विनायक राजहंस
‘व्यंग्य लिखना
आसान काम नहीं।’ यह जुमला
व्यंग्य लेखन के सन्दर्भ में तमाम बार दोहराया जा चुका है और दोहराया जा रहा है।
यह जुमला इस
विधा की गंभीरता, उसकी अहमियत
और जरूरत को बताता है। वास्तव में व्यंग्य की रचना करना आसान काम नहीं।
इसके लिए
चाहिये गहन अध्ययन, धैर्य, परिश्रम, रचना कौशल और समय-समाज की नब्ज पहचानने की क्षमता। ये गुण जिसके पास हैं, वो यकीनन व्यंग्य को समझ सकता है, उसे रच सकता है। अच्छा व्यंग्य वही है, जो गुदगुदाए और समाज की विसंगतियों व
विद्रूपताओं पर चोट भी करे।
इधर के कुछ
वर्षो में कई नए व्यंग्यकार उभरकर आए हैं, जो अच्छा लिख रहे हैं। इन्हीं में से एक हैं चर्चित युवा व्यंग्यकार अलंकार
रस्तोगी। अलंकार ने व्यंग्य के उपरोक्त तमाम गुणों को आत्मसात कर व्यंग्य लेखन
की शुरुआत की है। अपने धारदार और ततैया-बरैया जैसे डंक मारने वाले अंदाज में
व्यंग्य लिखकर उन्होंने अपना एक अहम मुकाम बनाया है। वह जो लिखते हैं, सच ही लिखने की कोशिश करते हैं और सच
तीक्ष्ण होता ही है। अपने सद्य: प्रकाशित व्यंग्य संग्रह में अलंकार ने सच को
उभारने के लिये झूठ पर खूब चोट की हैं, और संग्रह को नाम भी दिया है- खुदा झूठ न लिखवाए। इस नए व्यंग्य संग्रह में
कुल 60 व्यंग्य हैं, जो समकालीनता से मुठभेड़ करते हैं और
व्यवस्था को आइना दिखाते हैं। पहला व्यंग्य ‘आजादी के साइड इफेक्ट’ है, जिसका अनोखा
शीर्षक सोचने को मजबूर कर देता है कि क्या आजादी का भी कोई साइड इफेक्ट होता है!
इसमें एक जगह व्यंग्यकार कहता है- जलसे ऐसे ही नहीं मनाए जाते। टेंट, कुर्सी, मेज, चाय-नाते, झंडा-झंडी, लड्डू-टॉफी सबका काफी बजट होता है। इसमें कुछ देशभक्ति के नाम पर खर्चा होता
है और कुछ कर्णधार टाइप के लोगों की शक्ति से आपस में मिल-बांट के खर्चा होता
है। यही है वास्तविकता आजादी की। ‘चुनावी फायदे’ व्यंग्य में
फायदे की बात अलंकार कुछ यूं लिखते हैं- चुनाव में सामाजिक ताना-बाना तो सुधरता
ही है, दिन में दस
घंटे आने वाली बिजली भी बीस घंटे जलवे बिखेरती रहती है। सड़कों के गड्ढों की
प्लास्टिक सर्जरी भी हो जाती है। पानी की सप्लाई भी थोड़े दिनों के लिए दुरुस्त
हो जाती है। जब ऐसे फायदे हों तो व्यंग्यकार के शब्दों में- चुनाव हर साल होते
तो अच्छा था।
‘पाप मुक्ति का
सर्टिफिकेट’ पाप से मुक्ति
पाने के हाइटेक तरीकों के बारे में चुटीले अंदाज में बताता है- मेरे जैसे लोग तो
अब सरकार से ई-बैंकिंग और ई-मेल की तरह ई-डुबकी की व्यवस्था करवाने की भी
प्रार्थना भी करते हैं, ताकि हम जैसे
लोग इंटरनेट से ही कुम्भ को विजिट कर अपने पाप मुक्ति का सर्टिफिकेट डाउनलोड कर
लें।
एक व्यंग्य
है- ‘कैमरे की नजर
आप पर है’। इसमें
पब्लिक प्लेस में अगर कैमरा लग जाए तो क्या विचित्र स्थितियां पैदा हो जाएंगी, लेखक लिखता है- सुना है अब हर चौराहे, हर नुक्कड़ कैमरे की निगाह में आ जाएंगे।
चलो हम तो चुसे
हुए आम आदमी (महंगाई के इस युग में अब आम आदमी चुसे हुए आम की तरह ही हो गया है)
ठहरे। ज्यादा से ज्यादा पान खाते या सिगरेट पीते ही पकड़े जाएंगे।
लेकिन, कम से कम उन बेचारे खाकी वस्त्र धारकों का
भी कुछ सोचा होता, जो दिन-रात हर
आने-जाने वाली गाड़ी के आगे हाथ फैलाते हैं। बताओ, जब बेचारे खुद कुछ ग्रहण नहीं कर पाएंगे तो ऊपर वालों को क्या अर्पण करेंगे? हमारे समाज में ‘दो मिनट का मौन’ एक संवेदनामूलक शिष्टाचार है। इस संवेदनशील
विषय में भी व्यंग्य की गुंजाइश बनती है तो यह एक अच्छे व्यंग्यकार का ही कौशल
है। ‘दो मिनट का
मौन’ शीर्षक से ही
संग्रह का एक आलेख ऐसे ही कौशल का प्रमाण है, जब लेखक लिखता है- इस दो मिनट के मौन की महिमा भी अपरम्पार है। अब खुद बताइए
भला दो मिनट के मौन से उसका क्या भला होने वाला है, जो अब हमेशा के लिए मौन हो चुका है और फिर
अगर दो मिनट के मौन से आत्मा की शांति होने भी लगी तो फिर बेचारे तांत्रिक, ओझओं का बिजनेस नहीं डाउन हो जाएगा।
कुल मिलाकर
संग्रह के सभी व्यंग्य अपना प्रभाव छोड़ते हैं और हमें चिकोटी काटते हुए सोचने
पर मजबूर कर देते हैं। अलंकार की भाषा पर अच्छी पकड़ है, शिल्प में परिश्रम नजर आता है। ‘अमां’ और ‘मियां’ जैसे शब्द लखनवी अंदाज का पुट डालते हैं, जो भाषा में और रवानगी लाते हैं।
पुस्तक: खुदा
झूठ न लिखवाए लेखक: अलंकार रस्तोगी प्रकाशक: भावना प्रकाशन, दिल्ली मूल्य: 250 रुपये मीक्षा:
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Source –
KalpatruExpress News Papper
|
OnlineEducationalSite.Com
गुरुवार, 21 अगस्त 2014
झूठ पर व्यंग्य की लुहारी चोट
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