शनिवार, 8 मार्च 2014

अबला सबला सी लगे, बरसाने की वाम



लठ्ठ धरे कंधा फिरे, जबहिं भगावत ग्वाल..बरसाना की लठामार होली का चित्रण करती ब्रजाचार्य नारायण भट्ट रचित भक्ति प्रदीपिका की यह पंक्ति नारी के सशक्त स्वरूप को दर्शाती है। साढ़े पांच सौ वर्ष पहले जब ब्रज क्षेत्र विदेशी आक्रांताओं के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर रहा था, निदरेषों के रक्त से यमुना लाल हो गई थी और धर्म की रक्षा के लिए गोकुल के गोस्वामी आत्मदाह कर रहे थे। समूचे ब्रजमंडल में नारियों की अस्मिता पर संकट आ खड़ा हुआ था। दक्षिण के मुदरैपट्टनम से आए नारायण भट्ट ने ब्रजांगनाओं को आत्म रक्षा के लिए लाठी उठाने को कहा और इस प्रकार शुरू हुई दुनिया भर में अपने विशेष स्वरूप के लिए पहचानी जाने वाली लठामार होली। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) पर योगेन्द्र सिंह छौंकर की विशेष रिपोर्ट ..

नारी सशक्तीकरण की पर्याय ब्रज की होली-

 ब्रजजन अपनी आन की रक्षा के लिए बड़े से बड़े शत्रु का मुकाबला अपने स्तर से करने में कभी पीछे नहीं रहे। कंस के अत्याचारों से आजिज आकर एक दिन गोकुल के चंद ग्वाले भंग की तरंग में झूमते हुए गए और अनायास ही कंस और उसके आततायी साथियों को बिना किसी घातक हथियार के लाठी डंडों के बल पर निपटा आए, इसी लाठी को कंधे पर रखकर कान्हा बचपन में गाय के बछड़ों को चराने जाते थे, जब कृष्ण ने अपनी उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठाया तो लौठा जैसे उसके सखाओं ने भी पर्वत को साधने के लिए अपनी लाठियों का सहारा लगाया था। इसी लाठी को खोखला कर कान्हा ने मुरली की मधुर तान छेड़ी थी, जिसे सुन समूची सृष्टि के चर-अचर सम्मोहित हो उठते थे। मध्यकाल में जब ब्रजजनों पर संकट के बादल मंडराये और दिल्ली से आगरा के ठीक बीच में स्थित इस क्षेत्र के लोगों को लगातार विदेशी आक्रांताओं का सामना करने पर मजबूर होना पड़ा तो अंत में ब्रजजनों ने अपना वही कृष्णकालीन हथियार उठाकर अपने सम्मान की रक्षा की तैयारियां शुरू कर दीं। नारायण भट्ट की प्रेरणा से ब्रजनारियों ने हाथों में लाठियां तो उठा लीं लेकिन प्रहार किस पर करें यह यक्ष प्रश्न था। इसका भी समाधान उसी तर्ज पर निकाला गया कि लठ प्रहार अपने निकटस्थ पर ही किया जाये, क्योंकि अगर अपनों पर भी प्रहार करने में दक्षता हासिल हो गई तो दुश्मन पर प्रहार करना बेहद आसान होगा।
लठामार की परंपरा-
 बरसाना की लठामार रंगीली होली के साथ ब्रज में फागोत्सव का दौर शुरू हो जाता है। पहले दिन जब बरसाना में इस उत्सव का आयोजन होता है तब बरसाना की महिलाओं के हाथों में, जिन्हें हुरियारी कहा जाता है, लाठियां होती हैं और इन लाठियों का सामना करने के लिए बारहसिंगे की खाल से बनी ढालों को लेकर भंग की तरंग में झूमते नंदगांव के पुरुष होते हैं, जो हुरियारे कहलाते हैं। आयोजन के दौरान हुरियारिनें राधा की सखियों का प्रतिनिधित्व करती हैं और नंदगांव के पुरुष श्याम के सखाओं के रूप में होते हैं।
होती हैं विशेष तैयारियां-
 लठामार रंगीली होली का धार्मिक महत्त्व होने के कारण इस आयोजन में सहभागिता करने वाली हुरियारिनें इसे लेकर खासी उत्साहित रहती हैं। इसके लिए उनकी तैयारियां भी बहुत दिन पहले से शुरू हो जाती हैं। हालांकि ये हुरियारिनें तैयारियों के दौरान लाठियां भांजने का अभ्यास नहीं करतीं लेकिन अपने स्वास्थ्य और खान-पान को लेकर सचेत जरूर हो जाती हैं।
साज-श्रृंगार को लेकर वे खासी मेहनत करती हैं। इस दिन वे पारंपरिक लहंगा-ओढ़नी पहनती हैं, इसके साथ-साथ नखसि ख श्रृंगार कर खुद को सजाती हैं। चाहे नवयुवती हो या बुजुर्ग महिला उत्साह सबका देखने लायक होता है।
अबला का सबला रूप दिखता है इस होली में-
 वर्ष भर साधारण घरेलू महिलाओं की तरह रहने वाली ये हुरियारिनें लठामार के मौके पर हुरियारों के पीछे लठ्ठ लेकर भागती हैं तो इनका सबला स्वरूप साकार हो उठता है। हाथों में चमचमाती लाठियां थाम कर जब ये हुरियारिनें गलियों में निकलती हैं तो दर्शक दम साधकर इनके लठ्ठ प्रहारों को देखने को लालायित हो उठते हैं। जब हुरियारे सामने आ जाते हैं तो हुरियारिनें उन पर लाठियां बरसाना शुरू कर देती हैं। इन प्रहारों से बचने के लिए हुरियारे अपनी ढालों का प्रयोग करते हैं। जिस प्रकार से उछल-कूद करते हुए ये महिलाएं लाठियों की बरसात करती हैं, देखने पर लगता है कि अगर हुरियारे से जरा सी भी असावधानी हुई तो हादसा होने में देर नहीं लगेगी।
ऐसा भी नहीं है किलाठी और ढाल का यह खेल नूराकुश्ती हो, यहां भी जीत और हार मायने रखती है।
दोनों ही पक्ष जीतने के लिए जी तोड़ कर परिश्रम भी करते हैं। इस दौरान दोनों पक्ष एक-दूसरे पर उकसाने के लिए व्यंगात्मक टिप्पणियां भी करते हैं। करीब एक घंटे तक चलने वाले इस आयोजन के अंत में जीत हर बार हुरियारिनों की ही होती है। आयोजन के अंत में हुरियारे हार स्वीकार करते हुए हुरियारिनों के पैर छूकर क्षमा याचना करते हुए नंदगांव लौट जाते हैं, वहीं विजयी हुरियारिनें अपनी जीत का समाचार सुनाने राधा रानी के मंदिर पहुंचती हैं।
पद गायन की परंपरा-
 40 दिन तक चलने वाले ब्रज के फागोत्सव की शुरुआत यहां के मंदिरों में होने वाले पारंपरिक समाज गायन से होती है। बरसाना के लाडिली जी मंदिर में वसंत पंचमी के दिन आदि रसिक कवि जयदेव के विहरति हरि रिह सरस बसंतेसे होती है। इसी दिन से मंदिरों में देव विग्रहों से गुलाल अर्पित किया जाना शुरू हो जाता है। समाज गायन के दौरान वृंदावनदास, चतुर दास नागा, मुरारी दास, माधौदास, नंददास, गरीबदास, गोविंद, परमानंददास, व्यास, गदाधर, नागरीदास और कटहरिया आदि रसिक कवियों के पदों का गायन किया जाता है। धुलेंडी के दिन अंतिम पद जीवैगो सो खेलैगो,ढप धर दे यार गई परकीके गायन के साथ एक वर्ष के लिए ढप उलट कर रख दिया जाता है।
फालैन, जटवारी की प्रह्लाद-होलिका परंपरा-
 भक्त प्रह्लाद और होलिका की कहानी तो सबने सुनी होगी पर क्या इस बात पर भरोसा किया जा सकता है कि होली के अवसर पर जलती आग से कोई व्यक्ति जीवित निकल जाये? जी हां, ब्रज में फालैन और जटवारी दो ऐसे गांव हैं जहां होली के आग से पंडा निकलने की परंपरा है। इन दोनों गांवों में लंबे चौड़े क्षेत्र में होली सजाई जाती है और उसके बीच एक पतली सी जगह छोड़ दी जाती है। जब होली में आग लगाई जाती है और बीसों फुट ऊंची आग की लपटों के बीच से प्रह्लाद का प्रतीक पंडा जब निकलता है तो लोग हैरत से भर उठते हैं। इस परंपरा के निर्वहन में इन दोनों ही गांवों में आज तक कोई पंडा इस दौरान आग से झुलसा तक नहीं है।
अंग्रेज भी रहे थे प्रशंसक-
 1871 से 77 तक मथुरा के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट रहे फ्रेडरिक सोलमन ग्राउस ने अपने कार्यकाल के दौरान जिले के गांवों में घूम-घूमकर यहां के रीति रिवाजों को देखा और उनके बारे में अपनी पुस्तक मथुरा-एडिस्ट्रि क्ट मेमोयर में बरसाना की लठामार होली का वर्णन किया है। ग्राउस ने अपनी पुस्तक में स्त्रियों के लठ्ठ चलाने की कला और कुशलता की प्रशंसा की है। आज भी दुनिया के कई देशों के लोग इस आयोजन को देखने के लिए यहां आते हैं और इसकी रंग-गुलाल से सराबोर हो मस्ती से झूम उठते हैं।
झंडा दौड़ जैसे ग्रामीण अंचलों में होने वाले आयोजन-
 स्त्रियों को सबल बनाने के लिए उस दौर में शुरू की गई कुछ अन्य परंपराएं ऐसी रही थीं जो यहां के ग्रामीण अंचलों में अब भी प्रचलन में हैं। यहां के कई गांव ऐसे हैं जहां नंदगांव-बरसाना की तरह ही महिला-पुरुष लाठी-डंडों से होली खेलते हैं। अधिकांश स्थान ऐसे हैं जहां होली के मौके पर महिलाओं के लिए एक दौड़ का आयोजन किया जाता है, जिसे झंडा दौड़ कहा जाता है। इसमें एक निश्चित दूरी पर झंडा लगा दिया जाता है, प्रतियोगी महिलाओं में से जो सबसे पहले झंडा लेकर वापस लौटती है, उसे पुरस्कृत किया जाता है। इस दौरान महिलाओं को जमकर परिश्रम करना पड़ता है और झंडे को एक दूसरे से छीनने का प्रयास भी किया जाता है।

अनुपम होली होत है, लठ्ठन की सरनाम। अबला सबला सी लगे, बरसाने की वाम।
लठ्ठ धरे कंधा फिरे, जबहिं भगावत ग्वाल। जिमि महिषासुर मर्दिनी, चलती रण में चाल।

करीब एक घंटे तक चलने वाले इस आयोजन के अंत में जीत हर बार हुरियारिनों की ही होती है।आयोजन के अंत में हुरियारे हार स्वीकार करते हुए हुरियारिनों के पैर छूकर क्षमा याचना करते हुए नंदगांव लौट जाते हैं।

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Source – KalpatruExpress News Papper

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