रविवार, 2 फ़रवरी 2014

सूचना क्रांति की आड़ में नैतिकता का पतन


                           

सुनील तिवारी यकीनन सूचना संसार के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई है। यही कारण है कि अब विश्व का विस्तार सिमट गया है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि अब पूरी दुनिया मुट्ठी में समा गयी है।
कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल आदि ने दूरियां एकदम घटा दी हैं। नतीजतन बाजार तंत्र खूब परवान चढ़ा है। बाजारू मानसिकता बढ़ी है और उपभोक्तावादी संस्कृति में आश्चर्यजनक ढंग से वृद्धि हुई है। दूरियां मिटाने वाली सूचना एवं संचार की इस क्रांति ने कुछ ऐसी दूरियां बढ़ायी भी हैं जो हमें भटकाव की तरफ ले जा रही है। खासकर हमारा युवा वर्ग इस भटकाव का सबसे ज्यादा शिकार हुआ है। हमारा युवा वर्ग शिक्षा के उन मूल्यों से बहुत दूर चला गया है, जो हमारी धरोहर जैसे थे और जिन्हें हम मूल्य शिक्षा या नैतिक शिक्षा कहा करते थे। ये नैतिक मूल्य दम तोड़ चुके हैं। वर्जनाएं टूट चुकी है, फलत: अमर्यादित आचरण बढ़ा है। सूचना और संचार की क्रांति ने हमें वैचारिक प्रदूषणकी सौगात भी दी है। इस क्रांति ने दुनिया को मुट्ठी में जरूर कर लिया है, मगर बहुत कुछ ऐसा उजागर करके हमारी किशोर और युवा पीढ़ी को दिग्भ्रमित भी किया है, जिसका छिपा रहना ही ठीक था।
कामसक्ति और ईलता के ज्वार-भाटे ने नैतिक मूल्यों को दूर उछाल फेंका है। भोगवादी मानसिकता ने हमें पैसे कमाने की उस तेज रफ्तार दौड़ में गले तक उतार दिया है, जहां नीति का कोई अर्थ ही नहीं है। यह ट्रैक ही अनीति का है, जिस पर हम हांफते हुए भाग रहे हैं। चैनल क्या-क्या नहीं दिखा रहे हैं? दुखद बात यह है कि बच्चा आज परिवार के अन्य सदस्यों के साथ बैठकर वह सब कुछ देख रहा है, जो उसके बचपन के लिए घातक है। जो उससे उसका बचपन बड़ी क्रूरता से छीन कर उसे समय से पहले वयस्क बनाने पर तुला है। जो उसे बाजार की हवा दे रहा है और उड़ाए ले जा रहा है। उसे संस्कार और नैतिक मूल्यों के घरेलू आंगन से दूर- बहुत दूर ले जा रहा है।
ईलता ने जबरदस्त दस्तक दी है। इस आंधी में मूल्य उड़ गये हैं। बच्चे की आंख अब टीवी स्क्रीन पर खुलती है। वह खेलना शुरू करता है कम्प्यूटर के बटनों और माउस से।
उसकी अांखें बचपन से ही नंगी तस्वीरें देखने की अभ्यस्त हो जाती है। ईलता क्या है? वह जान ही नही पाता, क्योंकि परिवेश ईलता और भोगवाद से भरा हुआ हैं। वहां न तो नैतिक मूल्यों की जगह है और न ही ईलता के मायने समझने की गुंजाइश। सब कुछ बहुत गति से भाग रहा है और उसी के साथ भागना विवशता है। समय कहां है कि इस भागमभाग में मूल्यों की परवाह की जाए। यदि समय मिल भी जाए तो परिवेश नहीं। परिवेश तो अनैतिकता का ऐसा बनता जा रहा है कि पूछिए मत।
इंटरनेट पर बच्चों का रोमांस अब मां-बाप को भी नहीं खटकता। वे न तो इस पर आपत्ति करते हैं और न ही कड़ाई। उल्टे आपत्ति करने वाले से यह भी कहते सुने जाते हैं कि इसमें बुरा क्या है? इस परिवेश में यदि यौन अपराध और ईलता बढ़ती है, तो विस्मय कैसा? यह तो युग की देन है और हमारी उस आपराधिक लापरवाही की देन है, जो हम अपने नैतिक मूल्यों के प्रति बरत रहे हैं। आए दिन अखबार ऐसे समाचारों से भरे पड़े रहते हैं, जिनमें सूचनांसं चार क्रांति के औजार अपराध का माध्यम बनते जा रहे हैं।
साइबर कैफे में रंगरलियां, इंटरनेट पर ईल चैटिंग तथा गंदें चित्र देखना, मोबाइल पर ईल संदेश और फोटो तथा कैमरा मोबाइल के जरिये ब्लू फिल्म तैयार करना आदि इसी भोगवादी बाजार युग की देन है। साइबर क्राइम ने अपराध के क्षेत्र को और विस्तार दिया है। ईलता ने बुरी तरह से पांव पसारे हैं। यह गति और उछाल इसमें इसलिए आया है क्योंकि अवरोधक का काम करने वाले नैतिक मूल्यों को हमने उखाड़ फेंका है। अपने हाथों से हमने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी है। सिर्फ सूचना और संचार की टेक्नोलॉजी ने ही संस्कार और मूल्यों की जमीन को बंजर नहीं बनाया है, बल्कि पश्चिम की आंधी में उड़ने की हमारे बीच लगी होड़, दिल और दिमाग पर सवारी गांठ चुकी उपभोक्तावादी सोच और समझ तथा बाजारू हथकंडों ने भी अनीति को बढ़ावा दिया है।
घर-परिवार, गांव-समाज, मूल्य,आदर्श नैतिकता, शास्त्र, धर्म, ज्ञान, सहिष्णुता और सहृदयता सभी पर बाजारवाद का हमला इतनी तेजी से हुआ है कि अब इनकी बात करने वाले को दिमाग का ढीला या बेवकूफ माना जाने लगा है। वह समाज में उपहास का पात्र है। धोखा, छल, फरेब, धूर्तता अब समाज के प्रमुख तत्व बनते जा रहे हैं।
सच तो यह है कि किशोर या युवा ही नहीं, बल्कि पूरा का पूरा समाज ही दिग्भ्रमित हो चला है और मूल्यों से इस कदर भटक चुका है कि उनकी पुर्नस्थापना होती नहीं नजर आ रही है। समाज जिस दिशा में बढ़ रहा है और इस बढ़ने पर आत्ममुग्ध है,वास्तव में वह दिशाहीनता का द्योतक है।
दिशाहीनता ही भटकाव की जन्मदात्री है।
मूल्य, सभ्यता, संस्कृति और विरासत से हटने पर ही यह दिशाहीनता पैदा होती है और बाहरी आडंबर में खोकर हम अपनी जड़ों से हटने की यह भूल कर चुके हैं। यह एक आत्मघाती और खोखला बना देने वाली भूल है। जब समाज ही दिशाहीन,दिग्भ्रमित और कुमार्गी हो जाए तो स्थिति और भयावह हो जाती है। संक्रमणकाल का सूत्रपात हो जाता है।
हम अन्धे युग में पहुंच जाते हैं। सभ्यता और संस्कृति हमसे कलंकित होने लगती है। ऐसे युग और समाज का परिणाम अच्छा नहीं होता है।
कुल मिलाकर हम जड़ से विहीन वृक्ष की दशा में पहुंच रहे हैं। उपभोक्तावाद, बाजारवाद, पश्चिम की हवा के साथसा थ सूचना एवं संचार के माया जाल में इस तरह भटक जाना कि हम अपने मूल्यों, नैतिकता और आदर्शो को इस हद तक विस्मृत कर दें कि हमारी पहचान ही खतरे में पड़ जाए, उचित नहीं है। वैचारिक प्रदूषण और पश्चिम के खुलेपन के अंधे अनुसरण ने हमें पथ-भ्रष्ट करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। हमारा वह चश्मा अंधी आंधी में उड़ गया है, जो हमें भले-बुरे की पहचान कराने में मदद पहुंचाता था। अब किशोर और युवा पीढ़ी में कोमल भावनाएं जगाने, आत्मा की आवाज जगाने, संवेदनाओं और संस्कारों की घुट्टी पिलाने वाले खुद ही राह से भटके मुसाफिर हो गये हैं। सामाजिक मूल्य और वर्जनाएं सुझए तो कौन? ये लक्षण अच्छे नहीं हैं। यह घटादोष दूर करना ही होगा, वरना पछतावा ही साथ रह जाएगा। देश और समाज अच्छे नागरिकों के लिए तरस जाएगा।
सब कुछ बहुत गति से भाग रहा है और उसी के साथ भागना विवशता है। समय कहां है कि इस भागमभाग में मूल्यों की परवाह की जाए।
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Source – KalpatruExpress News Papper

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