रंगों की बौछार, भांग का खुमार
और हंसी-ठिठोली का मौसम लाने वाला पर्व है होली। इसके रंगीले मिजाज और उत्साह की
बात ही कुछ और है। मौज-मस्ती और प्रेम-सौहार्द से सराबोर यह त्योहार अपने भीतर
परंपराओं के विभिन्न रंगों को समेटे हुए है, जो विभिन्न
स्थानों में अलग-अलग रूपों में सजे-धजे नजर आते हैं। विभिन्नता में एकता वाले इस
देश में अलग-अलग क्षेत्रों में इस त्योहार को मनाने के अलग-अलग अंदाज हैं। मगर इन
विविधताओं के बावजूद हर परंपरा में एक समानता अवश्य है, यह है प्रेम और उत्साह जो लोगों को आज भी सब कुछ
भूल कर हर्ष और उल्लास के रंग में रंग देता है।
मथुरा-वृंदावन
की होली-
रंग-गुलाल से सजी होली का स्वागत विभिन्न
क्षेत्रों के लोग अपने-अपने तरीके से करते हैं। वहीं कुछ स्थानों पर होली मनाने
की परंपरा तो देश-विदेश में भी लोगों को आकर्षित करती है। कृष्ण और राधा के
प्रेम के प्रतीक मथुरा-वृंदावन में होली की धूम 40 दिनों तक छाई रहती है, जिसमें इनके दैवीय प्रेम को याद किया जाता है। कहते हैं बचपन में कृष्ण राधा
रानी के गोरे वर्ण और अपने कृष्ण वर्ण का कारण माता यशोदा से पूछा करते थे। एक
बार उन्हें बहलाने के लिए माता यशोदा ने राधा के गालों पर रंग लगा दिया। तब से
इस क्षेत्र में रंग और गुलाल लगाकर लोग एक-दूसरे से स्नेह बांटते हैं।
बरसाने और
नंदगांव की होली-
मथुरा-वृंदावन के साथ ही इस पर्व की अनुपम छटा
राधा के गांव बरसाने और नंदगांव में भी नजर आती है। वहीं बरसाने की लठमार होली
तो विश्व-प्रसिद्ध है। यहां पर महिलाएं पुरुषों को लठ से मारती हैं और पुरुष
उनसे बचने के लिए ढालों का प्रयोग करते हैं।
हरियाणा में
होली-
हरियाणा में होली (धुलेंडी) के दौरान
भाभी-देवर के रिश्ते की मिठास की अनोखी मिसाल दिखती है, जब भाभियां अपने प्यारे देवरों को पीटती
हैं और उनके देवर सारे दिन उन पर रंग डालने की फिराक में होते हैं। भाभियों का
यह प्यारा सा बदला इस क्षेत्र में होली को धुलेंडी होली का नाम देता है।
महाराष्ट्र और
गुजरात की होली-
महाराष्ट्र और गुजरात के क्षेत्रों में
मटकी-फोड़ होली की परंपरा बहुत प्रचलित है। पुरुष मक्खन से भरी मटकियों को
फोड़ते हैं, जिसे महिलाएं
ऊंचाई पर बांधती हैं। इसे फोड़कर रंग खेलने की परंपरा कृष्ण के बालरूप की याद
दिलाती है। जब पुरुष इन मटकों को फोड़ने के लिए पिरामिड बनाते हैं, तब महिलाएं होली के गीत गाते हुए इन पर
बाल्टियों में रंग भरकर फेंकती हैं। मौज-मस्ती का यह पर्व अपने पूरे शबाब पर नजर
आता है। गुजरात के भील गोलगधेड़ो नृत्य करते हैं। इसके अंतर्गत किसी बांस अथवा
पेड़ पर गुड़ और नारियल बांध दिया जाता है और उसके चारों ओर युवतियां घेरा बना
कर नाचती हैं। युवक इस घेरे को तोड़कर गुड़ नारियल प्राप्त करने का प्रयास करता
है जबकि युवतियों द्वारा उसका जबरदस्त विरोध होता है। इस विरोध से वह बुरी तरह
से घायल भी हो जाता है। हर प्रकार की बाधा को पार कर यदि युवक गुड़ नारियल
प्राप्त करने में सफल हो जाता है तो वह घेरे में नृत्य कर रही अपनी प्रेमिका
अथवा किसी भी युवती के लिए होली का गुलाल उड़ाता है। वह युवती उससे विवाह करने
को बाध्य होती है। इस परीक्षा में युवक न केवल बुरी तरह से घायल हो जाता है
बल्कि कभी-कभी कोई व्यक्ति मर भी जाता है।
बंगाल में
होली-
बंगाल में होली का डोल पूर्णिमा नामक स्वरूप
बेहद प्रचलित है। इस दिन का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि इस दिन को
प्रसिद्ध वैष्णव संत महाप्रभु चैतन्य का जन्मदिन माना जाता है। डोल पूर्णिमा के
अवसर पर भगवान की अलंकृत प्रतिमा का दल निकाला जाता है और भक्तगण पूरे उत्साह के
साथ इस दल में भाग लेते हैं और हरि की उपासना करते हैं। वहीं गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शांति-निकेतन में होली को वसंत उत्सव के रूप
में मनाया जाता है।
मणिपुर की
होली-
देश का हर
कोना होली के रंगों से रंगा हुआ है। मणिपुर में यह रंगों का त्योहार छ: दिनों तक
मनाया जाता है। साथ ही इस पर्व पर यहां के पारंपरिक नृत्य थाबल चोंगबा का आयोजन
भी किया जाता है। इस तरह से होली का यह पर्व पूरे देश को प्रेम और सौहार्द के
रंग में सराबोर रखता है।
बनारसी होली-
भांग, पान और ठंडाई की जुगलबंदी के साथ अल्हड़ मस्ती और हुल्लड़बाजी के रंगों में
घुली बनारसी होली की बात ही निराली है। फागुन का सुहानापन बनारस की होली में ऐसी
जीवंतता भरता है कि फिजा में रंगों का बखूबी अहसास होता है। बाबा विश्वनाथ की
नगरी में फागुनी बयार भारतीय संस्कृति का दीदार कराती है, संकरी गलियों से होली की सुरीली धुन या
चौराहों के होली मिलन समारोह बेजोड़ हैं। गंगा घाटों पर आपसी सौहार्द के बीच
रंगों की खुमारी का दीदार करने देशविदेश के सैलानी जुटते हैं। यहां की खास मटका
फोड़ होली और हुरियारों के ऊर्जामय लोकगीत हर किसी को अपने रंग में ढाल लेते
हैं। फाग के रंग और सुबह-ए- बनारस का प्रगाढ़ रिश्ता यहां की विविधताओं का अहसास
कराता है। अपने अनूठेपन के साथ काशी की होली अलग महत्त्व रखती है। काशी की होली
बाबा विश्वनाथ के दरबार से शुरू होती है। रंगभरी एकादशी के दिन काशीवासी भोले
बाबा संग अबीर- गुलाल खेलते हैं और फिर सभी होलियाना माहौल में रंग जाते हैं। यह
सिलसिला बुढ़वा मंगल तक चलता है।
राजस्थान की
होली-
बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली जाती है तो
अजमेर में कोड़ा अथवा सांतमार होली कजद जाति के लोग बहुत धूम-धाम से मनाते हैं।
हाड़ोती क्षेत्र के सांगोद कस्बे में होली के अवसर पर नए हिजड़ों को हिजड़ों की
जमात में शामिल किया जाता है। इस अवसर पर बाजार का न्हाण और खाड़े का न्हाण नामक
लोकोत्सवों का आयोजन होता है। खाड़े के न्हाण में जम कर ईल भाषा का प्रयोग किया
जाता है।
राजस्थान के
सलंबूर कस्बे में आदिवासी गेर खेल कर होली मनाते हैं। उदयपुर से 70 किमी दूर स्थित इस कस्बे के भील और मीणा
युवक एक गेली हाथ में लिए नृत्य करते हैं। गेली अर्थात एक लंबे बांस पर घुंघरू
और रुमाल का बंधा होना। कुछ युवक पैरों में भी घुंघरू बांधकर गेर नृत्य करते
हैं। जब युवक गेरनृत्य करते हैं तो युवतियां उनके समूह में सम्मिलित होकर फाग
गाती हैं। युवतियां पुरुषों से गुड़ के लिए पैसे मांगती हैं। इस अवसर पर आदिवासी
युवक-युवतियां अपना जीवन साथी भी चुनते हैं।
मध्यप्रदेश की
होली-
मध्य प्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं।
भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है।
होली से पूर्व हाट के अवसर पर हाथों में गुलाल लिए भील युवक मांदल
की थाप पर
सामूहिक नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती के मुंह पर गुलाल
लगाता है और वह भी बदले में गुलाल लगा देती है तो मान लिया जाता है कि दोनों
विवाह सूत्र में बंधने के लिए सहमत हैं। युवती द्वारा प्रत्युत्तर न देने पर
युवक दूसरी लड़की की तलाश में जुट जाता है।
छत्तीसगढ़ की
होली-
बस्तर में इस पर्व पर लोग कामुनी षेडुम अर्थात
कामदेव का बुत सजाते हैं। उसके साथ एक कन्या का विवाह किया जाता है। इसके उपरांत
कन्या की चूड़ियां तोड़ दी जाती हैं और सिंदूर पोंछ कर विधवा का रूप दिया जाता
है। बाद में एक चिता जला कर उसमें खोपरे भून कर प्रसाद बांटा जाता है।
पंजाबी होली-
सिख धर्मानुयायियों में भी होली की काफी
महत्ता है। सिख धर्मानुयायी इस पर्व को शारीरिक व सैनिक प्रबलता के रूप में
देखते हैं। होली के अगले दिन अनंतपुर साहिब में होला मोहल्ला का आयोजन होता है।
ऐसा मानते हैं
कि इस परंपरा का आरंभ दसवें व अंतिम सिख गुरु, गुरु गोविंदसिंहजी ने किया था।
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Source – KalpatruExpress News Papper
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