सोमवार, 26 मई 2014

डर के साये में आधी आबादी



स्मिता सिंह महिला सशक्तिकरण के युग में पुरुषों से दो- दो हाथ करती महिलाओं के लिए शायद 
 महादेवी वर्मा की यह कविता अप्रासंगिक लगती हो कि मैं नीर भरी दुख की बदली.. लेकिन सच्चाई 
यह है कि विकास करती नारी आज भी डर के साये में जीने को मजबूर है, वह डर मां के गर्भ से 
लेकर स्कूल 
तक और ऑफिस से लेकर ससुराल तक ,कहीं भी हो सकता है।
यह डर है किसी भी मोड़ पर उनके टूटकर बिखर जाने का या फिर अपने स्वाभिमान को बचाए 
रखने का।
आज की सभ्य कहलाने वाली दुनिया में आने से पहले और आ जाने के बाद कहीं भी महिलाएं 
बेखौफ नहीं हैं। वे हर समय अपने होने को साबित करने की जद्दोजहद में हैं कि कहीं कोई डर
उनसे उनकी पहचान न छीन ले।
जन्म से पहले ही पता लगाकर मार दिये जाने का डर ही नहीं बल्कि पढ़ाई से वंचित रखे जाने का 
डर भी लड़कियों को होता है। अगर जिंदा बच गईं और पढ़ भी लिया तो बाल विवाह का डर
अन्यथा गिद्ध जैसी नजरों का खौफ तो हर वक्त होता ही है। पढ़ लिया तो अवसर मिलने का डर 
और अगर अवसर हाथ आये तो उसे कायम रखने के िए कीमतचुकाने का डर। शादी के िए 
दहेज का भय, अगर वह भी दे दिया तो भी पति और ससुराल द्वारा घरेलू हिंसा का डर, नहीं तो 
मार दिये जाने का।
इस डर की सचमुच कोई सीमा नहीं है। अमूमन हर लड़की इस श्रेणी के या अन्य किसी भी श्रेणी के 
 डर से जूझती ही रहती है।
भ्रूण हत्या-

 देश में भ्रूण हत्या के लिए अनेक कानून बनाए गए हैं, सरकार द्वारा कई तरह के जागरूकता 
अभियान चलाए गए लेकिन भ्रूण हत्या का सिलसिला रुक नहीं रहा है। तेजी से बढ़ती महंगाई और 
दहेज की बढ़ती मांग इसके प्रति लोगों की धारणा ही बदलने नहीं देती। हर गली-कूचे में लिंग 
परीक्षण की सुविधाएं हैं और चिकित्सक धड़ल्ले से इस कार्य को अंजाम भी दे रहे हैं। कई परिवारों 
में तो लड़कियों के विकास का नहीं बल्कि उन पर खर्च होने वाले पैसों का ब्योरा रखा जाता है।
उनके दहेज का सामान जुटाने के नाम पर उन्हें अच्छी शिक्षा देने से भी लोग परहेज करते हैं।
सुरिक्षित कहीं नहीं-

राह चलते लड़कियों पर जुमले उछालते और घूरते लोगों की संख्या काफी है। इस मामले में देश में 
सभी तरफ लोग एकजुटता दिखाते हैं।
कहीं भी जाएं पर लड़कियों के साथ छेड़खानी होना आम सी बात है। कहीं भी, कभी भी लोग उनके 
साथ गलत तरीके से पेश आते हैं, इसका डर महिलाओं के मन में हमेशा रहता है कि कहीं वे किसी 
की बदचलनी का शिकार न हो जाएं। इसलिए उन्हें हमेशा चौकन्ना रहना पड़ता है। घर से लेकर 
बाहर तक उसकी सुरक्षा की गारंटी किसी के पास नहीं है। क्योंकि सुरक्षा का काम करने वाले कई 
बार खुद ही उसके लिए असहज स्थिति पैदा कर देते हैं।
कार्यस्थल पर उत्पीड़न का डर-
 कहने को आज महिलाएं पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिाकर चल रही हैं। उन्हें भी काम के 
अवसर मिरहे हैं। लेकिन इसके िए कई बार उन्हें बड़ी कीमतचुकानी पड़ जाती है। वे कितना 
भी अच्छा काम करें पर लोग उन्हें परेशान करने से पीछे नहीं हटते। दरअसल पुरुष अभी भी उसे 
भोग्या समझकर ही देखता है, जिसके कारण न केवल उसकी प्रतिभा कुंठित होती है बल्कि उसका 
विकास भी बाधित होता है। कार्यस्थपर महिलाओं को मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न का शिकार 
होने का डर बना रहता है।
दहेज का डर-

 शादी को अब न तो कोई जन्मों का रिश्ता मानने को तैयार है और न ही उस लिहाज से उसे 
निभाने को। दरअसल शादी अब रिवाज पर नहीं दहेज पर आधारित हो चुकी है। कुछ अपवादों को 
छोड़ दिया जाए तो जिसने जितना अच्छा दहेज दिया, उसे उतना ही अच्छा रिश्ता मिला। अन्यथा 
कोई शादी करने के लिए राजी ही नहीं होता।
लड़कियां आज भले ही हर तरफ अपने काम से यश और सम्मान की हकदार बन रही हैं लेकिन 
आज भी उन्हें शादी के लिए दहेज देना ही पड़ता है।
लड़की चाहे आईएएस हो या फिर पीसीएस और डॉक्टर उसकी शादी में दहेज का लेन-देन काफी 
होता है।
में आधी आबादी सुरक्षित कहीं नहीं
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Source – KalpatruExpress News Papper






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