विश्व की
दूसरी सर्वाधिक क्षेत्रफल पर उगाई जाने वाली फसल धान ने किसानों की माली हालत
में थोड़ा सुधार किया है। किसानों के समर्थन का ही फल है कि आज भारत विश्व में
धान का दूसरा बड़ा उत्पादक देश है, जहां विश्व के कुल उत्पादन का 20 प्रतिशत धान पैदा किया जाता है। इसका कारण
यह भी है कि विश्व बाजार की ज्यादा मांग के चलते पिछले कुछ सालों से किसानों को
धान की कीमतें ठीक मिल रही हैं। इस बार वैज्ञानिकों ने अल् नीनो कारक के चलते
कमजोर मानसून की संभावनाएं व्यक्त की हैं तथा सभी फसलों के लिये पानी का संकट
गहरा सकता है। चूंकि, धान के लिये अत्यधिक पानी की आवश्यकता होती है, ऐसे में धान की उन्नत खेती करने के तरीकों
पर प्रकाश डालती दिलीप कुमार यादव की रिपोर्ट।
श्री विधि से
बढ़ती है उपज –
श्री विधि को
मेडागास्कर के नाम से भी जाना जाता है। इस विधि से धान की नर्सरी डालने के लिए 12 से 15 दिन की नर्सरी को खेत में रोप दिया जाता है। इस तरीके से रोपी गई नर्सरी में
कल्ले ज्यादा निकलते हैं और इससे उत्पादन भी अच्छा मिलता है। लाइन से लाइन और
पौधे से पौधे की दूरी कम से कम 20 सेंटीमीटर रखते हैं। इस विधि में पानी कम लगाना होता है। इस तकनीक से धान की
खेती में जहां भूमि, श्रम, पूंजी और पानी कम लगता है, वहीं उत्पादन ज्यादा मिलता है। इस पद्घति
में प्रचलित किस्मों का ही उपयोग कर उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। कैरेबियन देश
मेडागास्कर में 1983 में फादर
हेनरी डी लाउलेनी ने इस तकनीक का आविष्कार किया था। इधर, उड़ीसा में इस विधि से किसान पहले से ही
खेती करते रहे हैं। अब यूपी सहित कई राज्यों ने इस विधि को अपनाया तो है, लेकिन इसके प्रचार-प्रसार पर कोई खास काम
नहीं हुआ है। अब यह विधि 21 देशों में अपनाई जा रही है। भारत में इस विधि का उपयोग 2003 से शुरू हुआ। इसकी खूबी यह है कि इस विधि
से खेती करने में पानी खेत में कम लगता है। पौधों में कल्ले ज्यादा बनते हैं।
इसके कारण
उत्पादन भी ज्यादा मिलता है। खास बात यह है कि धान में कम पानी लगने से उमस कम
बनती है, जिससे रोग भी
कम लगते हैं।
कम पानी वाली
धान की किस्म की सीधी बुवाई बेहद कारगर –
अंतरराष्ट्रीय
गेहूं एवं मक्का अनुसंधान संस्थान मैक्सिको के दक्षिण एशिया कॉर्डिनेटर डॉ.
राजगुप्ता की मानें तो सीधी बुवाई बहुत कारगर है। वह मानते हैं कि इस विधि में
किसान गेहूं बोने वाली मशीन का उपयोग कर सकते हैं। इसके लिये उन्हें बीज वाले
बॉक्स में खाद और खाद वाले बॉक्स में बीज डालना होता है। वह कहते हैं कि खेत का
पलेवा करके धान गेहूं की तरह बोने के बाद खेत में खरपतवारों को उगने से रोकने के
लिए खरपतवारनाशी का छिड़काव करें। बुवाई से पूर्व धान को 10 घण्टे भिगो लें। बाद में पानी गेहूं की तरह
ही लगाएं। पानी खेत में केवल इतना दें कि जमीन में मोटी दरारें न बन जाएं।
आया नर्सरी
डालने का समय –
नर्सरी वाली
जगह की जुताई करके उसमें पानी लगा देना चाहिए ताकि उसमें पड़े पूर्व के बीज उग
आएं। इसके बाद नर्सरी वाली जगह में जिंक, फेरस सल्फेट, एनपीके आखिरी
जुताई में जमीन की जरूरत के अनुसार डालें।
नर्सरी
सायंकाल डालें। खेत में पानी खड़ा न रहने दें अन्यथा धान उबल जाएगा। गोबर की खाद
पूरी तरह के सड़ी हुई डालें। बीज को भिगोते समय उसमें किसी फफूंदी नाशक दवा को
मिलाकर बीज का शोधन करें। बीज में अंकुर निकलने के बाद उसे नर्सरी में डालें।
धमाल मचा रही
किस्म 1509 –
पूसा संस्थान
की धान किस्म 1509 इस समय धमाल
मचाए हुए है।
इस किस्म की
मांग समूचे देश के साथ विदेशों में भी है। इस किस्म को पूसा संस्थान के प्रजनक
डॉ. ए.के. सिंह ने बनाया है। उन्होंने 1121 किस्म के पौधे की लम्बाई को कम करने के साथ
पकने की समय अवधि को भी घटाया है। 1509 किस्म 115 दिन में पक कर तैयार हो जाती है।
इसके चावल में
खुशबू के लिए अलग से एरोमा डाला गया है। वैज्ञानिक सलाह दे रहे हैं कि इस किस्म
की खेती करने वाले किसान इस बात का ध्यान रखें कि नर्सरी 15 जून के बाद ही डालें। इस किस्म से उपज 50 से 55 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक मिलती है।
पूसा संस्थान
के किसानों की मांग के चलते देश की 10 कंपनियों के साथ बीज उत्पादन के लिए अनुबंध किया। इन कंपनियों द्वारा तैयार
कराए बीज का पूसा के वैज्ञानिकों ने फील्ड पर निरीक्षण भी किया। नक्कालों से
किसानों को बचाने के लिए पूसा ने अनुबंधित कंपनियों के नाम व फोन नंबरों का
प्रचार-प्रसार भी किया। उत्तर प्रदेश की एकमात्र श्रीयांसी हाइब्रिड कंपनी मथुरा
को अधिकृत किया गया है। गैर अधिकृत कंपनियों के बीज से किसानों को बचने की सलाह
दी गई है।
प्रचलित धान
की किस्में-
धान की
प्रचलित किस्मों में सेंटेड एवं पतले धान की मांग बढ़ी है। मोटे धान के मुकाबले
अब लोग आम उपभोग में भी पतले फाइन चावल का उपयोग करने लगे हैं। इनमें पूसा की कई
किस्में समूचे यूपी, पंजाब, हरियाणा आदि कई राज्यों में कई सालों से
धूम मचा रही हैं। खास बात यह है कि इनका एक्सपोर्ट होने के कारण किसानों को कीमत
भी अन्य किस्मों के मुकाबले ठीक मिलती है। उपज के मामले में भी यह मोटे धान से
कम नहीं है। पूसा सुगंध दो पकने में 135 दिन लेती है और उपज 60 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक मिलती है। सुगंध
तीन किस्म भी 135 दिन लेकर 60 कुंतल तक उपज देती है। सुगंध पांच 120 दिन में पककर 70 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है और
इसमें रोग कम आते हैं। सुगंध चार जिसे किसान 1121 के नाम से भी जानते हैं, 145 दिन में पककर 40 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती है।
इससे तैयार चावल विश्व का सबसे लम्बा बासमती माना जाता है। बल्लभ 21 एवं 22 बासमती सेगमेंट की वरायटी हैं। यह भी 55 कुंतल तक उपज देती है। सीएआर 30 किस्म बासमती सेगमेंट में खारे पानी वाले इलाकों में 40 कुंतल प्रति हेक्टेयर की उपज दे रही है।
एचकेआर 47, 135 दिन लेती है।
अच्छा चावल
पोहे के लिए उपयुक्त होता है। एचकेआर 127, 140 दिन में पकती है व उत्पादन 80 कुंतल होता है। नरेन्द्र-359,140 दिन में पकती है व 80 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। जल भराव
वाले इलाकों में क्रांति व महामाया धान की किस्में बोएं। इनकी उत्पादन क्षमता 70 कुंतल है और 140 दिन का समय लेती हैं। ़हाइब्रिड बोना है तो
पूसा का पीआरएच 10 धान ही
लागाएं। कंपनियों के झंसे में न आएं। इसकी उत्पादन क्षमता 80 कुंतल तक है और 120 दिन में पक जाता है।
अनेक
परेशानियों के बाद भी अच्छी आमदनी के चलते हर इलाके में किसान धान की खेती को
अपनाने लगे हैं। अकेले यूपी में धान का क्षेत्रफल बढ़ने से प्रदेश में सौ से ऊपर
अति दोहित एवं क्रिटिकल क्षेत्र बढ़े हैं। यह वह क्षेत्र हैं जिनमें भूगर्भ जल
का स्तर बेहद नीचे चला गया है। इसका कारण यह है कि एक किलोग्राम धान साढ़े तीन
से चार हजार लीटर सिंचाई जल मिलने के बाद तैयार होता है। गुजरे साल धान की
कीमतें ढाई से साढ़े तीन हजार रुपये प्रति कुंतल रहने से इस बार धान का
क्षेत्रफल बढ़ने की संभावना है। इधर मौसम विभाग हल्के मानसून का पूर्वानुमान
जारी कर चुका है। ऐसे में सवाल उठता है कि कम पानी में धान की उन्नत ख्ेाती कैसे
हो सकती है? कम पानी में
धान की खेती करने के लिए किसानों को सबसे पहले इस बात का ध्यान देना होगा कि वह
कम समय में तैयार होने वाली धान की किस्मों को प्राथमिकता दें। इन्हें लगाने के
लिए नर्सरी भी 10 जून के बाद ही
डालें। देरी से पकने वाली 1121 सुगंध चार जैसी किस्मों को उन्हीं इलाकों में लगाएं जहां पानी बहुतायत में
मिलता है। मोटे धान की किस्में भी ज्यादा समय लेती हैं। इनका बाजार मूल्य भी
सुगंधित और बासमती श्रेणी की किस्मों से आधे से भी कम रहता है। कम समय में पकने
वाली बासमती श्रेणी की किस्मों को लगाने से एक फायदा यह भी होता है कि इस तरह की
किस्में जल्दी पक जाती हैं इसलिए इनमें रोग भी कम आते हैं। किसान फसल की ठीक से
देखरेख कर पाते हैं।
लम्बी अवधि की
किस्में पानी के संकट का कारण एचकेआर 127 और पूसा 44 की बिजाई करना किसान छोड़ रहे हैं। इसका कारण यह है कि ये किस्में पकने में
ज्यादा समय लेती हैं और पानी की खपत भी ज्यादा होती है। इनमें झुलसा रोग से
लड़ने की क्षमता बिल्कुल नहीं है। लम्बी अवधि वाली परंपरागत किस्मों को छोड दें
तो बाकी को सरकार को ही प्रतिबंधित कर देना चाहिए। किसानों के हित के साथ देश
में जल संकट के हालात के मद्देनजर उन्हें यह कदम उठाने चाहिए।
“जीराफूल” की
खेती से बनी चंगारो की पहचान -
सुगंधित धान ‘जीराफूल’ की खेती से छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल गांव चांगरो की ख्याति इन दिनों
दूर-दूर तक फैल रही है। राज्य के नवगठित बलरामपुर-रामानुजगंज जिले के शंकरगढ़
विकासखंड में घने जंगलों के बीच बसे गांव चांगरो के किसानों ने जैविक खाद का
उपयोग कर कीमती और सुगंधित जीराफूल धान के उत्पादन में एक नई पहचान बनाई है।
किसानों की इस
पहचान और सफलता से प्रभावित होकर आज जिले के बलरामपुर और कुसमी विकासखंड के अनेक
गांवों के किसानों की रुचि जीराफूल की खेती करने की ओर बढ़ी है। ऊंचे-ऊंचे साल के
जंगलों से घिरे चांगरो गांव के किसान वर्षो से परम्परागत ढंग से जीराफूल की खेती
करते आ रहे हैं।
इंदिरा गांधी
कृषि विश्वविद्यालय द्वारा बलरामपुर विकासखंड के जाबर ने कृषि विज्ञान केंद्र के
कृषि विशेषज्ञों के प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन में आज चांगरो गांव के किसान
उन्नत तकनीकी से धान की खेती के गुर सीख गए हैं। यही नहीं यहां के किसानों ने
सूर्या कृषक स्व-सहायता समूह बनाकर जीराफूल धान से चावल निकालकर उसे बाजार में
बेचने का काम भी सफलतापूर्वक कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़
शासन के मुख्य सचिव विवेक ढांड ने गत दिनों अपने बलरामपुर-रामानुजगंज जिले के
प्रवास के दौरान चांगरो गांव के इन किसानों और सूर्या कृषक स्व-सहायता समूह के
सदस्यों से मुलाकात कर उनकी सफलता के लिए उन्हें बधाई दी।
सघन साल वनों
के बीच कन्हार नदी के तट पर बसा चांगरो आदिवासी बहुल गांव है। गांव के खेतों को
हरा-भरा रखने के लिए पास से बहने वाले सूर्या नाले में बारह माह पानी उपलब्ध
रहता है। इन खेतों के लिए प्रकृति से जैविक खाद मिलती है।
पेड़-पौधों के
सड़े-गले पत्ते से प्राकृतिक रूप से बनी जैविक खाद खेतों को उपजाऊ बनाने के काम
आती है। गांव के गहरे खेतों (बाहरानार) में बिना रासायनिक खाद के उपयोग के किसान
वर्षो से जीराफूल धान की खेती कर रहे हैं।
जीराफूल पैदा
करने वाले मेहनतकश किसान स्व-सहायता समूह के माध्यम से सही दाम पर चावल को बेचकर
आर्थिक स्वावलंबन की राह में आगे बढ़ रहे हैं। वर्ष 2013-14 में चांगरो में 200 एकड़ रकबे में सुगंधित जीराफूल धान की खेती
कर लगभग 1600 क्विंटल का
उत्पादन किया गया। जिले के बलरामपुर और कुसमी विकासखंड के किसान भी अब ग्राम
चांगरो के किसानों से प्रेरणा लेकर जीराफूल खेती की ओर बढ़ रहे हैं।
प्रजातियां..
हरित क्रांति
के दौरान भारत में चावल की अनेक प्रजातियां विकसित की गईं, जिनमें विजया, पद्मा, कांची आदि प्रमुख हैं। भारत में लगभग 2,00,000 किस्म के चावल हैं।
भारत के
विभिन्न भागों में उपजाये जाने वाले चावल के प्रकार हवा, मिट्टी संरचना, विशेषताओं पर निर्भर करते हैं। विश्व में
चावल का सबसे बड़ा कटाई क्षेत्र भारत में स्थित हैं। चावल की खेती पूरे भारत में
की जाती है।
1965 से लगभग 600 उन्नत किस्म के इंडिका चावल खेती के लिए
जारी किए जाते रहे हैं। चावल की किस्मों के लिए परिपक्वता अवधि 130 से 160 दिनों के बीच है। यह चावल के प्रकार और जिस
क्षेत्र में उपजाया जाता है, पर निर्भर करती है।
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Source –
KalpatruExpress News Papper
|
OnlineEducationalSite.Com
शनिवार, 31 मई 2014
धान से कैसे हुआ जाये धनवान
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