तरुण होती
फागुन की रंगत खेतों से लेकर घर के आंगन तक चढ़ चुकी है, गुङिाये की मिठास और ठंडाई की वह खुशबू
रह-रहकर तलब जगाती है। हर किसी की जुबान पर होली की ही बातें हैं। किसी के लिए
होली प्रेम और हंसी-ठिठोली का त्योहार है तो किसी के लिए अपनों से मिलकर दूरियां
मिटाने का। लेकिन पुराने लोगों के बीच होली के कोलाहल में कुछ यादें ताजा हो रही
हैं, कैसी हुआ करती
थी उनके जमाने की होली। तब यह एक दिन का त्योहार मात्र नहीं था, एक उत्सव था, एक परंपरा थी, एक खुशनुमा दौर था, जिसे वे जिया करते थे। लेकिन आज कुलबुलाती
यादों में बसी वह होली शायद हम कहीं पीछे छोड़ आए हैं। न वे गीत रहे,न रिवाज और न ही वे अलबेले मस्तमौला लोग, जो होली को अपने भीतर उतार लिया करते थे।
होली की ऐसी ही कुछ धुंधली पड़ चुकी यादों में एक बार फिर से रंग भरती अनुषा
मिश्रा और स्मिता सिंह की रिपोर्ट:
आज बिरज में
होली रे रसिया
लाल लाल पियर, पियर रंग के बहार बा
दिल्ली डोलत
बम्बई हिलत, झुमत बिहार बा
सतरंगी
परंपराओं वाले भारत में लोकगीतों की परंपरा सदियों से रही है।
हर जगह, हर प्रदेश के अपने लोकगीत हैं, जो न केवल वहां की विरासत हैं, बल्कि पहचान भी हैं। इन गीतों की मिठास में
लोगों का अपनापन और भाईचारे का भाव छुपा हुआ है। ये लोकगीत फागुन के महीने में
खास तौर पर सबकी जुबान पर रहते थे। अब तो गीतों के नाम पर कुछ शोर मचाते फिल्मी
गाने ही शेष हैं, जिन्हें होली
के दिन सुना जा सकता है। फागुन में सबसे ज्यादा फगुआ गाने का चलन रहा है लेकिन
आज की पीढ़ी तो फगुआ के बारे में जानना तो दूर,अच्छी तरह से उन्हें सुनने का मौका भी नहीं पाती।
अब न तो फाग
गाने वाले रह गये हैं और न ही उसे सुनने वालों की बड़ी तादात है। ज्यादातर लोग
होली को टाल देना ही अपने लिए बेहतर मानते हैं। आज के युवा पूरी तरह से अपनी
संस्कृति को भूल रहे हैं। आज के युवा के लिए होली सिर्फ मौजमस्ती का पर्याय बन
चुका है। मनभावन नृत्य-गान की परंपरा, सप्ताहभर पहले से कानों में सुनाई पड़ने वाले नगाड़े की थाप तथा फाग गीत अब
सुनाई नहीं पड़ रहे हैं।
ढोल-मंजीरे-घड़ियाल
की होली-
होली का और
वाद्य यंत्रों का साथ भी बहुत पुराना है। पुराने जमाने में होली गान के साथ कई
वाद्य यंत्रों का भी प्रयोग होता था। होली में कई जगह बड़ी सी ढोलक को डंडों से
बजाया जाता था तो कहीं लोग ढोलक के साथ मंजीरा भी बजाते थे। कहीं नगाड़े पर होली
गान होता था तो कहीं लोग घड़ियाल बजाते थे। कई लोग तो होली वाले दिन कुछ
गाने-बजाने वालों को रुपये देकर भी बुलाते थे ताकि उनकी होली की मस्ती में कोई
कमी न रह जाए।
लेकिन अब ये
सब गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं,अब तो बस डीजे लगाया और हो गया उसी पर सारा गाना-बजाना। न तो ढोल की जरूरत रह
गई है और न ही ढोल बजाने वालों की। वैसे तो कहा जाता है कि फागुन में सभी का
उल्लास और उत्साह कम नहीं होता, लेकिन अब तो रंग-गुलाल, पिचकारियों, मुखौटों व
मिठाइयों की कीमत में आई तेजी से इसका प्रभाव सिमटता जा रहा है। आज से करीब
सात-आठ साल पहले लोगों की टोली घर-घर पहुंचकर सबको बधाई दिया करती थी। कभी वसंत
पंचमी से लेकर रंग पंचमी तक फाग गीतों की धूम रहती थी तथा फाग गाने वालों की
टोली इधर-उधर पहुंचकर ढोल नगाड़ों की थाप पर फाग गीत गाकरअपने उल्लास का
प्रदर्शन करते हुए गुलाल उड़ाकर सबको बधाई दिया करती थी।
छुट्टी का दिन
बन गई होली-
होली भी अन्य
त्योहारों की तरह लोंगों के लिए आराम करने का एक दिन बन गई है। कई लोगों के लिए
तो रंग से परहेज करना और होली न खेलना रसूख भी बन जाता है। उन्हें यह कहने में
आनंद होता है कि उन्हें रंग से एलर्जी है। वैसे भी होली से दूर हो रही युवा पीढ़ी
और बच्चों को इस बारे में ज्यादा नहीं पता लेकिन उनके माता-पिता उन्हें इसकी
जरूरत महसूस ही नहीं होने देना चाहते। क्योंकि सभ्य और रसूखदार होने का मतलब है
कि ऐसी चीजों से दूर रहा जाए, दूसरे शब्दों में समाज और परंपराओं का बोझ ढोना विकास की राह में रोड़ा है।
लोकगीतों की
जगह फिल्मी गीतों ने ले ली-
राजस्थान का
मशहूर लोकगीत ‘होली में उड़े
रे गुलाल, म्हारा रंग
केसरिया’ ऐसा लोकगीत है
जिसे सुनते ही आप अपने आपको गुनगुनाने और झूमने से रोक नहीं पाएगा। यह लोकगीत उस
समय के मनोरंजन के लिए थे जब फिल्मों में होली नदारद थी। लेकिन फिल्मों में होली
के गीतों के आने के साथ लोकगीतों की जगह फिल्मी गीतों ने ले ली। लोकगीतों को
फिल्मी अंदाज में गाया जाने लगा। लोगों ने इसे भरपूर पंसद भी किया लेकिन वह असली
लोकगीतों को भूलते चले गए और याद रह गए सिर्फ फिल्मी होली गीत।
होली के आज भी
ऐसे मशहूर फिल्मी गीत हैं जो कि एक समय में लोकगीत के रूप में गाए जाते थे, यह बात कम लोग ही जानते होंगे ‘सिलसिला’ फिल्म का मशहूर गीत ‘रंग बरसे, भीगे चुनर वाली’ और ‘बागबां’ फिल्म का गीत ‘होली खेले रघुवीरा अवध में’ भी लोकगीत ही है। ‘रंग बरसे’ को मशहूर कवि-लेखक और अमिताभ बच्चन के पिता डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने लिखा था
और इस गीत को अपनी आवाज दी थी अमिताभ बच्चन ने।
फिल्म ‘मदर इंडिया’ का मशहूर गीत जिसे सुनते ही मन गदगद हो जाता है, वह है, ‘होली आई रे कन्हाई रंग बरसे, सुना दे जरा बांसुरी..’ अगर बात करें फिल्म ‘आपकी कसम की’ तो उसमें भी ‘जय-जय शिव शंकर’ गीत झूमने पर मजबूर कर देता है। इसके अलावा
होली पर कुछ विशेष गीत भी लिखे गए, जिनका नाता लोकगीतों से तो नहीं था लेकिन होली से जरूर था और लोगों ने
उन्हें खासा पसंद भी किया। इतना ही नहीं कुछ सालों के भीतर बने होली के गीतों
में इतनाअधिक परिवर्तन दिखाई दिया कि उनमें भाषा भी आज के बोलचाल और आधुनिकता का
पुट लिए हुए है।
इसी कड़ी में
फिल्म ‘शोले’ को कैसे भूल सकते हैं इसका गीत ‘होली के दिन दिल खिल जाते है, रंगों में रंग मिल जाते हैं.’ इसके जुबान पर चढ़ने की खास वजह गांव के
परिवेश में गाने का फिल्माना भी है।
होली के गीतों
की धूम -
1- होली खेलन आयो श्याम,
आज जाहि रंग
में बोरो री..
2- चल जा रे हट नटखट न छेड़ मुङो
खटखट कि दूंगी
तुङो पलट के गारी
रे, मोहे छेड़े सइंया अनाड़ी रे..
3- होली आई रे कन्हाई रंग बरसे, सुना दे
जरा बांसुरी..
4- होली के दिन दिल खिल जाते है,
रंगों में रंग
मिल जाते हैं.
5- आज न छोड़ेगे,
बस हमजोली
खेलेंगे हम होली..
6- होली खेलत नंदलाल..
होली की उमंग
अभी बाकी है..-
याद है कीचड़
और पानी की होली -
हम लोग ब्रज
के निवासी हैं, होली खेलना तो
हमारी परंपरा रही है। सुबह से ही हम लोग सिर पर पगड़ी बांधे रंग की बाल्टी और
दोस्तों को साथ लेकर मोहल्ले में निकल पड़ते थे। कोई ढोल बजाता तो कोई फाग गाता, बाकी हम सारे लोग नाचते-गाते फाग को
दुहराते चला करते थे। रास्ते भर जो भी मिलता उसे रंगे बिना नहीं छोड़ते थे।
एक-दूसरे पर पानी फेंककर सराबोर कर देते थे। मस्ती में किसी चीज की सुध न रहा
करती थी। तालाब की मिट्टी से लेकर कीचड़ तक की होली हमारे गांव में खेली जाती
थी। सभी रंग-बिरंगे मिट्टी से सने दिखाई पड़ते थे। तब किसी को कोई इंफेक्शन नहीं
होता था। अतीत में झंककर देखूं तो यही कहूंगा कि फाग गीत का मुख्य उद्देश्य आपसी
स्नेह, सद्भावना एवं
भाईचारे में वृद्धि कर सामुदायिक एकता की भावना को मजबूत करना होता है, लेकिन नई पीढ़ी अपनी परंपराओं को छोड़ती जा
रही है।
विनोद
कुलश्रेष्ठ
पूरे फागुन
चलती थी होली -
वो भी दिन थे जब फागुन की बयार बहते ही होली
शुरू हो जाया करती थी। लड़के ही नहीं घर की बहुएं भी फाग गाया करती थीं, हर किसी को होली की तैयारी करते देखा जा
सकता था। होली के लिए तो महीने भर का दिन भी कम पड़ जाया करता था। होली के कई
दिन पहले से ही पकवान बनने लगते थे, कई तरह की मिठाइयां तैयार होती थीं। बहुएं घर के दरवाजे पर चावल और सिंघाड़े
के आटे से चौक बनाकर गीत गाती थीं।
बूढ़े-जवान
सभी होली को लेकर मस्ती से भरे रहते थे। शाम को फिर सभी मिलकर एक-दूसरे के घर
जाकर होली की बधाइयां दिया करते थे। अब लोग दुकान से लाई मिठाई से ही काम चला
रहे हैं। आज हर सामान पर महंगाई की मार है। स्थिति यह आ गई है कि सामानों के
बढ़ते दाम को देखते हुए लोग थोड़े में ही अपनी जरूरतें पूरी कर रहे हैं। इसका
परिणाम यह हुआ कि घर में बने गुङिाये के स्वाद का अब पता ही नहीं चल पाता।
अनिल कुमारी
हर शाम गाते
थे फाग-
जब मैं छोटा था तो लखनऊ के पास हमारा जो पैतृक
गांव है मैं वहां रहता था। हमारे गांव में होली तो लगभग वसंत के बाद से ही शुरू
हो जाती थी। हम रोज शाम को ढोल के साथ फाग गाते थे। होली वाले दिन सब सुबह रंग
खेलते थे फिर दोपहर में 12 बजे के बाद से
सब नहाकर तैयार हो जाते थे। लोग गेंहू की हरी बाली को होली की आग में भूनते थे, जिसे आखत डालना कहते हैं। आखत डालने के बाद सब एक-दूसरे के गले मिलते थे और
होली की शुभकामनाएं देते थे। गांव की चौपाल पर पुरुषों की एक टोली बैठकर होली
गाते थे।
वहां पर सबको
पान खाने के लिए भी दिया जाता था। इसके बाद एकदूसरे के घर जाकर सब बड़ों के पैर
छूकर उनका आशीर्वाद लेते थे। अब भी हम कभी-कभी होली पर अपने गांव जाते हैं लेकिन
अब वहां कोई होली गाने वाली टोली नहीं रह गई है। अब तो गांव की होली और शहर की
होली में ज्यादा फर्क ही नहीं रह गया।
राम किशोर
निकलती थी
टोली-
मेरा मायका बरेली के पास एक गांव में है। जब
हम छोटे थे तब की होली और आज की होली में बहुत फर्क है। लड़कियों को इस दिन का
बेसब्री से इंतजार रहता था क्योंकि फुलारी दूज से लेकर होली तक हर शाम उन्हें
गाने-बजाने का मौका जो मिलता था। सारी लड़कियां आटे का चौक बनाती थीं और उस पर
फूल डालती थीं। हर लड़की एक-एक कंडे पर आटे से चांद के आकार की छोटी-छोटी आकृति
बनाती थी जिन्हें दुगियां कहा जाता था। इसके बाद उस कंडे पर कुछ फूल रखे जाते थे
और फिर फूल रखे कंडे को तेजी से ऊपर उछाल कर होली की लकड़ियों पर फेकती थीं, साथ ही कहती थीं मेरे भइया की दुल्हन इतनी
लंबी हो। लड़कियों का मानना होता था कि जिस लड़की का कंडा जितना ऊंचा जाएगा उसके
भइया की दुल्हन यानी उसकी भाभी उतनी ही लंबी होगी। लेकिन अब ये परम्परा हमारे
गांव से लगभग गायब होती जा रही है।
गीता मिश्रा
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Source – KalpatruExpress News Papper
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शुक्रवार, 14 मार्च 2014
होली के गीतों की धूम
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