मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

आदिवासियों की संघर्ष कथा



अनुज लुगुन एक समय था जब शहर, ियों, गाँवों, चौराहों में जादूगरों की चर्चा खूब होती थी। पर आज जादूगरों की का नहीं रही, ¶ेकिन यह कहना कि आज जादूगर नहीं हैं, यह उचित नहीं है। हो सकता है पीसी सरकार की तरह जादू को का या खेमानने वाे जादूगर नहीं हों ेकिन जादूगर आज भी हैं। आज के ये जादूगर कौन हैं? और वे किसे गायब कर रहे हैं? रणोंद्र अपने उपन्यास गायब होता देश में यही बताने की कोशिश करते हैं।
झरखण्ड के मुंडा आदिवासियों को केंद्र में रख कर िखा गया रणोन्द्र का उपन्यास (गायब होता देश) सम्पूर्ण आदिवासी समाज के संकट की ओर ध्यान खींचता है।
पूंजीवादी विकास की दौड़ में शामि¶ ¶ोग कैसे घास की तरह एक मानव समुदाय को चरते जा रहे हैं , गायब होता देश इसी की मार्मिक कहानी है। इस घास को चरने में आज का हर वह मनुष्य शामिहै जो इस पूंजीवादी समाज की आपा-धापी और भागदौड़ में शामिहै। इसमें हम भी हैं, आप भी हैं। हम वैचारिक धरातपर बहस करते हुए बाजारवाद, साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का घोर विरोध करते हैं ेकिन विडंबना यह है कि उसी के दाना-पानी से जीवित हैं। इस दौर में अगर कोई इस दाना-पानी से बचा है तो वह है आदिवासी समाज। इसिए आज आदिवासी समाज को सबसे ज्यादा प्रोभन देने की कोशिश जा रही है कि वह भी उस जामें फंस जाय और उसके पास मौजूद ज¶, जंग¶, जमीन को उन्हें विकास के नाम पर सौंप दे। यह विकास मछी को फंसाने के िए इस्तेमाकिये जाने वाी चारे की तरह है।
जो इस चारे में नहीं फंसना चाहता है वह विद्रोही मान िया जाता है। उपन्यास में ऐसे भी विद्रोही हैं जिन्हें सरकारी भाषा में नक्सी कहा जाता है। एक ओर आदिवासी समाज पूंजीवादी ताकतों के खिाफ संघर्ष कर रहा है वहीं दूसरी ओर बाजारवाद ने अपनी गिरफ्त में बहुत तेजी से आदिवासी समाज के एक हिस्से को भी िया है, यह आदिवासी समाज का कुछ पढ़ा-िखा मध्य वर्ग है और वह अपने हित के िए बाजार की चका-चौंध में आदिवासियों को भी घसीट ेना चाहता है। ऐसे विकट समय में जब उससे निर्णायक भूमिका की अपेक्षा थी उस पर वह खरा नहीं उतर रहा है। कुछ मध्यवर्गीय विसंगतियों में फंस गए हैं तो कुछ उससे ही ाभ ेने का अवसर देख रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में कुछ गैर आदिवासी ोग भी हैं जो आदिवासियों के संघर्ष को पहचानते हैं और उनके साथ शामिहैं। उपन्यास में किशन विद्रोही ऐसे ही पा} हैं। आदिवासी समाज के बुद्धिजीवी के रूप में सोमेश्वर पहान हैं, जो पूंजीवादी व्यस्था के विकल्प के रूप में आदिवासी समाज-व्यवस्था को मजबूत बनाना चाहते हैं। इस दिशा में ेखक की यह खोज बहुत महत्वपूर्ण है कि वह आदिवासी समाज में मौजूद विकल्प को पहचानते हैं और उसके िए संघर्ष में सोमेश्वर पहान, नीरज, सोनामनी दी और अनुजा पहान के साथ हैं।
वतर्मान समाज जिस तरह से संपूर्ण धरती के िए संकट बना हुआ है ऐसी परिस्तिथियों में एकमा} आदिवासी समाज के पास ही वे सारे टूल्स मौजूद हैं जिससे इस धरती को बचाया जा सकता है। नहीं तो एक दिन इस धरती से नदी, जंग¶, पहाड़, पेड़-पौधे सब एक बारगी विुप्त हो जायेंगे।
आदिवासी सामाज की इन विशेषताओं का उल्लेख करते हुए ेखक कभी भी मुग्ध नहीं होता बल्कि उसके अन्दर मौजूद अंतर्विरोधों को भी खोकर सामने रखते हैं। आदिवासी समाज के भी अपने सामाजिक अन्तर्विरोध हैं। इन को उपन्यास की स्}ी-पा} अनुजा पहान उद्घाटित करती है, उससे संघर्ष करती है। ेकिन ऐसा करते वक्त ेखक कभी-कभी अपने बाहरी समाज के प्रभाव में भी होते हैं जिससे कुछ चीजों का अनावश्यक अतिक्रमण होता हुआ भी प्रतीत होता है।
उपन्यास में अनुजा पहान जब स्}ी अधिकार के िए बहस करती है तो ऐसा ही गता है कि ेखक वतर्मान स्}ी विमर्श को भी शामिकरना चाहता है। आदिवासी समाज में स्}ियों की स्थिति पर बात होनी ही चाहिए ेकिन जिस रूप में उपन्यास में स्}ी के सन्दर्भ से बात उठायी गयी है वह पूरी तरह वतर्मान मुख्यधारा की अवधारणा पर आधारित है। तब गता है ेखक आदिवासी समाज को बाहर से देख रहा है और तब वह मुण्डा आदिवासी समाज, स्}ी और संपत्ति के संबंध को व्याख्यायित नहीं कर पाता है। इसी सन्दर्भ में अनुजा पहान कहती है कि मुंडाओं के जीवन के बारे सेन गे सुसुन काजी गे दुरंग (चना ही नृत्य, बोना ही गीत) की बात तो बहुत गर्व से कही जाती है ेकिन उसकी अगी कड़ी दुरी गे दुमंग (नितम्ब ही मांद¶) को जान बूझकर छोड़ दिया जाता है और वह कहती है कि यह ईऔर स्}ी विरोधी है। जबकि ऐसा बिल्कुनहीं है दुरी दुमंग भी है ेकिन वह अपनी दुरी है न कि किसी दूसरे की या किसी स्}ी की और यह कहावत पूरी तरह से आदिवासी समाज के राग-पक्ष को दर्शाता है। यहाँ नितम्ब से आशय ेकर पूरी व्याख्या बददी गई है। जबकि आमतौर पर आदिवासी समाज में उस रूप का दिखना स्वाभाविक हो जाता है जब गीत गाये जा रहे हों और नृत्य का माहौबन रहा हो ेकिन वाद्य यं}/मांदकी अनुपस्थिति हो। ऐसी स्थिति स्}ी या पुरुष कोई भी मांदके रूप में अपने शरीर के ही हिस्से को बजाने का स्वांग करता है। इन सबके बावजूद उपन्यासकार ने पूरी कोशिश की है कि आदिवासी जीवन का यथार्थ खुकर उभर आए।
इक्यावन अध्यायों में विभाजित इस उपन्यास के पहे अध्याय में ही (गायब होता देश, जिसके नाम से शीर्षक रखा गया है) सू} की तरह बात स्पष्ट हो जाती है - सरना-वनस्पति जगत गायब हुआ, मरांग-बुरु बोंगा, पहाड़ देवता गायब हुए, गीत गाने वा, धीमे बहने वा, सोने की चमक बिखेरने वा, हीरों से भरी सारी नदियाँ जिनमें इकिर बोंगा - जदेवता का वास था, गायब हो गइर्ं। मुंडाओं की बेटे-बेटियाँ भी गायब होने शुरू हो गये और सोना ेकन दिसुम गायब होने वाे देश में तब्दीहो गया।
उपन्यास में ेखक मुंडा जीवन के अनछुए पहुओं को बहुत ही रोचकता के साथ प्रस्तुत करता है। छैा सन्दू जैसे मुंडा ोककथाओं के माध्यम से कहानी और भी पुष्ट होती है।
ेखक द्वारा मुंडारी (आदिवासी) चिकित्सा पद्धति होड़ोपैथी का खासतौर से उल्लेख करना आदिवासी समाज व्यवस्था के प्रति उनकी जानकारी का संकेत है। वरन, बाहरी समाज तो आदिवासी समाज के बारे में टोना-टोटका और जादुई तिस्मी बातों का ही प्रोपेगंडा करता है, जबकि आदिवासियों की अपनी निश्चित चिकित्सा पद्धति रही है जो किसी भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति से कम नहीं है। वतर्मान आदिवासी जीवन पहचान के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है। अपने पहचान के संकट से जूझ रहे आदिवासी समाज को अपनी ड़ाई को आगे बढ़कार मानव मुक्ति का प्रतिनिधि बनना होगा। हाके दिनों में झरखंड के आदिवासियों पर केन्द्रित रचनाओं और उसके रचनाकारों ने इस दिशा में सार्थक पहकी है। उपन्यास के रूप में ग्ोबगाँव के देवता ने हजार सापुरानी असुर संबंधी मान्यताओं को तोड़ा है, वहीं मारंग गोड़ा नीकंठ हुआ ने आदिवासी समाज से संबंधित भिन्न नजरिये को विकसित किया है फिर भी यह या}ा तब तक अधूरी रहेगी जब तक आदिवासी समाज स्वंय इन बौद्धिक और वैचारिक मामों में ठोस हस्तक्षेप नहीं करेगा।
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Source – KalpatruExpress News Papper

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