जिम्मेदारियों
को भी बखूबी निभाना होता है। एक कड़वा सत्य यह भी है कि राजपत्रित महिला
अधिकारियों को छोड़कर पुलिस जैसी संवेदनशील नौकरी में महिला पुलिसकर्मियों की
शिक्षा का स्तर हाईस्कूल या इंटर तक ही सीमित है। इससे भी कई तरह की समस्याओं का
जन्म होता है। शिक्षा के स्तर में कमी के चलते भी कई बार आपराधिक तत्वों की
कारगुजारियों को वे ढंग से हैंडल नहीं कर पाती हैं। साथ ही उन्हें कानून की
पेचिदगियां भी कम मालूम होती हैं। कुछ ढांचागत खामियों के बावजूद ये पुलिसकर्मी
अपने कर्तव्य के प्रति जवाबदेह होती हैं,लेकिन कई बार वे खुद ही अपराधियों के चंगुल में फंस जाती हैं।
जहां न केवल
उनका आत्मसम्मान चोटिल होता है बल्कि पुलिस विभाग में होने पर प्रश्नचिन्ह भी
लगता नजर आता है। जहां इनके अंदर देशभक्ति का जज्बा और समाजसेवा के लिए जुनून
होता है वहीं ये जब इंसाफ की डगर पर चलती हैं तो उनके देशवासी ही उनकी राह में
सबसे बड़े रोड़ा बन जाते हैं। इस बात को ये मानतीं भी हैं कि अपेक्षित जनसहयोग न
मिलने की वजह से ज्यादा हताशा और कुंठा होती है। लेकिन क्या सरकारी महकमे के
उच्चअधिकारियों ने इनकी इस दुरूह होती जिंदगी से कभी दो- चार होने की कोशिश की
है। ऐसा लगता तो नहीं है। अगर होता तो क्या इनके रहने के आवास अच्छे न होते या
फिर इन्हें तय घंटों से ज्यादा या कहें बहुत ज्यादा काम क्यूं करना होता।
सिपाहियों की बात छोड़ दें, तो थानाध्यक्ष तक के आवास खंडहर जैसे नजर आते हैं। चाहे जनता या राजनेताओं
का सहयोग मिलता हो या न हो। लेकिन ये मानती हैं किअधिकारियों ने उनका साथ दिया
है। वहीं पारिवारिक सहयोग भी अपेक्षा के अनुरूप मिलने से ये खुश हैं।
आज समाज के हर
क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी धमक को मजबूती के साथ दर्ज कराया है। पुलिस महकमा
भी इससे अछूता नहीं है। आज के उन्नतशील लोग अपनी बेटियों को पुलिस में भेजने से
नहीं हिचकते। जो कि एक बदलती बयार का संकेत भी है। हालांकि इन्हें मानसिक, शारीरिक और सामाजिक तौर पर तमाम दिक्कतों
का सामना करना होता है, लेकिन इनके
जुनून के आगे सब राहें आसान हो जाती हैं। यूं महिलाओं की हिफाजत के लिए नियुक्त
की गई इन महिला पुलिसकर्मियों की हकीकत कुछ और है। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो
यह हर किसी को झकझोरने वाले साबित होंगे। बात उत्तर प्रदेश की ही करें तो राज्य
में कुल पुलिस बल का डेढ़ फीसदी से कुछ कम हिस्सा ही महिला पुलिस है। यानि पौने
दो लाख से कुछ कम पुलिस संख्या बल में से सिर्फ ढाई हजार ही महिला पुलिस रखी हैं, प्रदेश की महिलाओं की सुरक्षा के लिए। जिस
प्रदेश की महिलाओं की संख्या साढ़े नौ करोड़ (95,331,831) से ज्यादा हो, वहां उनकी सुरक्षा के लिए सिर्फ ढाई हजार
महिला पुलिसकर्मी। अफसोसजनक आंकड़े सिर्फ उत्तर प्रदेश के ही नहीं हैं बल्कि
सारे देश का हाल ऐसा ही है। महिलाओं की सुरक्षा के लिए नगाड़े तो बजाए जा रहे
हैं। लेकिन उनसे जुड़े असल मुद्दों को लेकर कोई गंभीर नहीं है। सरकार की
संवेदनहीनता की एक बानगी मध्य प्रदेश में देखने को मिलती है कि जहां बेटियों और
महिलाओं के लिए योजनाएं तो तमाम ढोल बजाकर बताई जाती हैं। लेकिन बच्चों से
बलात्कार में टॉप करने वाले इस प्रदेश के कई जिलों में महिला पुलिस थाने ही नहीं
हैं, और ये कोई
मामूली जिले नहीं हैं बल्कि ऐसे जिले हैं जहां पर देश का कोई न कोई वीवीआईपी
नेता मौजूद है। आइए कुछ महिला पुलिसकर्मियों से जानते हैं कि कैसे कठिन हालातों
में उनका जज्बा कायम है और तमाम दिक्कतों के बावजूद वे कदम से कदम मिलाए आगे
बढ़ी जा रही हैं ..
महिला पुलिस
की कड़वी सच्चाई-
पुरुषों के
बिना गश्त से कतराती हैं महिलाएं भले ही खाकी पहनने के बाद महिलाओं को पुरूषों
के समान अधिकार मिले हों।
लेकिन पुरुषों
के बिना वे आज भी अधूरी हैं। रात्रि में महिलाएं पुरूषों के बिना गश्त करने से
कतराती हैं। दिन हो या रात महिलाओं के साथ पुरुष भी उनकी टोली में शामिल देखे
गये हैं। यह बात स्वयं महिला पुलिसकर्मी भी स्वीकार करती हैं।
हथियार के
प्रयोग में दक्षता नहीं यह बात पूरी तरह सत्य है कि पुलिस महकमे में आने के बाद
भी कई महिलाएं राइफल से लेकर पिस्टल तक चलाने में पूरी तरह दक्ष नही हैं। इसके
लिए केवल महिला पुलिसकर्मी ही नहीं बल्कि महकमे के अधिकारीगण भी कम जिम्मेदार
नही हैं। कई वर्ष बीत जाने के बाद भी जनपद में महिलाओं को कहीं भी शस्त्र
प्रशिक्षण देने का कार्य नहीं हुआ।
अधिकारियों की
नजर में भी कमजोर हैं महिला पुलिसकर्मी भले ही इसे स्वीकार न करें लेकिन
अधिकारियों की नजर में महिला पुलिसकर्मी पुरुषों की अपेक्षा कमजोर साबित होती
हैं। इसीलिए जाम अथवा विवाद के दौरान महिला पुलिसकर्मियों को ज्यादातर पीछे ही
रखा जाता है।
घरेलू हिंसा
तक सिमटी महिला पुलिस ऐसा प्रतीत होता है कि जनपद में महिला पुलिस की भूमिका
केवल घरेलू हिंसा तक ही सिमटकर रह गयी है। महिला पुलिस का प्रयोग दहेज हत्या, छेड़खानी अथवा मारपीट के मामलों तक सीमित
कर दिया गया है।
महिला पुलिस
का इतिहास-
प्राचीन काल
से ही ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि देशसेवा में जितनी भागीदारी पुरुषों की थी, उतनी ही जिम्मेदारी महिलाओं को भी दी जाती
थी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें चाणक्य के महान ग्रंथ अर्थशास्त्र में
विषकन्याओं के रूप में मिलता है। जिनका इस्तेमाल शत्रु को मारने के लिए किया
जाता था। रानियों की सुरक्षा का जिम्मा भी सशस्त्र महिलाओं को ही सौंपा जाता था।
इनकी भूमिका एक प्रकार से कमांडो की तरह होती थी। ग्रीक इतिहासकार भी इस बात को
मानते हैं कि पंजाब की कुछ बहादुर महिलाएं सिकन्दर के विरोध में पुरुषों से
कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ी थीं। हालांकि बीसवीं शताब्दी के दौरान ब्रिटिश सरकार
के मन में महिला पुलिस का विचार आया पहली बार आया। 1919 में वेश्यालयों को बंद करवाने के लिए उनके
प्रयोग के संबंध में यह विचार आया। आधुनिक भारत में महिला पुलिस की शुरूआत 1939 में कानपुर की मजदूरों की एक हड़ताल के
दौरान हुई। इस हड़ताल में महिलाओं ने भी खासी तादाद में हिस्सा लिया। हड़ताल के
दौरान जब मजदूर महिलाएं प्रवेश द्वार पर बैठ गइर्ं तो पुरुष पुलिसकर्मियों को
उन्हें हटाने में बड़ी असमंजस का सामना करना पड़ा। ऐसे में अंग्रेज सरकार ने
महिला पुलिस की नियुक्ति की।
महिला
थानाध्यक्ष का आवास, कासगंज
सिपाहियों के आवास, मैनपुरी महिला
थाना, कासगंज क्या
सरकार ने इनकी इस दुरूह जिंदगी से दो-चार होने की कोशिश की। ऐसा लगता तो नहीं
है। अगर होता तो क्या इनके रहने के आवास अच्छे न होते या फिर इन्हें तय घंटों से
ज्यादा या कहें बहुत ज्यादा काम क्यूं करना होता। सिपाहियों की बात छोड़ दें, तो थानाध्यक्ष तक के आवास खंडहर जैसे नजर
आते हैं।
अपराध निवारण
में बाधक तत्व .. अपराधी कानून
में मौजूद कई लूपहोल्स का सहारा लेकर बच निकलते हैं।
जनता की
उदासीनता भी एक प्रमुख कारक है।
पुलिस विभाग
में भ्रष्टाचार भी उनके हौसले पस्त करता है।
राजनीतिज्ञों
और माफिया का दबाव खुलकर काम नहीं करने देता।
शर्मनाक
27 जनवरी 2014 कासगंज जिले में घंटाघर के पास एक महिला
कॉस्टेबल को पांच युवकों ने घेर लिया और अश्लील हरकत की। जब साथ जा रहे भाई ने
विरोध किया तो उसकी बुरी तरह से पिटाई कर दी।
12 जनवरी 2013 दिल्ली में एक महिला पुलिसकर्मी अपने पति
की दहेज की मांग न पूरी होने पर आत्महत्या करने को मजबूर हुई।
06 सितम्बर 2012 ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में विधानसभा
भवन के बाहर विरोध प्रदर्शन के दौरान कांग्रेस प्रदर्शनकारियों ने एक महिला
पुलिस अधिकारी पर जानलेवा हमला किया।
24 अगस्त 2013 झरखंड के लातेहार जिले में नक्सली हमले में
मारे गए अपने रिश्तेदार का शव लेकर गढ़वा जा रही एक महिला पुलिसकर्मी और विधवा
से लुटेरों ने सामूहिक बलात्कार किया।
04 जून 2013 राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले की एक महिला
कांस्टेबल ने अनूपगढ़ पंचायत समिति के पूर्व प्रधान के बेटे पर अपहरण, बंधक बनाने और दुष्कर्म का मामला दर्ज
कराया।
19 अप्रैल 2013 मुजफ्फरनगर में तीन गुंडों ने दो महिला
पुलिसकर्मियों के साथ छेड़खानी की।
उनके द्वारा
विरोध करने पर दोनों महिला पुलिसकर्मियों को बुरी तरह से पीटा। बुरी तरह से
पिटाई के बावजूद एक गुंडे को इन महिला पुलिसकर्मियों ने दबोच लिया।
27 सितम्बर 2013 लखनऊ में एक दरोगा (आरआई) ने सिपाही पुलिस
लाइन में तैनात महिला सिपाही के साथ छेड़छाड़ का मामला दर्ज करने में जरा भी
दिलचस्पी नहीं दिखाई।
जब इस महिला
सिपाही ने एक एनजीओ की मदद ली तब कही जाकर एसपी ने जांच की बात कहकर
उच्चाधिकारियों के निर्देश मिलने के बाद कार्रवाई की।
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मंगलवार, 18 मार्च 2014
ऐसे कैसे लगेगा अचूक निशाना
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