बुधवार, 19 मार्च 2014

जानें कितना जरूरी है शिक्षा व्यवस्था में बदलाव?



हमारे देश में शिक्षा संस्थानों की संख्या बढ़ती जा रही है, स्नातकों और साक्षरों की संख्यां में भी 
 लगातार बढ़ोतरी हुई है लेकिन शिक्षा प्रणाली को लेकर सवाल भी उठते रहे हैं। महात्मा गांधी ने 
कभी कहा था, ‘वास्तविक शिक्षा वह है जिससे व्यक्ति के चरित्र का निर्माण होलेकिन आज की 
शिक्षा प्रणाली ऐसी है जो पुस्तकों में दिए ज्ञान को आत्मसात करने या जीवन में उतारने की जगह 
केवल उसे रटकर परीक्षा में अंक प्राप्त करना सिखाती है। आज की शिक्षा ब्रिटिश शासन में मैकाले 
द्वारा बनायी गयी शिक्षा प्रणाली का ही विस्तार है, जिसका उद्देश्य भारत में बाबू तैयार करना था। 
गौरतलब है कि हमारे देश में किसी समय गुरुकुलों में शिक्षा की व्यवस्था थी। यह घर-परिवार से 
दूर गुरुओं के पास कई वर्षो तक रहकर शिक्षा ग्रहण करने की व्यवस्था थी। बाद में सैकड़ों विद्यार्थी 
गुरुओं के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करने लगे। तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला जैसे प्राचीन 
विश्वविद्यालय इन्हीं आश्रमों का विकसित रूप बने। परतंत्र भारत में राजा राममोहन राय, स्वामी 
विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर सहित कई महापुरुषों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा के 
विनाशकारी प्रभाव को समझ कर देश की सभ्यता एवं संस्कृति के अनुकूशिक्षा के भारतीयकरण 
का प्रयास किया तथा अनेक राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना कर ोगों में देशभक्ति की चेतना 
जागृत की। ऐसी शिक्षा-संस्थाओं ने स्वाधीनता आन्दोलन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया लेकिन 
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से संस्कारों के साथ गुरु और शिष्य का रिश्ता कहीं पीछे छूटता जा रहा है। 
शिक्षा में हो रहे रहे बदलावों पर रिया तुलसियानी ने शिक्षाविदों से बात करके शिक्षा व्यवस्था के
 अन्तद्र्वन्द्वों को तलाशने की कोशिश करते हुए उनसे जानना चाहा है कि वे शिक्षा व्यवस्था में 
किस तरह का बदलाव चाहते हैंकि -
जानें कितना जरूरी है शिक्षा व्यवस्था में बदलाव?
उच्च शिक्षा की कमी उन्नाव की निधि पाल का कहना है कि आधुनिक युग में गांव की लड़कियों को
 अच्छे स्कूलों में पढ़ने का मौका नहीं मिलता है।
उन्हें पढ़ने के लिए बाहर नहीं जाने दिया जाता है। इस कारण से बहुत सी लड़कियां उच्च शिक्षा 
 ग्रहण नहीं कर पाती हैं। सरकारी स्कूल के शिक्षकों को भी विद्यार्थियों के भविष्य में कोई रुचि 
नहीं है। ऐसे शिक्षकों को अपने व्यवहार में परिवर्तन करना चाहिए।
गांवों में नये स्कूल खुलें उन्नाव की आकांक्षा यादव का कहना है कि आज भी कई गांव ऐसे हैं जहां 
 पर एक भी स्कूल नहीं है। वहां पर बच्चे चाह कर भी पढ़ नहीं पाते हैं। हमारे देश में दिन-प्रतिदिन
 लूट, हत्याएं और आतंकवाद की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। इसमे कमी लाने के लिए गांव-गांव में 
नये स्कूल खोलने की आवश्यकता है। साथ ही लड़के और लड़कियों को बराबर शिक्षा मिले ताकि 
लड़कियां भी देश का भविष्य सुधारने में मदद कर सकें।
फीस में कमी पर हो विचार जोनपुर की नैन्सी श्रीवास्तव का कहना है कि शिक्षा ही एक मात्र ऐसा 
 साधन है जिससे हमारे देश की नींव मजबूत हो सकती है लेकिन आजकल स्कूल कॉलेजों में फीस 
बहुत अधिक होने से गरीब जनता निरक्षर रह जाती है। जो मां-बाप इतनी अधिक फीस देने में 
असमर्थ हैं उनके बच्चे अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।
भारत सरकार को फीस में कमी लाने के विषय में विचार करना चाहिए।
शिक्षा में कोटा न हो लखनऊ की पूनम वर्मा का कहना है कि एक शिक्षित मनुष्य ही अपने जीवन 
को मनोरंजक और सरल बना सकता है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने शिक्षा के जगत में बहुत से 
सुधार किये हैं लेकिन अभी भी शिक्षा के क्षेत्र में जागरूकता की आवश्यकता है। शिक्षा में सभी को 
समान अधिकार 
मिलने चाहिए न कि पिछड़े वर्ग को अधिक। शिक्षा में कोटा होने के कारण कई अच्छे विद्यार्थियों 
के साथ न्याय नहीं हो पाता है।
मां-बाप का न हो दबाव लखनऊ के स्वप्निल खटनानी का कहना है कि शिक्षा हर समस्या का कारण भी है और निवारण भी। उपयोग भी है और दुरुपयोग भी।
भारत में शिक्षा के नियम तो बनते हैं लेकिन उन नियमों के पालन के लिए व्यवस्थाएं नहीं बनती 
हैं, जिससे शिक्षा के अधिकार अधिनियम का फायदा भी पूरी तरह से नहीं उठाया जा रहा है। बच्चों
 पर मां-बाप या 
शिक्षकों द्वारा बोर्ड एक्जाम, आई.आई.टी., पी.एम.टी. में बहुत अच्छे नंबर लाने का दबाव भी नहीं 
होना चाहिए।
डिग्री से प्रतिभा का आकलन सीतापुर के अंशु अभिषेक का कहना है कि वर्तमान में भारत की 
गणना विकसित देशों में होती है लेकिन अभी शिक्षा के क्षेत्र में विकास बाकी है। सन् 2012 में हुए 
एक सव्रे के अनुसार 
भारत में सबसे अधिक अनपढ़ लोग हैं। वर्तमान समय में डिग्री देखकर ही प्रतिभा को आंका जाता 
है। अब वह समय नहीं कि पढ़ो भले ही न पर कढ़ो जरूर। अब पहले पढ़ाई बाद में कुछ और वाला 
समयहै। इस पर सिर्फ सरकार को ही नहीं बल्कि हर व्यक्ति को विचार करना चाहिए।
गुरुकुल प्रथा अच्छी थी लखनऊ के रवि प्रकाश यादव का कहना है कि भ्रष्टाचार के इस युग में 
 शिक्षा केवल किताबों व डिग्रियों में सिमट कर रह गयी है।
शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य बदल गया है। पहले बच्चे ऋषियों मुनियों के पास रहकर वनों में बैठकर 
शिक्षा ग्रहण किया करते थे।
तब उन्हें किताबी ज्ञान के साथ विचारों की शुद्धि का ज्ञान भी दिया जाता था लेकिन शिक्षा के 
बदलते स्वरूप ने भारत की दुर्दशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
अशिक्षित बढ़ रहे मुगलसराय की प्रीति का कहना है कि भारत में अच्छी शिक्षा होने के बावजूद 
 अशिक्षितों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।
कारण यह है कि एक तरफ मां-बाप बच्चों का महंगे स्कूलों में दाखिला कराते हैं, भारी मात्रा में फीस 
देते हैं दूसरी तरफ पढ़ाई में रोड़ा अटकाने वाले मोबाइल, इंटरनेट, लैपटॉप, बाइक इत्यादि की सुविधाएं 
उपलब्ध करा देते हैं। ऐसे में मां-बाप को बच्चे की हर इच्छा पूरी करने के बजाय सही-गलत का 
निर्णय लेना चाहिए।
अव्वल विद्यार्थी पुरस्कृत हों जाैनपुर की ज्योति यादव का कहना है कि भारत की शिक्षा प्रणाली में 
सुधार की बहुत आवश्यकता है। गरीब विद्यार्थियों को प्रेरित करने वाले कार्यक्रमों का आयोजन होना 
चाहिए। गरीब परिवार के बच्चों को पढ़ाई में सहायता के लिए किताब और अन्य सामग्रियां मुफ्त में 
प्रदान की जानी चाहिए। परीक्षा में अव्वल स्थान लाने वाले विद्यार्थियों को पुरस्कृत करना चाहिए। 
अन्य क्षेत्र जैसे खेल-कूद, गायकी, नृत्य इत्यादि में बढ़ने के लिए प्राथमिक स्तर पर ही व्यवस्था होनी 
चाहिए।
तकनीकी कमी से नुकसान लखनऊ के लोकेन्द्र सिंह का कहना है कि भारत में शिक्षा के क्षेत्र में 
 बेहतर सुविधाएं न होने के कारण कई भारतीय विदेशों में बस जाते हैं, जिससे वहां की उन्नति होती
 है। ऐसे में भारत में नयी तकनीकों और नये प्रोजेक्ट्स को लाना चाहिए ताकि भारतीय अपने देश 
 में रहें और देश के विकास में सहयोग दें। अच्छी शिक्षा योजनाएं और व्यवस्थाएं ही हमारे देश का
 भविष्य उज्जवल कर सकती हैं।
क्या कहते हैं विद्यार्थी पाठय़क्रमों में बदलाव हो  -
सालों से चल रहे पाठय़क्रमों में अभी तक कोई बदलाव नहीं किया गया है।
यदि दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में चल रहे पाठय़क्रमों का
 मिलान किया जाए तो उनमें भी बहुत अन्तर देखने को मिलेगा। शिक्षकों को मेहनत करनी चाहिए
 और नयी पाठय़क्रम
 सामग्री तैयार करके पुराने पाठय़क्रमों में बदलाव करना चाहिए। हमारी शिक्षा प्रणाली में सबसे 
अधिक दिक्कत भाषा प्रशिक्षण की है। कई विदेशी भारत में हिंदी पढ़ने आते हैं लेकिन उनके लिए 
यहां कोई बेहतर व्यवस्था नहीं है। सालों पुरानी विदेशी लेखकों की पुस्तकों से ही उन्हें पढ़ाया जाता 
है। विदेशियों को कैसे हिन्दी पढ़ाई जाए इस पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। ऐसा 
ही हिन्दी साहित्य में भी है। हिन्दी साहित्य का इतिहास डेढ़-दो हजार वर्ष पुराना है, इसकी विस्तृत 
 जानकारी भी विद्यार्थियों को मिलनी चाहिए।
बच्चों को अच्छी जानकारी मिले इसके लिए कक्षा बारहवीं तक उन्हें एनसीईआरटी की किताबों से 
 पढ़ाना चाहिए। एनसीईआरटी की किताबों में अभी काफी काम हुआ है।
-प्रो. नामवर सिंह (विख्यात आलोचक, पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष-जेएनयू)
कहीं सूचना प्रौद्योगिकी दीवार न बन जाए
 मुङो लगता है कि सबसे पहले तो पढ़ाई का बोझ कम करने की जरूरत है। किताबों के बोझ से 
बच्चों के दिमाग पर दबाव बढ़ता है और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, इससे फायदे के बजाय 
नुकसान हो जाता है। दूसरी बात यह कि पढ़ाने का तरीका बदलने की जरूरत है। जो खुद पढ़ सकते 
हैं उन्हें पढ़ने दिया 
जाए लेकिन जो पढ़ाने वाले हैं उन्हें विषय की गहराई में उतरकर पढ़ाने की जरूरत है। उन्हें डाकिया 
 नहीं बनना चाहिए बल्कि जो पढ़ाना है उसमें गहराई से उतरकर उसे अच्छे ढंग से समझना चाहिए 
और नए ज्ञान के साथ पढ़ाना चाहिए। यह बात छोटे बच्चों के स्कूलों से लेकर महाविद्यालयों
विश्वविद्यालयों तक सभी में लागू होती है। रटकर प्राप्त की गई शिक्षा से ज्ञान प्राप्त होने के 
 बजाय स्मरण शक्ति की परीक्षा होती है। हालांकि हमारे यहां याद करने की यह परम्परा प्राचीन
 काल से ही चली आ रही है। ग्रन्थों को भी रटाया जाता रहा है।
प्रो. यशपाल (विख्यात शिक्षाविद् एवं वैज्ञानिक)
नहीं पैदा हो रही समाज को बदलने वाली नजर
 वर्तमान शिक्षा प्रणाली में संवेदना जगाने और समाज को बदलने वाली नजर पैदा नहीं होती है। 
शिक्षा व्यवस्था घिसी पिटी है। संवैधानिक मूल्य चेतना की जो बातें हुआ करती हैं-जैसे आपस में 
सब भाई-भाई हैं, लड़का और लड़की बराबर हैं, सबका मालिक एक है, ये बातें कहीं भी शिक्षा व्यवस्था
 में सिखाई नहीं जाती हैं । नैतिक शिक्षा की बातें तो अब जैसे पाठय़क्रम से गायब ही होती जा रही
 हैं। वैसे, प्रसन्नता इस बात की है कि अब सरकार शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत अधिक 
जागरूक हो गई है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम से गरीब बच्चों को बहुत फायदा मिल रहा है। 
इसी कानून को कारगर करने के लिए सर्वशिक्षा योजना के अन्तर्गत भी काफी काम हुआ है। मैं 
गुरुकुल की व्यवस्था के पक्ष में नहीं हूं। गुरू के घर में रहना, उनकी सेवा करना, उनके नियमों पर 
चलना, उनके अनुसार पढ़ाई करने की बात मेरी समझ से परे है। आधुनिक शिक्षा गुरुकल की अपेक्षा 
ज्यादा बेहतर विकल्प है।
प्रो.रूपरेखा वर्मा (पूर्व कुलपति-लखनऊ विश्वविद्यालय)
बदल रही है शिक्षकों की सोच
वर्तमान में शिक्षकों के व्यवहार में बदलाव नजर आता है। अब उन्हें विद्यार्थियों की फिक्र बिल्कुल 
नहीं होती है। वे कक्षा में विलम्ब से आते हैं या फिर जाते ही नहीं हैं। जब शिक्षक ही अनुशासित 
नहीं होंगे तो फिर विद्यार्थियों से अनुशासन की अपेक्षा कैसी की जा सकती है।
इसी वजह से अध्ययन में अनुशासन लगातार कम हो रहा है। ऐसे शिक्षकों की संख्या लगातार घट 
रही है जो अपने काम के प्रति समर्पित हुआ करते थे। परीक्षाएं सख्ती से नहीं होती हैं। 
विश्वविद्यालयों में छात्र नेताओं का बहुत दबदबा है। वे खुद तो नकल करते ही हैं, साथ में दूसरों को 
भी करवाते हैं। उन्हें रोकना शिक्षकों के बस की बात नहीं है। पहले 70 फीसदी से उपस्थिति कम 
होने पर परीक्षा में बैठने नहीं दिया जाता था लेकिन अब प्रशासन की सुस्ती से कोई कार्रवाई नहीं 
होती है। ऐसी लचर 
व्यवस्था से पूरी शिक्षा प्रणाली पर असर पड़ रहा है।
इसे बेहतर बनाने के लिए अनुशासन की सख्त आवश्यकता है।
प्रो.नदीम हसनैन (अध्यक्ष-शरीर विज्ञान विभाग,लखनऊ विश्वविद्यालय)
सुविधाएं बढ़ीं मगर व्यवस्था खराब
सबसे बड़ी बात तो यह है कि केन्द्र और राज्य सरकार को जिस प्रकार से शिक्षा को घर-घर तक 
 पहुंचाना चाहिए, वे पहुंचा नहीं पाए हैं। कोई नया स्कूल खुलने पर उसको चलाने में बहुत दिक्कतों 
का सामना करना पड़ता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि सबसे अधिक रोड़े सरकार ही अटकाती 
है। स्कूल में मिलने वाले भोजन से आए दिन बच्चों के बीमार होने की खबरें आती रहती हैं। समझ 
में नहीं आता कि यह कैसी व्यवस्था है? जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब रोजाना दोपहर में सभी 
बच्चों को नमक लगे अंकुरित चने दिए जाते थे। चने खाकर कभी कोई बच्चा बीमार नहीं हुआ। 
अभी सुविधाएं बढ़ी हैं लेकिन व्यवस्था बहुत खराब है। जिस शिक्षा का सरकार दावा करती है वह 
 कहां है? आज जो भी पढ़-लिखकर काबिल बन रहे हैं उसका श्रेय निजी स्कूलों को जाता है, न कि 
सरकारी स्कू लों को। आज अच्छे शिक्षाविदों की जरूरत है जिन्हें सही मायनों में शिक्षा की फिक्र हो।
शारिब रुदौलवी (पूर्व रीडर, दिल्ली विश्वविद्यालय)
सही ढंग से चलाए जाएं सरकारी विद्यालय
सरकारी स्कूलों को सही ढंग से चलाने की जरूरत है क्योंकि आज न वहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा है और
 न ही शिक्षकों की उपस्थिति।
सभी विद्यालय शिक्षामित्रों पर निर्भर हैं जबकि शिक्षामित्रों के स्तर में सुधार की गुंजाइश है। 
प्राथमिक स्तर के सरकारी स्कूलों के संचालन की जिम्मेदारी या तो नगरपालिका के पास हो या फिर
 पंचायत के पास। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई ठीक न होने के कारण विद्यार्थी निजी स्कूलों के पास 
जाते हैं और वहां अधिक शुल्क होने के कारण पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं। ऐसे बच्चे जिनका 
हाईस्कूल के बाद पढ़ाई में रुझन नहीं है, उनके लिए हुनर आधारित प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी
 चाहिए। उच्च शिक्षा शोधपरक अधिक होनी चाहिए। वर्तमान में विद्यार्थी ज्यादा हैं और
 विश्वविद्यालय कम हैं। गुरुकुल की व्यवस्था आज के समय के अनुकूल नहीं है। आज मोबाइल 
और इंटरनेट का युग है और युवाओं का रुझन आधुनिकता की ओर अधिक है न कि पुरानी 
परम्पराओं में।
अनीस अंसारी (कुलपति-उर्दू, अरबी, फारसी विश्वविद्यालय, सेवानिवृत्त आईएएस)
समाज के अनुकूल बनाए जाएं पाठय़क्रम
सरकार को इस प्रकार की योजना बनानी चाहिए कि वर्तमान में चलने वाले तीनों ही प्रकार के 
 विद्यालय- सरकारी, माण्टेसरी और मिशनरी में पढ़ाई का स्तर सामान्य हो। जिन विद्यार्थियों को 
आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण पढ़ाई में दिक्कत आती है, सरकार को उनकी आर्थिक मदद 
भी करनी चाहिए। जो भी पाठय़क्रम हो, समाज की परिस्थितियों के अनुकूल होना चाहिए। आज जो 
पढ़ाया जा रहा है या जो पाठय़क्रम तय हो रहे हैं उनसे समाज का कोई सीधा सरोकार नहीं होता है। 
एक ऐसा लेखा-जोखा बनाया जाना चाहिए कि हमें कितने चिकित्सक, इंजीनियर, प्रबन्धक या 
नौकरशाह की जरूरत है, उसी अनुसार हमें विद्यार्थियों को शिक्षा देनी चाहिए जिससे एमबीए किया 
हुआ युवा चार-पांच हजार की सेल्समैन की नौकरी न करे। गुरुकुल की व्यवस्था को बहुत अच्छा 
नहीं कहा जा सकता क्योंकि वहां दलित बच्चों के शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं होती थी। आज एक 
ऐसा स्कूल या मदरसा होना चाहिए जहां हर तबके के बच्चे अध्ययन कर सकें भले ही वह मोची का 
बच्चा हो या फिर किसी सफाईकर्मी का।
प्रो. रमेश दीक्षित (सेवानिवृत्त प्रोफेसर-राजनीतिशा, लखनऊ विश्वविद्यालय)
शिक्षा की कमियां एक नजर में -
1- अध्ययन में अनुशासन लगातार कम हो रहा है।
2- ऐसे शिक्षकों की संख्या लगातार घट रही है जो अपने काम के प्रति समर्पित हुआ करते थे।
3- परीक्षाएं सख्ती से नहीं होती हैं।
4- विद्यार्थियों में संवेदना जगाने और समाज को बदलने वाली नजर पैदा करने वाली शिक्षा नहीं।
5- समाज की परिस्थितियों के अनुकूल पाठय़क्रम नहीं।
6- सरकारी स्कूलों में नहीं है गुणवत्तापूर्ण शिक्षा।
7- हुनर आधारित प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं।
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Source – KalpatruExpress News Papper







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