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अपने अनगिनत
रंगों की तरह होली से जुड़ी परम्पराओं के भी देश में कई रंग हैं। किसी एक पर्व
के रंग भी देश में कितने भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, यह विभिन्न संस्कृतियों वाले देश में ही
संभव
है। अलग-अलग क्षेत्रों के पास इस पर्व की अपनी-अपनी कथाएं हैं, मनाने के ढंग हैं। लखनऊ में
इसमें
गंगा-जमुनी रंग शामिल हो जाता है, तमिलनाडु में यह पर्व कामदेव को समर्पित
होता है,
तो कुमाऊं में
संगीत की महफिलें जमती हैं। देश में होली के कई अनूठे रंग हैं। होली के इन्हीं
विभिन्न रंगों को देखकर कभी प्रसिद्ध शायर नजीर अकबराबादी ने कहा था- हिन्द के
गुलशन में
जब आती है होली की बहार, जांफिशानी चाही कर जाती है होली की बहार, एक तरफ से रंग पड़ता,
इक तरफ उड़ता गुलाल, जिन्दगी की लज्जतें लाती हैं, होली की बहार.।
गंगा-जमुनी -
रंग लखनऊ की
तहजीब में ढलकर होली एक गंगा-जमुनी रंग में भीग जाती है। लखनऊ और अवध
पर नवाबों
का लम्बे समय तक शासन रहा है, लेकिन इतिहास से पता चलता है कि नवाबों ने इस
पर्व में रुकावट डालने की जगह
हमेशा इसे प्रोत्साहित किया और खुद भी इसमें शरीक होते रहे।
प्रसिद्ध शायर मीर
तकी मीर ने लिखा है-‘होली खेला
आसिफउद्दौला वजीर.’, जिससे समझ जा
सकता
है कि नवाब आसिफउद्दौला भी होली खेलते थे। सआदत खान और बाद में वाजिद अली
शाह के दौर
में तो होली को खूब बढ़ावा मिला। वाजिद अली शाह तो काफी उत्साह के
साथ इस पर्व में शरीक
होते थे और उन्हें होली के रंगों में भीगना पसन्द था। इस
दौरान संगीत की महफिलें भी खूब जमती
थीं। अवध की संस्कृति और इतिहास के जानकार
मानते हैं कि होली से लगाव के कारण ही नौरोज
को होली जैसा बना दिया गया। नवाबों
के समय से ही होली में साम्प्रदायिक सौहार्द का यह रंग
बरकरार है और
हिन्दू-मुस्लिम मिलकर इसे मनाते हैं। चौक या अमीनाबाद में होली के अवसर पर
होने
वाले आयोजन हों या फिर चौक, चौपटिया, राजाबाजार के
जुलूस-इनमें बड़ी संख्या में मुस्लिम
बन्धु की भागीदारी रहती है। हाथी, ऊंट, घोड़े, झंकियों, पंजाबी ढोल, सपेरों, गायकों के साथ
चलने वाले
जुलूसों का जगह-जगह मुस्लिम बन्धु इत्र, फूल, फल, मिठाइयों द्वारा स्वागत करते हैं।
बैठकी और खड़ी
होली -
कुमाऊं की
होली के रंग भी कई मायनों में देश के दूसरे हिस्सों की होली से काफी अलग हैं।
कुमाऊं
के विभिन्न क्षेत्रों में होली के काफी पहले से संगीत की महफिलें जमने
लगती हैं जिनमें होली से
जुड़ी विभिन्न रचनाएं प्रस्तुत होती हैं। होली की ये रचनाएं बैठकर और खड़े होकर गाई जाने के कारण बैठकी और खड़ी होली के
रूप में
प्रचलित हैं।
लोकसंस्कृति
के विशेषज्ञ मानते हैं कि ये परम्पराएं राज दरबारों से आम लोगों के बीच आई हैं,
लेकिन खास बात यह होती है कि इन्हें वे ही
लोग गा सकते हैं जिन्हें शास्रीय रागों के गायन का
अभ्यास होता है, क्योंकि इनकी धुनें रागों पर आधारित होती
हैं। इनमें शास्रीय संगीत में प्रयोग किए
जाने वाले वाद्यों के साथ ही पारम्परिक
वाद्यों का भी प्रयोग होता है। यह बैठकें रात-रात भर
चलती हैं। नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर सहित
विभिन्न इलाकों में इन बैठकों के साथ ही
होली का उत्सव एक पखवाड़े पहले से शुरू
हो जाता है। होली की इन बैठकों में स्वांग भी
जुड़ गए हैं। होली के अवसर पर कुमाऊं के कई गांवों में चीर एवं निशान बन्धन की भी परम्पराएं हैं जिनके अन्तर्गत लम्बी लाठियों
में कपड़े बांधे जाते हैं और उनकी रखवाली की जाती है।
उधर, गढ़वाल में
फूलों की होली की परम्परा
रही है।
हाथियों का
उत्सव -
होली के साथ जयपुर का गज महोत्सव भी एक अनूठा
रंग जोड़ता है।
होली की पूर्व
संध्या पर इस महोत्सव में हाथियों से जुड़ी विभिन्न प्रतियोगिताएं आयोजित होती
हैं।
सज-संवरे हाथियों का काफिला जब निकलता है और महावतों द्वारा अबीर-गुलाल की
वर्षा होती है,
तो यह छटा
देखते ही बनती है। विदेशियों में इसे लेकर काफी आकर्षण रहा है और बड़ी संख्या
में
वे यहां जुटते हैं। श्रृंगार से जुड़ी प्रतियोगिता के लिए हाथियों को खूब
सजाया जाता है। हाथियों पर
विभिन्न रंगों से सजावट की जाती है। उन्हें तरह-तरह
के आभूषण पहनाए जाते हैं। इस मौके पर
हाथियों की दौड़ और पोलो भी होता है। पोलो
में भाग लेने वाले हाथी अपने पांव एवं सूंड़ से गेंद को
मारते हैं।
करीब तीन दशक
से आयोजित हो रहा यह उत्सव होली से अभिन्न रूप से जुड़ गया है। इस मौके
पर
पर्यटक हाथियों पर सवारी भी करते हैं और एक दूसरे पर अबीर-गुलाल उड़ाते हैं।
कामदेव को
समर्पित उत्सव -
देश के
ज्यादातर हिस्सों में होली का पर्व होलिका और प्रह्लाद की प्रचलित कथा के साथ
मनाई
जाती है, तो देश के
दूसरे हिस्सों से अलग तमिलनाडु में होली कामदेव की कथा से जुड़ी है।
तमिलनाडु
में होली को कामन पोडिगई कहते हैं।
कथा के अनुसार, देवी सती की मृत्यु के बाद व्यथित शिव
ध्यान में चले गए थे। कामदेव ने उनका
ध्यान भंग किया था। गुस्से में शिव ने अपने
तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया, लेकिन
कामदेव की पत्नी रति के विलाप से द्रवित होकर शिव ने कामदेव को जीवित
किया था।
आस्था है कि
कामदेव के तीर के कारण ही शंकर और पार्वती मिल सके थे। इस कारण कामदेव के
जीवित
होने का उत्सव होली के रूप में मनाया जाता है। इसके पूर्व रति के विलाप को लोक
संगीत
के रूप में व्यक्त किया जाता है। कामदेव को भस्म होने में तकलीफ न हो
इसलिए चन्दन की
लकड़ी अग्नि में जलाई जाती है। कामदेव को समर्पित होने के कारण
इसे प्रेम पर्व के रूप में
मनाया जाता है ।
बहारें होली
की
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
खम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग
भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज-ओ-अदा के
ढंग भरे
दिल भूले देख बहारों को, और कानों में आहंग
भरे
कुछ तबले खड़के रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह
चंग भरे।
कुछ घुंघरू ताल झनकते हों, तब देख बहारें होली
की।
गुलजार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हों और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
होली -
हिन्द के
गुलशन में जब आती है होली की बहार।
जांफिशानी
चाही कर जाती है होली की बहार।।
एक तरफ से रंग
पड़ता, इक तरफ उड़ता
गुलाल।
जिन्दगी की
लज्जतें लाती हैं, होली की
बहार।।
जाफरानी सजके
चीरा आ मेरे शाकी शिताब।
मुझको तुम बिन
यार तरसाती है होली की बहार।।
तू बगल में हो
जो प्यारे, रंग में भीगा
हुआ।
तब तो मुझको
यार खुश आती है होली की बहार।।
और हो जो दूर
या कुछ खफा हो हमसे मियां।
तो काफिर हो
जिसे भाती है होली की बहार।।
नौ बहारों से
तू होली खेलले इस दम नजीर।
फिर बरस दिन
के ऊपर है होली की बहार।।
नजीर अकबराबादी
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Source – KalpatruExpress News Papper
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रविवार, 16 मार्च 2014
..तब देख बहारें होली की
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