मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

भारत और जन इतिहास लेखन



क्रिस हरमेन का विश्व का जन इतिहास और हावर्ड जिन का अमेरिका का जन इतिहास काफी चर्चित रहे हैं। सबॉल्टर्न इतिहासकारों को }ासदियों के प्रसन्न इतिहासकार (हैपी हिस्टोरियन) कहा जाता है। असमें सबॉल्टर्न इतिहासकारों (हाशिए के समुदायों के इतिहासकारों) के सोच में भारत में वर्ग विभेद नहीं हैं, औपनिवेशिक शासक, भारतीय शासक वर्ग और उत्पीड़ित किसान-मजदूर नहीं हैं। उनके यहां सिर्फ औपनिवेशिक अभिजात (एीट) हैं।
शैेन्द्र चौहान तिहास को ेकर, वतर्मान में हो रहे बदाव इतिहासकारों के नजरिए को किस तरह बददेते हैं यह जानना आवश्यक है। भारत के इतिहास के बारे में जब यह खयापैदा हुआ कि भारत का जन इतिहास िखा जाना चाहिए तब इरफ़ ान हबीब जैसे जन इतिहासकार ने इस विषय पर सुचिंतित काम शुरू किया। उनका मानना था कि हम इसके जरिए एक नैरेटिव देना चाहते हैं। इसमें उन चीजों को भी रख रहे हैं जिनसे असहमति है। इसका आम तौर से ख्यारखा है कि एक समग्र दृश्य उभरे। एक आम पाठक को यह जानना जरूरी है कि जन इतिहास और आम इतिहास में क्या फर्क होता है? क्रिस हरमेन का विश्व का जन इतिहास और हावर्ड जिन का अमेरिका का जन इतिहास काफी चर्चित रहे हैं।
सबॉल्टर्न इतिहासकारों को }ासदियों के प्रसन्न इतिहासकार (हैपी हिस्टोरियन) कहा जाता है। असमें सबॉल्टर्न इतिहासकारों (हाशिए के समुदायों के इतिहासकारों) के सोच में भारत में वर्ग विभेद नहीं हैं, औपनिवेशिक शासक, भारतीय शासक वर्ग और उत्पीड़ित किसान-मजदूर नहीं हैं। उनके यहां सिर्फ औपनिवेशिक अभिजात (एीट) हैं, जिनके खिाफ भारतीय अभिजात खड़े हैं। जब हम इतिहास और समाज को इस तरह देखने गते हैं तो जनता का पूरा उत्पीड़न गायब हो जाता है, उद्योगों की बरबादी और उनकी संभावनाओं को जिस तरह तबाह किया गया वह गायब हो जाता है। बस बचते हैं तो अंग्रेज- जो अत्याचार कर रहे हैं और गरीब, किसान और जमींदार जो अंग्रेजों के जुल्म के मारे हुए हैं। ेकिन इसमें उस गरीब किसान और जमींदार के बीच के अंतविर्रोध को नहीं देखा जाता।
जन इतिहास में हम सभी पहुओं को ेने की कोशिश करते हैं। भारत में राज्य काफी महत्वपूर्ण हुआ करता था। यह सिर्फ शासक वर्ग का संरक्षक ही नहीं था बल्कि वह उसकी विचारधारा का भी संरक्षक था। जाति ऐसी ही विचारधारा है। जाति इसीिए तो चरही है कि उत्पीड़ितों ने भी उत्पीड़कों की विचारधारा को अपना िया- उनकी बातें मान ीं। इस तरह विचारधारा भी महत्वपूर्ण होती है। हमारे यहां औरतों की जिंदगी के बारे में कम सूचना है। हाांकि उनके बारे में हम बहुत कम बातें जानते हैं, उनपर कम िखा गया। हमारी पुरानी संस्कृति में बहुत सारी खराबियां भी थीं। जन इतिहास इनपर विशेष नजर डाने की कोशिश करता है। भारत का इतिहास िखना आसान है। थोड़ी मेहनत करनी होती है- और वह तो कहीं भी करनी होती है। मध्यकाीन भारत के िए ऐतिहासिक स्नेत काफी मिते हैं। प्राचीन भारत के िए शिेख मिते हैं, जिनकी डेटिंग बेहतर होती है। इतिहास के मामे में भारत बहुत समृद्ध रहा है। ेकिन यहां बहुत-से शर्मिंदगी भरे रिवाज भी रहे हैं , जैसे दास प्रथा आदि। अब इन सब पर विस्तार से विचार किया जा रहा है।
भारत का जन इतिहास क्या देश के बारे में (भारतीय ोक) नजरिए में कोई बदाव ाने जा रहा है? दरअसल इतिहास ेखन का मकसद नई खोज करना नहीं है। बहुत सारी चीजों पर अक्सर ोगों की नजर नहीं जाती। जैसे तकनीक का मामा है। मध्यकाीन समाज में हमारे देश में कैसी तकनीक थी। तब खेती कैसे होती थी, क्या उपकरण इस्तेमाहोते थे। इन पहुओं पर नहीं िखा गया है ढंग से। इसी तरह बौद्ध-जैन परंपराओं पर इतिहास में उतना ध्यान नहीं दिया गया। गुाम कैसे रहते थे, इसके बारे में भी इतिहास में नहीं िखा गया। जन इतिहास इन सबको समेट रहा है। इतिहास का अथर्शास्}, साहित्य, संस्कृति जैसे दूसरे अनुशासनों के साथ संवाद गातार बढ़ रहा है। इससे इतिहास ेखन कितना समृद्ध हो रहा है? अथर्शास्} पर कौटिल्य की एक किताब है।
अब उस किताब को समझने के कई तरीके हो सकते हैं।
हम उसे अपने तरीके से समझते हैं, ¶ेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि हमारा नजरिया ही सही है। गुंजाइश तो रही है हमेशा नए विचारों की। ऐसे नए पहू हमेशा सामने आते रहेंगे जिनपर नजर नहीं डाी गई और जिनपर काम होना बाकी है।
भारत में पूंजीवादी विकास की बहस अब भी जारी है। मध्यकापर और पूंजीवाद में संक्रमण पर भी अध्ययन हो रहा है। बीसवीं शताब्दी तक देश में पूंजीवाद का विकास क्यों नहीं हो पाया? इसमें बाधक ताकतें कौनसी रहीं? पूंजीवाद का विकास तो पश्चिम यूरोप के कुछ देशों में ही हुआ। चीन, रूस, अफ्रीका और यूरोप के भी बहुत सारे देशों में पूंजीवाद का विकास नहीं हो पाया। हम यह नहीं कहते कि सिर्फ भारत में पूंजीवाद का विकास नहीं हो पाया। पश्चिम यूरोप में पूंजीवाद के विकास में अनेक बातों का योगदान था। वहां तकनीक का विकास हुआ, विज्ञान के क्षे} में क्रांति हुई। उपनिवेशवाद के कारण उन देशों को फायदा पहुंचा- इन सब बातों से वहां पूंजीवाद का विकास हो सका। अब हर मुल्क में तो वैज्ञानिक क्रांति नहीं होती। हर मुल्क में कॉपरनिकस पैदा नहीं होता। हां, ¶ेकिन ऐसे तत्व भारत में मौजूद थे, जो देश को पूंजीवाद के विकास की तरफ े जा सकते थे। मध्यकाके दौरान यहां व्यापार था, ¶ेन-देन था, बैंकिंग व्यवस्था थी, जिसे हुंडी कहते थे, बीमा की व्यवस्था मौजूद थी। ेकिन इनसे व्यापारिक पूंजीवाद ही आ सकता है। इसमें अगर श्रम की बचत करने की व्यवस्था बनती तो पूंजीवाद विकसित हो सकता था। इसके िए विज्ञान और विचारों में विकास की जरूरत थी- जो यहां नहीं हुई। तकनीक की तरफ भी ध्यान देना चाहिए था। अकबर हाांकि नई खोजों में रुचि दिखाता था। उसने उन दिनों वाटर पूिंग जैसी तकनीक अपनाई थी।
शिप कैनातकनीक का विकास उसने किया।
दरअस¶, जहाज बनाने के बाद उसे नदी के जरिए समुद्र में े जाने में दिक्कत आती थी। ाहौर में जहाज के िए कड़ी अच्छी मिती थी। ेकिन वहां से उसे समुद्र में े जाना मुश्किथा। तो अकबर ने कहा कि जहाज को जमीन पर मत बनाओ। उसने शिप कैनाविधि का विकास किया। यह 1592 की बात है। यूरोप में भी इसका इस्तेमासौ साबाद हुआ। पानी ठंडा करने की विधि भी भारत में ही थी, यूरोप में नहीं। पर जो तकनीकी विकास इसके साथ होना चाहिए था वह यूरोप में हुआ और उसका कोई मुकाबा नहीं है।
एक इतिहासकार का काम अतीत को देखना होता है। ेकिन क्या वह भविष्य को भी देख सकता है? इतिहासकार भविष्य को नहीं देख सकता। बल्कि कभी- कभी तो इसका उल्टा होता है। जैसे-जैसे इतिहास का तजरबा बढ़ता जाता है, इतिहासकार इसे दूसरी तरह से देखने गता है। जैसे फ्रांस की क्रांति हुई। वहां किसानों ने 33 प्रतिशत जमींदारों की जमीनें छीन ीं। इसपर 19वीं सदी में बहस चती रही कि यह बहुत बड़ी कार्वाई थी।
हाांकि तब भी 66 प्रतिशत जमींदार बच रहे थे। ेकिन जब रूस में अक्तूबर क्रांति हुई तो वहां सभी जमींदरों की जमीनें छीन ी गईं। इसके आगे देखें तो फ्रांस की क्रांति में 33 प्रतिशत जमींदारों को खत्म करने की घटना कितनी छोटी थी। ेकिन इतिहासकार उसके आगे नहीं देख पाए।
वे ये संभावनाएं नहीं देख पाए कि सौ प्रतिशत जमींदारी खत्म की जा सकती है। जैसे-जैसे मानव का विकास होता है , इतिहास का भी विकास होता है। जैसे अब इतिहास में महिाओं के आंदोन या उनपर हुए जुल्मों को देखना शुरू किया गया है। जाति के नजरिए से भी इतिहास को देखा जाने गा है। पहे मुसिम दुनिया को पिछड़ा माना जाता था, ¶ेकिन इतिहास के विकास के साथ यह सिद्ध होता जा रहा है कि मुसिम दुनिया भी पीछे नहीं थी। महिाएं तब भी मेहनत करती थीं, ¶ेकिन आज की तरह ही उनकी मेहनत का भुगतान तब भी नहीं होता था। उनकी आय मदरें में शामिहो जाती थी। ये हाात आज भी हैं। पहे इन सबके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, ¶ेकिन अब है । जन इतिहास में इन सब पर विस्तार से िखा जा रहा है। ये सारी बातें और तथ्य वतर्मान के आंदोनों से उभरकर सामने आ रहे हैं।
इस तरह हम यह देखते हैं कि इतिहास पर वतर्मान का बहुत असर होता है।
क्रिस हरमेन का विश्व का जन इतिहास और हावर्ड जिन का अमेरिका का जन इतिहास काफी चर्चित रहे हैं। सबॉल्टर्न इतिहासकारों को }ासदियों के प्रसन्न इतिहासकार (हैपी हिस्टोरियन) कहा जाता है। असमें सबॉल्टर्न इतिहासकारों (हाशिए के समुदायों के इतिहासकारों) के सोच में भारत में वर्ग विभेद नहीं हैं, औपनिवेशिक शासक, भारतीय शासक वर्ग और उत्पीड़ित किसान-मजदूर नहीं हैं। उनके यहां सिर्फ औपनिवेशिक अभिजात (एीट) हैं।
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Source – KalpatruExpress News Papper








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