शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

स्वयं करें अपना उद्धार



स्वयं करें अपना उद्धार 

केवल बौद्धिक  क्षमताओं  के कारण ही प्राणियों की सृष्टि में मानव को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है | प्रकृति के इस विशिष्ट उपहार के सदुपयोग द्वारा ही मानव अपने मन में उठने वाले विक्षेपों अर्थात् बेचैनी, चिंता, भय, दुविधा, कशमकश, संशय, आलस्य, प्रमाद, क्रोध, भ्रान्ति और वासनाओं को नष्ट करने में समर्थ बन जाता है और शुद्ध एवं स्थिर-चित्त हो कर वर्तमान में उपलब्ध परिस्थितियों का लाभ उठाकर उन्नत भविष्य का निर्माण करता है |उसे यह आत्मानुभूति हो जाती है कि वर्तमान में अकुशलता से कार्य करने पर उसे भविष्य में कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लगने वाली |अतः वह हर कदम पर सावधानी बरतता है कि कहीं विषम परिस्थितियाँ उसके
मानसिक-संतुलन पर हावी न हो जाएँ और उसकी अपने कर्म के प्रति यह स्फूर्ति तथा प्रेरणा, यह निश्चयात्मक बुद्धि,, कहीं नकारात्मकता में न बदल जाये |ऐसा ज्ञानी मनुष्य किसी दिव्य और श्रेष्ठ लक्ष्य पर दृष्टि रखकर,अपनी बुद्धि से अपने मन पर नियंत्रण रखकर , जगत् में सब प्रकार के कर्तव्य-कर्म करते हुए भी सदैव आनंदित रहकर अपना समय व्यतीत किया करता है क्योंकि शुद्ध अन्त:करण वाले उस व्यक्ति के लिए फिर दुःख मनाने का कई निमित्त रह ही नहीं जाता|
वस्तुतः, मनुष्य की ‘’कर्म करने की शक्ति’’ ही उसे कुदरत द्वारा दिया गया, उसका सबसे बड़ा पुरस्कार और उपहार है क्योंकि श्रेष्ठ कर्म करने के संतोष और आनंद में वह अपने आप को भूल जाता है |लेकिन सत्य तो यह है कि हममें से अधिकांश लोग असफलता के भय से किसी महान् कार्य को अपने हाथ में लेना ही स्वीकार नहीं करते और यदि एक मुट्ठी भर लोग ऐसा साहस करते भी हैं तो थोड़ा सा विघ्न आने पर इतने निरुत्साहित हो जाते हैं कि अपने कार्य को अधूरा ही छोड़ दिया करते हैं |इसका सबसे बड़ा कारण है हमारी मनःस्थिरता का अभाव क्योंकि हम अभी काम शुरू करते नहीं कि भविष्य में संभावित हानि एवं परेशानी की कल्पना से स्वयं को भयभीत बना लेते हैं| दरअसल, हम यह भूल जाते हैं कि कर्मफल स्वयं कर्म से कोई अलग वस्तु नहीं है |किए गए कर्म भविष्य में फलीभूत होते ही हैं |इसलिए यदि हम सफलता चाहते हैं तो हमें ऐसे मन से प्रयत्न करना होगा जो फलप्राप्ति की चिंता और भय से बिखरा न हो |स्वामी चिन्मयानन्द जी ने सत्य ही तो कहा है –‘’कर्म तो मात्र साधन होता है और आत्मानुभूति साध्य |’’
 अंततः,यही कहना चाहती हूँ कि मित्रों !भविष्य का निर्माण सदा वर्तमान में हुआ करता है और हर कर्म की समाप्ति अथवा पूर्णता उसके फल में ही निहित होती है तो क्यों हम फलासक्ति के शिकार बनकर शक्तिशाली और गतिमान् वर्तमान की अवहेलना करके अपनी मानसिक-शक्ति का अपव्यय करें ? विपरीत इसके यदि हम कर्मफल की चिंता से मुक्त हो कर अपने लक्ष्य-पथ पर चलना प्रारंभ करें तो हम पायेंगे कि हमारे भीतर वह असीमित ऊर्जा है जिसके द्वारा हम अद्वितीय कर्म कर सकते हैं | पहले से बेहतरप्राप्त कर सकते हैं, निर्माण कर सकते हैं, सृजन कर सकते हैं, सीख सकते हैं, अर्जित कर सकते हैं, जीवन-यापन कर सकते हैं, रिश्ते निभा सकते हैं और सबसे बड़ी बात तो यह है कि पहले से ज़्यादा प्रसन्नचित्त रह कर आनंदपूर्वक अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकते हैं |अतः, अपने मन  में उठने वाले विक्षेपों पर अपनी बुद्धि से अंकुश लगाकर क्यों न अपना उद्धार स्वयं ही कर लें ?
पार्थसारथी भगवान् श्री कृष्ण ने भी तो श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन को यही वचन कहे थे—-‘‘उद्धरेदात्मनात्मानंअर्थात् मनुष्य को स्वयं अपना उद्धार करना चाहिए |

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