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मुङो आज भी
याद है। रोजाना शाम को पापा के ऑफिस से लौटते ही हमारे घर में कफ्यरू-सा माहौल
बन जाता था। हम अपनी किताबें खोल कर बैठ जाते। मम्मी पापा के सामने डरी-डरी सी
नजर आती थीं। जरूरत की हर चीज उनके आने के पहले से ही सही जगह पर रखी होती।
मैंने पापा को पानी लेने के लिए भी कभी किचन की तरफ जाते नहीं देखा। ऐसा नहीं था
कि पापा मां से, हमसे प्यार
नहीं करते थे, लेकिन उन्हें
ऐसा लगता था कि परिवार में अनुशासन बनाए रखने के लिए मुखिया के व्यवहार में
सख्ती जरूरी है। आज हमारा वही परिवार कितना बदल चुका है। यह किसी एक व्यक्ति के
निजी अनुभव नहीं, इसमें हमें
भारतीय पुरुष की बदलती सोच दिखाई देती है। अब वह स्त्री पर शासन करने के बजाय
उसे साथ लेकर चलने में यकीन रखता है।
स्मिता सिंह दो से तीन दशक पूर्व के समाज पर गौर करें
तो आज के समाज व परिवार में रिश्तों की तस्वीर बिलकुल बदल चुकी है। घर में कोई
भी पहले वाले पुरुष जैसा व्यवहार नहीं करता। नई पीढ़ी के पति-पत्नी एक-दूसरे का
सहयोग करते हैं। पत्नी भी जॉब करती हैं। दोनों में से जो भी पहले घर पहुंचता है, वही डिनर की तैयारी शुरू कर देता है। आज
रिश्ता बिलकुल बराबरी का है और सभी एक-दूसरे को पूरी आजादी देते हैं।
शासक नहीं
सहयोगी- पहले घर में कोई भी बड़ा निर्णय लेने का एकाधिकार केवल पति के पास होता था,लेकिन वक्त के साथ पुरुष के इस रवैये में
काफी बदलाव आया है। अब वह कोई भी निर्णय पत्नी पर जबरन नहीं थोप सकता। स्त्री
जब पुरुष के साथ मिलकर गृहस्थी बसाती है तो उसे एहसास होता है कि यह घर जितना
उसके पति का है, उतना ही उसका
भी। उसकी मेहनत व आत्मविश्वास के कारण पुरुष का नजरिया बदला है। अब उन्हें शासक
के बजाय सहयोगी बनना ज्यादा पसंद है।
अचानक नहीं
आया बदलाव - भारतीय पुरुष की सोच में यह बदलाव अचानक नहीं आया है, बल्कि इसके पीछे उसके अंतर्मन में वर्षो से
चल रहे वैचारिक मंथन का बड़ा योगदान रहा है। इतिहास गवाह है कि राज राममोहन राय
और ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों ने न केवल सती प्रथा और बाल विवाह
जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई, बल्कि विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा जैसे सामाजिक सुधारों की शुरुआत भी की।
स्त्री के प्रति संवेदनशील नजरिया रखने वाले पुरुष भले ही कम हों, लेकिन यह उनके भी प्रयासों का नतीजा है कि
पुरुषों के दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव आने लगा।
बदलाव की छोटी
शुरुआत - वक्त के साथ
पुरुषों के मन से लिंग भेद आधारित भेदभाव खत्म हुआ। किसी भी बड़े सामाजिक बदलाव
की छोटी शुरुआत हमारे घरों से ही होती है। पारंपरिक ढांचे में पति ही परिवार का
मुखिया होता है और उसकी सहमति के बिना स्त्री के लिए कोई भी कदम उठाना संभव नहीं
होता। अगर पचास के दशक में ज्यादातर परिवारों की बेटियां स्कूल जाने लगीं तो यह
कहीं न कहीं उनके पिता के प्रयास से ही संभव हुआ।
भारतीय पुरुष
को तब तक इस सच्चाई का एहसास हो गया था कि खुशहाल परिवार के लिए स्त्री का
स्वस्थ और शिक्षित होना जरूरी है। मिसाल के तौर पर जिस परिवार के मुखिया ने पत्नी
के प्रति थोड़ा उदार रवैया बरतते हुए अपनी बेटियों को भी शिक्षित होने का अधिकार
दिया होगा, उसकी अगली
पीढ़ी भी इन नियमों का पालन करेगी।
दूर होती गैर
बराबरी - स्त्री की
बढ़ती सक्रियता की वजह से पुरुष के कंधों से पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी
कम हुआ है। अब वह कुछ घरेलू मामलों को पूरी तरह पत्नी पर छोड़ देता है, क्योंकि उसे अपनी जीवनसंगिनी पर पूरा भरोसा
होता है। वह मानता है कि उसका कोई भी निर्णय परिवार के लिए अच्छा ही होगा।
बदलते वक्त की
जरूरत - आज की स्त्री यह सोचकर खुश हो रही है कि उसके प्रति पुरुष का दृष्टिकोण
उदार हो रहा है, पर इसका मतलब
यह नहीं है कि अचानक पुरुषों का हृदय-परिवर्तन हो गया है।
स्त्रियों के
प्रति अपना पारंपरिक दृष्टिकोण बदल पाना उनके लिए इतना आसान नहीं था। आज आर्थिक
आत्मनिर्भरता ने स्त्रियों का आत्मविश्वास बढ़ाया है। आज की स्त्री तेजी से आगे
बढ़ रही है। भले ही आज भी कुछ पुरुषों को यह बदलाव रास नहीं आ रहा है, पर वक्त के साथ कदम मिलाकर चलना अब उनकी
मजबूरी है, वरना वे पीछे
छूट जाएंगे। पिछले कुछ दशकों में भारतीय स्त्री की दुनिया तेजी से बदली है।
पुरुष भी स्त्री की इस नई छवि को स्वीकारने लगा है। नए जमाने की नई सोच समय के
साथ सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ने लगी। अब तक औरत के अस्तित्व
का दायरा केवल घर के भीतर रहने वाली स्त्री, मां, बहन, पत्नी.आदि तक ही सीमित था। लेकिन अब उसे
केवल रिश्तों की वजह से नहीं बल्कि उसकी काबिलियत की वजह से पहचाना जाता है। यह
अपने आप में ऐसा क्रांतिकारी बदलाव है, जिसने इस पुरुष प्रधान समाज की कई गलत धारणाओं को सिरे से खारिज कर दिया। अब
पुरुष स्त्री को देवी बनाकर पूजने के बजाय, उसे अपने ही जैसा इंसान समझता है।
दाम्पत्य का
अर्थशास्त्र यह बात भी सच है कि पति-पत्नी का रिश्ता कहीं न कहीं पैसों से भी
प्रभावित होता है। जब तक स्त्री आर्थिक जरूरतों के लिए पति पर निर्भर थी, उसके सामने पति की हर बात मानने के अलावा
कोई चारा न था। जब स्त्री ने घर से बाहर निकल कर काम करना शुरू किया तो उसकी अलग
पहचान बनी। अब उसे पति के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ती। परिवार की
जरूरतें पूरी करने में उसकी बराबर की भागीदारी है। आर्थिक आत्मनिर्भरता ने
स्त्री को सम्मान के साथ सिर उठाकर जीना सिखाया है।
पुरानी पीढ़ी
भी हुई उदार आज से दो-तीन दशक पहले तक अगर कोई बेटा किचन में बहू का हाथ बंटा
रहा होता तो शायद उसके माता-पिता को यह बात अच्छी नहीं लगती, पर अब ऐसा नहीं है। परिवर्तन के इस दौर में
पुरानी पीढ़ी न केवल इस बदलाव को सहजता से स्वीकार रही है, बल्कि वह खुद भी बदलने को तैयार है।
बेटे-बहू की आजाद जीवनशैली को आज के बुजुर्ग सहजता से स्वीकारने लगे हैं। अब
उनके लिए बहू का व्यवहार ज्यादा अहमियत रखता है।
अब भी हावी है
ईगो यह सच है कि पुरुषों की सोच में सकारात्मक बदलाव आया है, पर सब कुछ बहुत अच्छा हो, ऐसा नहीं है। पुरुष चाहे कितने ही आधुनिक
क्यों न हों, लेकिन उनमें
जन्मजात रूप से अहं की प्रबल भावना होती है। पुरुषों की इस सोच को पूरी तरह बदल
पाना बहुत मुश्किल है। यह पुरुषों की सहज प्रवृत्ति है, जिसे पूरी तरह बदल पाना असंभव है, पर सजग प्रयास से इसे काफी हद तक नियंत्रित
किया जा सकता है। दांपत्य जीवन में अनबन के जितने भी मामले आते हैं, उनमें से लगभग 80 प्रतिशत झगड़े पति के ईगो की वजह से होते
हैं। इससे बचने के लिए दूसरों की अहमियत स्वीकारने की आदत डालनी चाहिए।
सफर अभी बाकी
है. हमें इस सकारात्मक बदलाव को सहजता से स्वीकारना चाहिए, लेकिन बदलाव की इस खूबसूरत तस्वीर की
सच्चाई यह भी है कि इसमें केवल महानगरों के मध्यमवर्गीय पुरुष का अक्स दिखाई
देता है। हमारे समाज का एक बड़ा तबका ऐसा है, जो आज भी उसी दकियानूसी सोच से जकड़ा हुआ है, जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक समझ जाता है। सामाजिक बदलाव की इस
मुख्यधारा में गांव और छोटे शहरों के आम आदमी की भागीदारी बहुत जरूरी है। कोई भी
क्रांतिकारी परिवर्तन तभी संभव है, जब उसमें स्त्रियों के साथ पुरुषों की भी साङोदारी हो। अभी हमें बहुत लंबा
सफर तय करना है।
वैचारिक
आदान-प्रदान और स्वस्थ बहस के माध्यम से समाज के हर व्यक्ति तक यह संदेश
पहुंचाना होगा कि नई सुबह की किरणों चारों ओर अपनी रुपहली आभा बिखेर रही हैं, बस आप अपने मन के दरवाजे खोल दें, फिर देखें कि खुशियों की धूप से आपकी
जिंदगी कैसे रोशन होती है!
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Source –
KalpatruExpress News Papper
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OnlineEducationalSite.Com
बुधवार, 12 मार्च 2014
तेजी से बदलता हुआ समाज
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