शनिवार, 24 मई 2014

वृन्दावन की गोद में गोलोक मुकुटमणि गोवर्धन



मथुरा नगर के पश्चिम में गभग 21 किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी है, यहीं गिरिराज पर्वत है जो 4 से 5 मीतक फैा हुआ है। इस पर्वत पर अनेक पवि} स्थहै। पुस्त्य ऋषि के श्राप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। कहते हैं इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी छोटी अंगुी पर उठा िया था। गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है।
गर्ग संहिता में गोवर्धन पर्वत की वंदना करते हुए इसे वृन्दावन में विराजमान और वृन्दावन की गोद में निवास करने वाा गोोक का मुकुटमणि कहा गया है। पौराणिक मान्यता अनुसार श्री गिरिराजजी को पुस्त्य ऋषि द्रोणाचपर्वत से ब्रज में ाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब राम सेतुबंध का कार्य चरहा था तो हनुमान जी इस पर्वत को उत्तराखंड से ा रहे थे ेकिन तभी देव वाणी हुई की सेतु बंध का कार्य पूर्ण हो गया है तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: ौट गए। पौराणिक उल्लेखों के अनुसार भगवान कृष्ण के कामें यह अत्यन्त हरा- भरा रमणीक पर्वत था। इसमें अनेक गुफा अथवा कंदराएं थीं और उनसे शीतके अनेक झरने झरा करते थे। उस काके ब्रज-वासी उसके निकट अपनी गायें चराया करते थे, अत: वे उक्त पर्वत को बड़ी श्रद्धा की द्रष्टि से देखते थे। भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र की परम्परागत पूजा बन्द कर गोवर्धन की पूजा ब्रज में प्रचित की थी, जो तबसे लेकर आज तक लगातार जारी है।
महत्त्व-
 गोवर्धन के प्रभाव की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना यह है कि यह भगवान कृष्ण के काका एक मा} स्थिर रहने वाा चिह्न् है।
उस काका दूसरा चिह्न् यमुना नदी भी है, किन्तु उसका प्रवाह गातार परिवर्तित होने से उसे स्थाई चिन्ह नहीं कहा जा सकता है। इस पर्वत की परिक्रमा के िए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णवजन और वल्लभ संप्रदाय के ोग आते हैं। यह पूरी परिक्रमा 7 कोस (क्रोश) अर्थात गभग 21 किोमीटर है। यहां ोग दण्डौती परिक्रमा करते हैं। दण्डौती परिक्रमा इस प्रकार की जाती है कि आगे हाथ फैाकर जमीन पर ेट जाते हैं और जहां तक हाथ फैते हैं, वहां तक कीर खींचकर फिर उसके आगे ेटते हैं। इसी प्रकार ेटते-ेटते या साष्टांग दण्डवत करते-करते परिक्रमा करते हैं, जो एक सप्ताह से ेकर दो सप्ताह में पूरी हो पाती है। यहां गोरोचन, धर्मरोचन, पापमोचन और ऋणमोचन- ये चार कुण्ड हैं तथा भरतपुर नरेश की बनवाई हुई छतरियां तथा अन्य सुंदर इमारतें हैं। मथुरा से डीग को जाने वाी सड़क गोवर्धन पार करके जहां पर निकती है, वह स्थान दानघाटी कहाता है। यहां भगवान दान िया करते थे। यहां दानरायजी का मंदिर है। इसी गोवर्धन के पास 20 कोस के बीच में सारस्वत कल्प में वृन्दावन था तथा इसी के आस-पास यमुना बहती थी।
मार्ग में पड़ने वाे प्रमुख स्थआन्यौर, जतिपुरा, मुखारविंद मंदिर, राधाकुण्ड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुण्ड, पूंछरी का ौठा, दानघाटी इत्यादि हैं। राधाकुण्ड से तीन मीपर गोवर्धन पर्वत है। पहे यह गिरिराज 7 कोस में फैे हुए थे, पर अब स्वयं ही धरती में समा गए हैं। यहीं कुसुम सरोवर है, जो बहुत सुंदर बना हुआ है। यहां वज्रनाभ के पधराए हरिदेवजी थे पर औरंगजेबी कामें वह यहां से चे गए। बाद में उनके स्थान पर दूसरी मूर्ति प्रतिष्ठित की गई। यह मंदिर बहुत सुंदर है। यहां श्री वज्रनाभ के ही पधराए हुए एकचक्रेश्वर महादेव का मंदिर है। गिरिराज के ऊपर और आस-पास गोवर्धन ग्राम बसा है तथा एक मनसा देवी का मंदिर है। मानसी गंगा पर गिरिराज का मुखारविन्द है, जहां उनका पूजन होता है तथा आषाढ़ी पूर्णिमा तथा कार्तिक की अमावस्या को मेगता है। गोवर्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिा पर भगवान का चरणचिह्न् है।
मानसीगंगा पर जिसे भगवान ने अपने मन से उत्पन्न किया था, दीवाी के दिन जो दीपमािका होती है, उसमें मनों घी ख़र्च किया जाता है, शोभा दर्शर्नीय होती है। परिक्रमा की शुरुआत वैष्णवजन जतिपुरा से और सामान्यजन मानसी गंगा से करते हैं और पुन: वहीं पहुंच जाते हैं। पूंछरी का ौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि यहां आने से इस बात की पुष्टि मानी जाती है कि आप यहां परिक्रमा करने आए हैं।
श्रद्धा और विश्वास का केन्द्र-
परिक्रमा में पड़ने वाे प्रत्येक स्थान से कृष्ण की कथाएं जुड़ी हैं। मुखारविंद मंदिर वह स्थान है जहां पर श्रीनाथजी का प्राकट्य हुआ था। मानसी गंगा के बारे में मान्यता है कि भगवान कृष्ण ने अपनी बांसुरी से खोदकर इस गंगा का प्राकट्य किया था। मानसी गंगा के प्राकट्य के बारे में अनेक कथाएं हैं। यह भी माना जाता है कि इस गंगा को कृष्ण ने अपने मन से प्रकट किया था। गिरिराज पर्वत के ऊपर गोविंदजी का मंदिर है। कहते हैं कि भगवान कृष्ण यहां शयन करते हैं। उक्त मंदिर में उनका शयनकक्ष है। यहीं मंदिर में स्थित गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्रीनाथ द्वारा तक जाती है।
गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महत्त्व है।
प्रत्येक माह के शुक्पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक ाखों भक्त यहां की सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं। प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा पर यहां की परिक्रमा गाने का विशेष महत्व है। श्रीगिरिराज पर्वत की तहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय, अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक संतों की साधना-स्थी रही है।
साभार: ब्रज डिस्कवरी
पौराणिक मान्यता-
भगवान श्री कृष्ण के कामें इन्द्र के प्रकोप से एक बार ब्रज में भयंकर वर्षा हुई। उस समय सम्पूर्ण ब्रज जमग्न हो जाने की आशंका उत्पन्न हो गई थी।
भगवान श्री कृष्ण ने उस समय गोवर्धन के द्वारा समस्त ब्रजवासियों की रक्षा की थी। भक्तों का विश्वास है, श्री कृष्ण ने उस समय गोवर्धन को छतरी के समान धारण कर उसके नीचे समस्त ब्रज-वासियों को एक} कर िया था, उस अौकिक घटना का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन कासे ही पुराणादि धार्मिक ग्रन्थों में और काकृतियों में होता रहा है। ब्रज के भक्त कवियों ने उसका बड़ा उल्लासपूर्ण वर्णन किया है। आजकके वैज्ञानिक युग में उस अौकिक घटना को उसी रुप में मानना संभव नहीं है। उसका बुद्धिगम्य अभिप्राय यह ज्ञात होता है कि श्री कृष्ण के आदेश अनुसार उस समय ब्रजवासियों ने गोवर्धन की कंदराओं में आश्रय ेकर वर्षा से अपनी जीवन रक्षा की थी।
यदि आपके पास Hindi में कोई article, inspirational story या जानकारी है जो आप हमारे साथ share करना चाहते हैं तो कृपया उसे अपनी फोटो के साथ E-mail करें. हमारी Id है:facingverity@gmail.com.पसंद आने पर हम उसे आपके नाम और फोटो के साथ यहाँ PUBLISH करेंगे. Thanks!
Source – KalpatruExpress News Papper

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें