शुक्रवार, 27 जून 2014

जिसके हम मामा हैं



शरद जोशी एक सज्जन बनारस पहुंचे।
स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आया।
मामाजी! मामाजी! - लड़के ने लपक कर चरण छुए।
वे पहचाने नहीं। बोले - तुम कौन?
मैं मुन्ना। आप पहचाने नहीं मुङो?
मुन्ना? वे सोचने लगे।
हां, मुन्ना। भूल गए आप मामाजी! खैर, कोई बात नहीं, इतने साल भी तो हो गए।
तुम यहां कैसे?
मैं आजकल यहीं हूं।
अच्छा।
हां।
मामाजी अपने भानजे के साथ बनारस घूमने लगे। चलो, कोई साथ तो मिला। कभी इस मंदिर, कभी उस मंदिर।
फिर पहुंचे गंगाघाट। सोचा, नहा लें।
मुन्ना, नहा लें?
जरूर नहाइए मामाजी! बनारस आए हैं और नहाएंगे नहीं, यह कैसे हो सकता है?
मामाजी ने गंगा में डुबकी लगाई। हर-हर गंगे।
बाहर निकले तो सामान गायब, कपड़े गायब! लड़का.. मुन्ना भी गायब!
मुन्ना.. ए मुन्ना!
मगर मुन्ना वहां हो तो मिले। वे तौलिया लपेट कर खड़े हैं।
क्यों भाई साहब, आपने मुन्ना को देखा है?
कौन मुन्ना?
वही जिसके हम मामा हैं।
मैं समझ नहीं।
अरे, हम जिसके मामा हैं, वो मुन्ना।
वे तौलिया लपेटे यहां से वहां दौड़ते रहे। मुन्ना नहीं मिला।
भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के नाते हमारी यही स्थिति है मित्राे! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है। मुङो नहीं पहचाना, मैं चुनाव का उम्मीदवार। होनेवाला एम.पी.। मुङो नहीं पहचाना? आप प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं। बाहर निकलने पर आप देखते हैं कि वह शख्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर गायब हो गया। वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया।
समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं। सबसे पूछ रहे हैं - क्यों साहब, वह कहीं आपको नजर आया? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं। वही, जिसके हम मामा हैं।
पांच साल इसी तरह तौलिया लपेटे, घाट पर खड़े बीत जाते हैं।
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Source – KalpatruExpress News Papper

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